अपनी बात

पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों की दुहाई देनेवालों, कभी-कभी कश्मीरी पंडितों की भी चिंता कर लिया करो

भाई कश्मीरी पंडितों का अपराध क्या है? यहीं न कि वे भारत माता की जय बोलते हैं। वे जय हिन्द कहते हैं। वे भारत से प्रेम करते हैं, अगर वे ये सब करना बंद कर दें, तो फिर उन्हें भी कश्मीर में क्या दिक्कत है? क्योंकि कश्मीर के नाम पर आग उगलनेवाले, वहां के अलगाववादी नेता हो, या इस्लाम के नाम पर वो हर प्रकार के कुकर्म को जायज ठहरानेवाले लोग हो, या भारत विरोधी तत्व, वे तो यहीं तो चाहते हैं कि कश्मीर में रहनेवाले कश्मीर पंडित वे सब करें, जो वे चाहते हैं।

अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो वे कश्मीर में रह नहीं पायेंगे और ऐसा ही उनके साथ हुआ, आज पचास हजार से भी अधिक कश्मीरी पंडित अपने ही देश में, वह भी धर्मनिरपेक्ष कहलानेवाले देश में शरणार्थियों की तरह जिंदगी जी रहे हैं, आश्चर्य है कि दूसरे देश से आनेवाले रोहिंग्या मुसलमानों की चिन्ता तो वामपंथी और खुद को सेक्य़ूलर कहलानेवाले नेता तथा तथाकथित बुद्धिजीवी खूब किया करते हैं।

यहां के कुछ खुद को सेक्यूलर बतानेवाले टीवी चैनल्स तथा जेएनयू प्रोडक्ट कन्हैया, उमर जैसे युवा तो अलगाववादियों की चिन्ता खुब करते हैं, भारतीय सेना के खिलाफ खूब आग उगलते हैं, पर आज तक कश्मीर में विपरीत परिस्थतियों में अपना कर्तव्य निर्वहण कर रहे, भारतीय जवानों के खिलाफ आग उगलते ही हमने इन्हें देखा, बीबीसी वर्ल्ड हो या बीबीसी हिन्दी यह तो भारत और भारतीय सेना के विरोध के लिए ही जाना जाता है, हम इससे बेहतर की अपेक्षा रखते भी नहीं हैं क्योंकि ये तो इसी के लिए जाने जाते हैं। आज तक हमने कश्मीरी पंडितों की चिन्ता करते हुए न तो इन्हें देखा और न ही सुना।

कल की ही बात है कि कश्मीर से अपने विस्थापन के 29 साल पूरे होने पर कश्मीरी पंडितों ने दिल्ली के राजघाट पर एकत्रित होकर अपने लिए कश्मीर में एक अलग बस्ती बनाने की मांग की, पर ये मांग भी पूरा करने में किसी भी विपक्षी दल ने समर्थन की आवाज नहीं उठाई, जबकि सभी जानते है कि 19 जनवरी 1990 को सशस्त्र आतंकवादियों के साथ मिलकर सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने कश्मीर की सड़कों पर निकलकर कश्मीरी पंडितों के खिलाफ आपत्तिजनक नारेबाजी की थी, उन्हें घाटी छोड़ने पर विवश कर दिया था, इस दौरान कई कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी गई, उनकी महिलाओं के इज्जत से खेला, विभिन्न प्रकार के प्रताड़ना दिये गये, उनका निशाना बनाया गया।

आज भी कश्मीरी पंडित, उस दिन को याद कर, सिहर उठते हैं, वे बताते है कि संभवतः वह रात जीवन की सबसे लंबी रात थी, कश्मीर के हर सड़क पर कश्मीरी पंडितों के खिलाफ आग उगलनेवालों का कब्जा था, वे नारे लगा रहे थे या तो तुम हमारा साथ दो, नहीं तो कश्मीर घाटी छोड़ दो।

आज 29 सालों के बाद भी इनका जीवन नारकीय बने हुए हैं, इसी बीच दिल्ली में कई सरकारें आई और चली गई, जम्मू-कश्मीर में भी कई सरकारें बनी-बिगड़ी, पर इनकी सुननेवाला कोई नहीं, क्योंकि किसी में हिम्मत ही नहीं कि इन्हें वहां बसा सकें, क्योंकि भारत में कश्मीरी पंडितों के मदद के नाम पर न तो वोट मिलते हैं, और न ही इनसे सरकार पर कोई असर पड़ता है, इसलिए इस देश का कोई दल, कश्मीरी पंडितों की नहीं सुनता, और न ही चैनल्स सुनते हैं, पर जब इसके विपरीत कोई घटना हो, तो देखिये ये चैनल्स और नेता गला फाड़कर चिल्लायेंगे, रोयेंगे, जैसे लगता हो कि उनकी प्रेमिका की मौत हो गई हो, क्योंकि हम जानते है कि ये नेता और चैनल्स तो अपनी मां-बाप के मरने पर भी नहीं आंसू बहाते, ये कहकर कि अच्छा हुआ बुड्ढा-बुड्ढी मर गये, बड़ा दिक्कत किया करते थे।

अब कल के कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में जुटे धुरंधर एवं खुद को सेक्यूलर कहलानेवाले नेता बताएं कि उस भीड़ में कौन ऐसा नेता था, जिसने कश्मीरी पंडितों के दर्द की चिन्ता की, क्या कश्मीरी पंडित जानवर से भी गये गुजरे हैं, या वे मनुष्य के रुप में ऐसे जानवर हो गये कि जो कश्मीरी अलगाववादियों के लिए बलि का समान बन चुके हैं, आखिर हम ऐसे सेक्यूलर नेताओं की बातों में क्यों आये, जो आदमी-आदमी में भी विभेद करता हो, जो दलितों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों की चिन्ता करता हो, और कश्मीरी पंडितों की चिन्ता इसलिए नहीं करता हो, कि वे सिर्फ और सिर्फ पंडित है, तो मैं ऐसे नेताओं और दलों को ‘मौत का सौदागर’ से ज्यादा कुछ नहीं मानता।