अपनी बात

निर्णय लेना कोई नीतीश से सीखे…

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर बता दिया कि वे चाहे किसी के भी समर्थन से सरकार क्यों न चला रहे हो? पर जहां तक नीति और सिद्धांत की बात है, वे किसी से नीति और सिद्धांत को उधार नहीं लेंगे, उनकी अपनी नीति है, उस पर चलते रहेंगे, चाहे उसके कुछ भी परिणाम क्यों न निकल जाये? जब निर्णय ले लिया तो ले लिया, बाद में देखेंगे कि उसका क्या परिणाम निकलेगा?

पिछली बार यूपीए को और इस बार एनडीए कैंडिडेट को समर्थन

याद करिये आज से ठीक पांच साल पहले नीतीश राजग में थे, उस वक्त राष्ट्रपति चुनाव के दौरान राजग ने अपना उम्मीदवार दिया था, पर नीतीश ने ठीक इसके उलट यूपीए के प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने का ऐलान कर दिया, वे अडिग रहे। इसी बीच भाजपा के लोग एनडीए को वोट कर रहे थे और नीतीश की पार्टी, नीतीश द्वारा दिये गये दिशा-निर्देश के अनुसार प्रणब मुखर्जी के पक्ष में मतदान कर रही थी।

इसी बीच 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में जैसे ही एनडीए ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी घोषित किया, और जिस प्रसन्नता के साथ समाचार सुनते ही, नीतीश कुमार राजभवन जाकर, रामनाथ कोविंद को बधाई दिये, उसी से पता चल गया था कि नीतीश ने मन बना लिया है कि उनकी पार्टी रामनाथ कोविंद को अपना समर्थन देगी और लीजिये समर्थन देने में नीतीश की पार्टी ने विलम्ब भी नहीं किया।

रामनाथ कोविंद बेहतर राज्यपाल

इसमें कोई दो मत नहीं कि विचारधाराओं की दूरियों के बावजूद बिहार में रहकर रामनाथ कोविंद ने एक बेहतर राज्यपाल की भूमिका निभाई और इसी दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ बेहतर संबंध बनाये, जिसका परिणाम है नीतीश का रामनाथ कोविंद को समर्थन।

ऐसे तो अब औपचारिकता मात्र रह गया है, रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनने का क्योंकि राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए जितने वोटों की आवश्यकता है, वह आसानी से उन्हें अब उपलब्ध है, पर इसी बीच यूपीए के द्वारा पूर्व लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार को राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित कर देना, बताता है कि यूपीए, एनडीए को इतनी आसानी से राष्ट्रपति चुनाव जीतने नहीं देगा।

विपक्ष ने नीतीश कुमार को एक तरह से धर्म संकट में डालने का भी प्रयास किया है, क्योंकि मीरा कुमार, बिहार से आती है, दलित है, महिला है, इसलिए यूपीए को लगता है कि इस काट का जवाब नीतीश कुमार के पास भी नहीं है, पर हमें नहीं लगता की विपक्ष के इस काट का जवाब नीतीश के पास नहीं है। अभी न तो बिहार में विधानसभा के चुनाव होने है और न ही लोकसभा के, ऐसे में नीतीश का यह निर्णय पूर्णतः विवेकपूर्ण है और इसका प्रथम दृष्ट्या राजनीतिक लाभ नीतीश कुमार को मिल भी चुका है।

