एक कम्बल का है सवाल चमके तेरे राजनीति बाबू, चमके व्यापारियों के कारोबार भी दादा
“मैंने अन्तिम बार दो कम्बल 2007 में धनबाद के रणधीर वर्मा चौक पर स्थित खादी ग्रामोद्योग की दुकान से खरीदा था, आज भी है, पर नेताओं द्वारा गरीबों को मिलनेवाला हर साल कम्बल ठीक दूसरे दिन कहां चला जाता है, पता ही नहीं चलता।” आखिर ये माजरा क्या है? लोग या राजनीतिज्ञ या सामाजिक संस्थाएं गरीबों को रजाई या शॉल क्यों नहीं देते? और ये कम्बल जब गरीबों को मिल जाता हैं तो फिर वही कम्बल दूसरे दिन उनके शरीर पर क्यों नहीं दिखता?
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