अपनी बात

इतना भी आसां नहीं मोदी को 2019 में शिकस्त दे देना, विपक्ष मोदी की व्यूहरचना से सीखे

1984 में भाजपा दो थी और आज केन्द्र में उसकी बहुमत की सरकार है। कभी भाजपा एक-दो राज्यों में दिखाई पड़ती थी, तो आज पूर्व से लेकर पश्चिम तथा उत्तर से लेकर दक्षिण तक उसका प्रभाव है, यानी जो उस वक्त स्थिति कांग्रेस की थी, वो अब भाजपा की है, कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, और उसके अस्तित्व को चुनौती, उसके साथ चल रहे छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल ही दे रहे हैं।

कर्नाटक उसका सबसे सुंदर उदाहरण है, जहां बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस एक छोटी सी क्षेत्रीय दल के आगे ठुमके लगाने पर मजबूर है पर वह क्षेत्रीय दल उसे भाव ही नहीं दे रहा, क्योंकि उसे मालूम है कि कांग्रेस जैसे ही उसे हटायेगी, भाजपा कर्नाटक में सत्ता में होगी, और कांग्रेस ऐसा खुद भी नहीं चाहेगी, कहा भी जाता है कि जब सामनेवाला आपकी कमजोरी जानता हैं तो आपको वह भाव नहीं देता।

कभी भाजपा के साथ भी यहीं स्थिति थी, पर जैसे ही भाजपा के हाथों से राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ खिसका, उसे भी वैसे-वैसे दल पाठ पढ़ाने लगे, जो 2014 में भाजपा के ही पुण्य प्रताप से विजयी हुए थे, तथा अपने खानदान को चुनावी वैतरणी पार लगाया था, उसका सुंदर उदाहरण बिहार की लोकजनशक्ति पार्टी है, जो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, और राजस्थान में भाजपा की हुई हार के बाद, उनसे बेवजह ही सात सीटे बिहार में छीन ली, जबकि मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि अगर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा के पक्ष में परिणाम आता तो इनकी स्थिति क्या होती?

ऐसे में अब देश की राजनीति मूल्यों की नहीं, बल्कि परिस्थितियों की हो गई, अब कोई नेता देश की बात नहीं करता, वह यह देखता है कि चुनाव किसके साथ रहकर लड़ने में फायदा हैं ताकि उसकी मेहबूबा खुश रह सकें तथा वह अपने परिवार के लिए सात पुश्तों तक की व्यवस्था कर लें, या किसी कारण से अटल बिहारी वाजपेयी अथवा जार्ज फर्नांडिस जैसी बिमारी हो जाये तो एक व्यक्ति कम से कम उसकी जिम्मेदारी लेकर सेवा कर सकें।  

जहां इस प्रकार की राजनीति होती है, वह देश हमेशा पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसियों से गीदड़ भभकी सहता रहता हुआ तनाव में चल रहा होता है, साथ ही उस देश में असामाजिक तत्व व आतंकियों का विभिन्न ग्रुप ऐसे नेताओं की मदद से अपना काम बड़ी ही आसानी से कर रहा होता है, क्योंकि यहीं नेता कभी-कभी ऐसे बयान दे देते है कि आतंकियों को एक तरह से लाभ मिल जाता हैं।

जरा देखिये, हमारे देश के नेताओं को, वो यहां की जनता को क्या समझते है, वे यहां की जनता की नब्ज को खूब समझते हैं, वह जानते है कि इस देश की जनता भारतीय नहीं, बल्कि पहले और अंत तक जातिवादी है, वह जानता है कि वह पहले यादव है, मुसलमान है और दलित है, सवर्ण है, तभी तो एक दूसरे का कट्टर दुश्मन होने, तथा नहीं देखने का इरादा रखने के वावजूद बेमेल गठबंधन करता है, और जनता को बताता है कि हम यादवों के नेता और वे दलितों के नेता एक साथ हो गये हैं, हाथी अब साइकिल पर बैठेगा, चाहे साइकिल की दम ही क्यों न निकल जाये, अथवा साइकिल पर हाथी बैठ ही क्यों न पाये, हमने बेमेल गठबंधन कर लिया है, इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव में हमें याद रखना है कि सभी मिलकर रिकार्ड मतों से हाथी और साइकिल वाली गठबंधन को जीता देना है।

