अपराध

लानत है ऐसी पत्रकारिता पर, अपने को मनुष्य कहने पर, बचाने की जगह पत्रकार प्रश्न पूछता रहा

झारखण्ड का सिर एक बार फिर झूका है, आखिर क्या हुआ हैं, जो हमें ऐसा  लिखना पड़ रहा है। दरअसल गढ़वा के धुरकी में एक पत्नी की हत्या का आरोपी एक युवक जली हुई स्थिति में बीच सड़क पर जान बचाने की गुहार लगाता रहा, पर उसे बचाने की कोशिश किसी ने नहीं की, वह दर्द से चिल्लाता रहा, पानी मांगता रहा पर लोग उसकी मदद करने के बदले उसकी वीडियो बना रहे थे, एक टीवी रिपोर्टर ने भी वहीं किया जो अन्य लोग कर रहे थे, यानी उसने भी उसे बचाने की जगह समाचार संकलन करने में ही समय बिताया, उसने बाइट लेने में ही ज्यादा बुद्धिमानी दिखाई, जबकि उसका पहला काम उस व्यक्ति को बचाना था। ऐसे में आखिरकार उस युवक की मौत हो गई।

जिस राज्य में पत्रकारिता के शीर्ष पर अथवा पत्रकारिता को जीवन देनेवाले प्राणदाताओं वाले स्थान पर चरित्रहीनों, बेशर्मों और जाहिलों का कब्जा होता है, वहां ऐसे ही भस्मासुर रुपी पत्रकारों का जन्म होता है, जो किसी के प्राण बचाने के बजाय, उससे ये पूछ रहे होते हैं कि आप मर रहे हो, बताओ कैसा लग रहा है? जो लोग अभी पत्रकारिता के क्षेत्र में आ रहे हैं या जो अभी हैं, जरा बताओ कि उनमें कौन सा चारित्रिक गुण है, जिससे हम ये समझे कि वह मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए पत्रकारिता करेगा।

जरा रांची में ही बताइये कि यहां विभिन्न अखबारों व चैनलों में कार्यरत कितने ऐसे संपादक है, जिनके चारित्रिक गुणों का हम अनुसरण करने के लिए आज के नवोदित पत्रकारों को कहे। जहां का संपादक सूचना आयुक्त बनने के लिए, जहां का संपादक सांसद बनने के लिए सत्ता के गलियारों का दौर लगाता है, वहां आप चारित्रिक और मानवीय मूल्यों की रक्षा वाली पत्रकारिता की बात कैसे कर सकते है?

आप क्यों नहीं समझने की कोशिश कर रहे हैं कि गंगा कोलकाता से नहीं बल्कि गंगा गंगोत्री से भी 18 किलोमीटर दूर गोमुख से निकलती हैं, जब गंगा जहां से निकलती है, वहीं दूषित हो जाये तो फिर कोलकाता की गंगा की हालत क्या होगी?  आप इसे समझने की कोशिश करें। जरा एक उदाहरण और लीजिये, सारे के सारे अखबारों व चैनलों के संपादक जानते है कि वे अपने यहां कार्यरत स्टिंगरों को कितने पैसे का भुगतान करते हैं, या उन्हें जो भी कुछ देते हैं, वह कितने महीनों पर देते हैं, ऐसे में सब कुछ जानते हुए उनसे रांची प्रेस क्लब की सदस्यता के लिए 2100 रुपये छाती पर चढ़कर लेने की बात करनेवाले से आप मानवीय मूल्यों की रक्षा की बात कैसे सोच सकते है?

गढ़वा की जो हृदय विदारक घटना की रिपोर्ट हमारे सामने हैं, वह बताने के लिए काफी है कि इस घटना के लिए केवल वह संवाददाता ही जिम्मेवार नहीं है, जिम्मेवार वे संपादक भी है, जो राजधानी में एसी में बैठकर, घटियास्तर के कार्यों में लिप्त रहते हैं और अपने स्टिंगरों को मनुष्य न समझकर पशु समझते हैं, ऐसे में मुफ्फसिल संवाददाताओं से मानवीय मूल्यों की रक्षा करते हुए रिपोर्टिंग कराने की बात करना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं। मेरे विचार से गढ़वा के रिपोर्टर ने जो कुछ किया, उसके लिए सर्वाधिक अगर कोई दोषी है, तो वे संपादक हैं जिनके पास मोरेलिटी हैं ही नहीं, ऐसे में जिनके पास खुद मोरेलिटी का अभाव है, वो अपने स्टिंगरों में मोरलिटी कैसे भरेगा?

धिक्कार है, ऐसे रिपोर्टर पर और धिक्कार है ऐसे संपादक पर और धिक्कार है ऐसी व्यवस्था पर जिसने आज के युवाओं को ये नहीं सिखाया, ये नहीं बताया कि तुम सबसे पहले मनुष्य हो, और बाद में और कुछ। तुम्हारा पहला धर्म मानव और मानवीय मूल्यों की रक्षा करना है, और बाद में फिर दूसरा और कुछ, पर यहां तो मनुष्य तो दूर, अब तो ये पशु-पक्षी भी नहीं रहे। एक कौआ को देखिये, कैसे अपने समान एक कौए को जब मरा हुआ या बेहाल देखता है तो कैसे कांव-कांव का रट लगाकर वो भीड़ इकट्ठी कर लेता है, क्या आज का आदमी एक पक्षी से भी ये बाते नहीं सीखा।

गढ़वा की घटना, करारा तमाचा है, गिरती पत्रकारिता पर।  ये घटना तमाचा है, राजधानी में बैठे उन संपादकों के गालों पर, जिन्होंने अपनी मर्यादा को मिट्टी में मिला कर रख दिया है, जिनके लिए सत्ता की दलाली और धनपशुओं की आरती के सिवा दूसरा कोई बड़ा काम ही नहीं। मैं तो कहता हूं कि जब तक पत्रकारिता के शीर्ष पर अथवा पत्रकारिता को जीवन देनेवाले प्राणदाताओं वाले स्थान पर चरित्रहीनों, बेशर्मों और जाहिलों का कब्जा रहेगा, ऐसे दृश्य हमें दीखते रहेंगे।

ऐसे में सभी प्रयास करें कि पत्रकारिता के शीर्ष पर बैठे भस्मासुरों को उतारकर बाहर फेंकना शुरु करें ताकि उस स्थान पर चारित्रिक गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति बैठे जो अपने ही जैसा व्यक्ति हर स्थान पर स्थापित करें, जिससे विपरीत परिस्थितियों में भी गणेश शंकर विद्यार्थी जैसा पत्रकार हर स्थान पर दिखाई दे, जिन्होंने मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए खुद को समर्पित कर दिया न कि किसी दूसरे की जान ले ली।

One thought on “लानत है ऐसी पत्रकारिता पर, अपने को मनुष्य कहने पर, बचाने की जगह पत्रकार प्रश्न पूछता रहा

  • राजेश कृष्ण

    तश्वीर देखे तो लगा फेक है,ये सब सिनेमा में होता है या सोशल मीडिया मशाला है..पर आपको पढ़ा तो पता लगा वास्तव में कितना गीड़ गया है आदमी..कुछ शब्द नहीं ..घोर अमानवीय ,दुःखद,निंदनीय,और चिंतनीय भी

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