दलित राजनीति पर चर्चा

रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार दोनों दलित वर्ग से आते है, ऐसे में पहली बार ये सोशल साइट पर खुलकर चर्चा हो रही है कि दलित मतलब क्या?  क्या अब राष्ट्रपति के चुनाव में भी दलित-सवर्ण-अल्पसंख्यक आदि की राजनीति होगी? क्या दलित का मतलब, वे लोग है, जो पिछले कई वर्षों से दलित समुदाय का लाभ लेते हुए, अपनी जिंदगी शान से गुजर – बसर कर रहे है, जो सवर्णों को भी नसीब नहीं? क्या जो दलित, संविधान का फायदा उठाकर, स्वयं अतिप्रतिष्ठित हो चुके है, क्या वे स्वयं उन दलितों के साथ संबंध स्थापित करते है, जो आज भी समाज से कटे हुए है या जिनकी स्थिति बेहतर नहीं? जब ऐसा नहीं तो फिर दलित होने का क्या मतलब? जब दलित राजनीति के अतंर्गत दलित समुदाय के लोग आगे बढ़ रहे है, तो ऐसे में, इनका फर्ज क्या बनता है? फिर वहीं स्थिति पैदा करना, कि हम दलित है तो दलित को मिलनेवाली सारा फायदा  उठाते रहेंगे और अपने ही वंचित वर्ग को मिलनेवाली सहूलियत हड़पेंगे। क्या संविधान निर्माताओं ने इसी प्रकार की सुविधाओं की राजनीति के लिए संवैधानिक व्यवस्था मंजूर की थी?

अच्छा होता कि राष्ट्रपति चुनाव में रामनाथ कोविंद को इसलिए चुना जाता कि वे इस पद के लिए काबिल है बस, पर यहां उन्हें दलित कहकर संबोधित करना, स्पष्ट करता है कि हम कभी भी भारत को बेहतर बनाने की कोशिश करने को उत्सुक नहीं है, जहां इस तरह की क्षुद्र राजनीति चलती है, वहां पर सत्य और ईश्वर के नाम पर ली जानेवाली शपथ, सिर्फ औपचारिकता मात्र है, साथ ही सत्य और ईश्वर को धोखा देना भी, अच्छा होता कि ये शपथ लेने की परिपाटी ही बंद कर दी जाती।

विपक्ष में फूट

कमाल है महागठबंधन के नाम पर राजनीति करनेवाले ये नहीं जानते कि नीतीश ने कभी इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में जब वे लालू प्रसाद के संग मिलकर चुनाव लड़ने के लिए हामी भरी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भारत विजय अभियान का रथ रोकने का मन बनाया तो लोगों ने नीतीश कुमार पर यह कहकर टिप्पणी की थी, कि जिस लालू को सत्ता से हटाकर, उन्होंने सत्ता संभाली, फिर उन्हीं के गोद में जाकर वे बैठ गये, फिर भ्रष्टाचार होगा, जंगलराज होगा। तभी उन्होंने इन सारी शंकाओं को निर्मूल करते हुए रहीम के दोहे गुनगुनाए थे, जिसके बोल थे –

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।

चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।

यह दोहा भी यह बताने के लिए काफी था कि आखिर नीतीश की सोच क्या है?

लालू प्रसाद की हिम्मत नहीं कि वे नीतीश से नाता तोड़ ले, क्योंकि फिर उनकी हालत क्या होगी? लालू प्रसाद अच्छी तरह जानते है, कांग्रेस का क्या? वह तो पूरे बिहार में समाप्त हो चुकी है, उसके सुप्रीमो तो नीतीश और लालू के पीछे चलने को बिना कहे तैयार है, तो फिर कांग्रेस की बात करना ही यहां बेमानी है। चलिए, महागठबंधन और वामपंथियों ने उम्मीदवार दिया है, नीतीश एनडीए के साथ है, इसका दुख महागठबंधन और वामपंथियों को भी है, क्योंकि जो वे सोच रहे थे, उस पर नीतीश ने स्वहित में पानी जरुर फेर दिया, आगे नीतीश की नीति क्या गुल खिलायेगी, इसका जवाब तो भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल नीतीश कुमार ने रामनाथ कोविंद द्वारा जो बिहार को सेवा दी गयी, उस सेवा को यादकर, समर्थन देकर, जो उन्होंने निर्णय लिया, सचमुच काबिले तारीफ है, तभी तो लोग कहते है कि भाई नीतीश, नीतीश है।