दूसरी ओर बिहार-झारखण्ड को देखिये, कल तक इधर से उधर होते हुए भाजपा में आकर, अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ानेवाले यशवंत सिन्हा अपने बेटे तक की काया पलट कर दी और अब उसी भाजपा को नैतिकता की शिक्षा दे रहे हैं। बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा तो कोई दिन ऐसा नहीं रहा, जो भाजपा में ही रहकर भाजपा को गरियाया नहीं हो, जबकि इन्हें भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया, और स्वास्थ्य मंत्री बनने के बावजूद भी इन्होंने कितना भाजपा और खुद का मान बढ़ाया, सभी जानते हैं, लेकिन आजकल वे भाजपा में ही रहकर भाजपा को गरियाने का काम करते हैं, यानी जिस थाली में खाया, उसी थाली में छेद किया।

दूसरी ओर बंगाल की ममता बनर्जी, अच्छी तरह से जानती है कि बंगाल में कांग्रेस और वाममोर्चा का पूरी तरह से श्राद्ध हो चुका है, और अगर बंगाल में उसकी लड़ाई अगर किसी से हैं तो वह भाजपा है, इसलिए ममता बनर्जी ने ऐसे-ऐसे नेताओं को बुलाकर कोलकाता में रैली करवाई, जिनका आधार स्वयं बंगाल में नहीं है, पर वो बंगाल की जनता को यह वह दिखाने की कोशिश कर रही है कि अगर सब कुछ ठीक रहा, और ज्यादा सीटे बंगाल से उनकी आ गई तो केन्द्र में पहला बंगाली प्रधानमंत्री के रूप में ममता बनर्जी ही दिखाई पड़ेगी, पर ममता को पता नहीं कि बंगाल में भाजपा और संघ ने ऐसी व्यूह रचना कर दी है कि बंगाल में भाजपा अगर अप्रत्याशित सफलता अर्जित कर लें, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा।

उधर ओड़िशा में कांग्रेस में पड़ी फूट कांग्रेस के लिए चिन्ताजनक हैं, यानी भाजपा अगर कुछ जगह असफलता का स्वाद चख रही है, तो उसे कई राज्यों से सफलता का स्वाद भी मिल रहा है, और जिस प्रकार से विभिन्न दलों के लोग रैलियां और सभाएं करके मोदी पर प्रहार कर रहे हैं, तो एक प्रकार का जनता के बीच संदेश भी जा रहा है, कि मोदी एक और बाकी अनेक, सभी मिलकर एक मोदी को राजनीतिक साजिश के तहत प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिश कर रहे हैं।

अगर इसी बात को भाजपा ने जनता के बीच अपनी राजनीतिक तकनीक से पहुंचा दिया तो भाजपा को बैठे-बैठे सफलता मिल जायेगी, क्योंकि देखने में आ रहा हैं कि नेता तो जुट रहे हैं, पर उन्हें बोलना क्या हैं और बोल क्या दे रहे हैं, जरा शरद यादव को देखिये, मामला रफेल का और बोफोर्स मामला उठा दिया, वह भी तब जब कांग्रेस के दो धाकड़ नेता, कोलकाता की सभा में बैठे थे, यानी आप मोदी से इतना डरे हुए है कि आपको भाषण देने में भी मति बिगड़ जा रही है, जबकि इन सब से बेफिक्र नरेन्द्र मोदी ने वह काम करना शुरु कर दिया है, जिस पर विरोधी दलों का ध्यान ही नहीं हैं।

