राजनीति

राजभवन को भी सीएनटी-एसपीटी संशोधन पर ऐतराज…

राजभवन ने सीएनटी-एसपीटी संशोधन प्रस्ताव को ठुकरा दिया है और इसे पुनः विचारार्थ राज्य सरकार को भेजा है, विपक्ष इसे अपनी जीत बता रहा है, वहीं सरकार के लोग इस पर कुछ भी बोलने से बच रहे है, राजनीतिक पंडित राजभवन के इस फैसले और समय को लेकर कुछ शक कर रहे है, उनका कहना है कि राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का सीएनटी-एसपीटी प्रस्ताव को पुनः राज्य सरकार को लौटाना और वर्तमान समय शक पैदा कर रहा है, चूंकि राष्ट्रपति की रेस में द्रौपदी मुर्मू का भी नाम उछला था, पर चूंकि जब रामनाथ कोविंद का नाम राष्ट्रपति के लिए आया तब द्रौपदी मुर्मू ने सीएनटी-एसपीटी के भूत को राज्य सरकार के समक्ष यह रखकर खड़ा किया कि इस पर सरकार पुनः विचार करें, हालांकि जब से राज्य सरकार ने सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन का फैसला किया था, उस फैसले के बाद कई राजनीतिक दलों व सामाजिक संगठनों तथा मिशनरियों ने इसके खिलाफ कड़ा रुख अपना लिया था तथा इसके लिए आम जनता को एकजूट करना भी प्रारंभ कर दिया था, जबकि एक समय ऐसा भी था कि सारे के सारे राजनीतिक दल जो सत्ता सुख प्राप्त कर चुके थे, उन्होंने भी वर्तमान समय को देख, अपने-अपने समय में, इस एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव को जनहित में स्वीकार किया था, ये अलग बात है कि इस पर वे कोई फैसले लेने की स्थिति में नहीं थे और न ही चाहते थे कि वै फैसले ले सकें, इनका मूल मकसद राज्य को ढुलमुल नीतियों में उलझाये रखना था, पर रघुवर सरकार की एक बात तो मानना पड़ेगा कि ये सरकार फैसले लेना जानती है, भले ही उसका कुछ भी परिणाम निकले। होना भी यही चाहिये कि फैसले हो, उस पर चर्चा हो और जब सहमति बने तो उस पर अमल हो।

क्या चाहती थी राज्य सरकार?

सरकार चाहती थी कि सीएनटी एक्ट की धारा 21 और एसपीटी एक्ट की धारा 13 में परिवर्तन कर कृषि योग्य भूमि की प्रकृति में बदलाव किया जाय।

कृषि योग्य भूमि की प्रकृति में बदलाव का विरोध

आदिवासी संगठनों से जुड़े ज्यादातर लोगों का मानना था कि अगर ऐसा होता है तो राज्य की करीब एक चौथाई कृषि भूमि का स्वरुप बदल जायेगा, जो राज्य के लिए ठीक नहीं, इससे कृषि भी प्रभावित होगा, यहीं नहीं इनकी धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक संरचनाएं प्रभावित हो जायेगी, जिससे इनका मूल अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।

भाजपा के अंदर भी विरोध

इस एक्ट में संशोधन का भाजपा में भी व्यापक विरोध हुआ था, विरोध का आलम यह था कि भले ही विधायक खुलकर इसका विरोध न करें पर अपनी आपत्ति केन्द्रीय नेताओं को समय-समय पर अवश्य दर्ज कराते रहे, साथ ही ये भाजपा नेता राजभवन से भी अपना संपर्क बनाये रखे थे, जिसका परिणाम सामने आया। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा और पूर्व लोकसभा उपाध्यक्ष करिया मुंडा ने तो खुलकर इसका विरोध किया। अर्जुन मुंड़ा ने तो साफ कहा कि ये आदिवासियों के हित से जुड़ा मामला है, इसमें संशोधन कतई मंजूर नहीं, हालांकि कुछ लोगों ने इस एक्ट में हो रहे संशोधन को स्वीकार किया पर इनकी संख्या विरोध करनेवालों की संख्या के आगे कम रही।

विपक्षी दलों में खुशी की लहर

हालांकि जैसे ही यह समाचार आया कि राजभवन नें सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव को अपनी अनुमति नहीं दी और सरकार को पुनर्विचार के लिए प्रस्ताव लौटा दिये, तो इससे सरकार बैकफुट पर चली गयी है, उसे ऐसी संभावना नहीं थी, पर ऐसा हुआ है, इधर कांग्रेस, झाविमो, झामुमो, भाकपा माले इसे अपना विजय मान रहे है, और सड़कों पर विक्टरी चिह्न दिखाते हुए अपनी जीत दिखा रहे है, पर उन्हें भी मालूम है कि राजभवन की ताकत इस लोकतंत्र में कितनी है।

192 आपतियां पर विचार करने का सुझाव

सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन को लेकर विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक संगठनों ने 192 आपत्तियां दर्ज करायी थी, राजभवन ने उन सारी आपत्तियों को सरकार के समक्ष रखा है और उन पर विचार करने को कहा है, अब सवाल है कि क्या राज्य सरकार उन सारे विचारों पर अमल करने को तैयार है? कितने समय लगेंगे ऐसा करने में, चूंकि समय भी नहीं है? दिन-प्रतिदिन रघुवर सरकार का कार्यकल सिकुड़ता जा रहा है, विभिन्न विकासात्मक योजनाओं को जमीन पर उतारने के लिए संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी, ये विपक्ष भी जानता है, और शायद विकास की सबसे बड़ी बाधा भी यहीं है, झारखण्ड की स्थिति यह है कि यहां विपक्ष में कोई भी हो, वे सभी उन चीजों का भी विरोध करते है, जो झारखण्ड के हित से जुड़ा है, यहीं कारण है कि दो टुकड़ों में हुआ बिहार का वर्तमान बिहार प्रगति के क्षेत्र में झारखण्ड को हर पल मात दे रहा है, पर यहां के राजनीतिज्ञों को इससे कोई मतलब नहीं, ये तो अपनी दुकानदारी कैसे फिट हो? इस पर ज्यादा ध्यान देते है, यहां की जनता  को भी राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के अपने स्वार्थ दिखाई नहीं पड़ते, उन्हें लगता है कि ये जो रास्ता दिखा रहे है, वे ही सही है, और नतीजा सामने है…