अरे भाई युद्ध राजनीतिक हो या दो देशों का, लड़ती सेना है, और राजनीतिक दलों की सेना, उनके कार्यकर्ता होते हैं, जब आपके कार्यकर्ताओं में जोश, उमंग और उत्साह होगा, तो आप आराम से जीतेंगे, पर आपके कार्यकर्ताओं में उत्साह, उमंग और जोश का अभाव होगा, तो आप कुछ भी कर ले, आप को हार का ही सामना करना पड़ेगा। मोदी से सीखिये, वे सीधे खुद अपने कार्यकर्ताओं से सम्पर्क बनाये हुए हैं, वे सीधे अपने कार्यकर्ताओँ का मनोबल बढ़ा रहे हैं, वे बता रहे है कि विपक्ष को कैसे शिकस्त देना हैं, उन्हें करना क्या हैं, उन्होंने किया क्या हैं?

कहा जाता है कि अगर दुश्मन में कोई गुण हो तो उसे पहचानिये, उससे सीखिये, चाहे दुश्मन कितना भी बुरा क्यों न हो? अगर नरेन्द्र मोदी को हराना है, तो नरेन्द्र मोदी की कमजोरी और उनकी ताकत को समझिये। नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यकर्ताओं और उन करोड़ों मतदाताओं को अपने व्यवहारों से बता दिया कि भारत का पहला प्रधानमंत्री हुआ, जो धर्मनिरपक्षता की परिभाषा ही बदल दी, वह मंदिर जाता है, वह विभिन्न महापुरुषों के द्वारा स्थापित आश्रमों में जाता है।

वह सिद्ध कर चुका है कि उस पर भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं हैं, रफेल पर आरोप लगाने की भी कोशिश की गई, पर सभा में शरद यादव जैसे विरोधी दल में शामिल नेता, रफेल पर न बोलकर बोफोर्स पर बोल जाते हैं, वह बताता है कि पूरे विश्व में भारत के सम्मान को उसने बढ़ाया है, और कार्यकर्ता भी उनके आगे अंधभक्त बनने को तैयार है, पर मोदी के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं।

इसलिए विरोधी दलों को चाहिए कि वे सभा और रैलियों से ज्यादा, अपने कार्यकर्ताओं की टीम को सशक्त करें, उनके मनोबल को बढ़ाएं, उन्हें बताएं कि वर्तमान में विरोधी दलों की सरकार की क्यों आवश्यकता है? उन्हें बताइयें केन्द्र की मोदी सरकार ने कहां-कहां गड़बड़ियां की, सच्चाई भी है कि मोदी सरकार ने बहुत सारी गड़बड़ियां की है, उनकी एक लंबी सूची हैं, उन सूची को जनता के समक्ष रखिये, वह भी विनम्रता के साथ, क्योंकि जनता आक्रामक रुख को पसंद नहीं करती, क्योंकि वह फिर उस व्यक्ति के प्रति सहानुभूति रखने लगती है, जिसके खिलाफ आक्रामकता दिखाई जाती है।

दरअसल 2014 में नरेन्द्र मोदी का केन्द्र में आना, मोदी की लोकप्रियता नहीं, बल्कि विरोधी दलों द्वारा बार-बार उनके सम्मान का हनन करना तथा उनकी नकारात्मकता वाली छवि को जनता के बीच रखना था, जो जनता को बुरा लगा और जनता ने उन्हें ऐसा बहुमत दे दिया कि विरोधी दल चाहकर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकी, कई दल तो अपने अस्तित्व को लेकर चिन्तित हो गये, दस सालों तक लगातार शासन करनेवाली कांग्रेस के पास इतना भी सांसद नहीं था कि उसका नेता विरोधी दल का नेता भी बन सके, बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टी की सुप्रीमो राज्यसभा से भी साफ हो गई।

इसी से पता चल जाता है कि राजनीति में चुनाव प्रचार कितना मायने रखता है, अगर आपको नहीं समझ में आता है, तो आपका भगवान ही मालिक है, पर वर्तमान में जिस प्रकार से विरोधी दलों का नकारात्मक प्रचार-प्रसार चल रहा है, हमें लगता है कि विरोधी दलों का यहीं प्रचार कही नरेन्द्र मोदी को फिर से केन्द्र में स्थापित न कर दें।