अपनी बात

अब काहे की मित्रता और काहे का फ्रेंडशिप डे

उम्र यहीं कोई रही होगी पांच-छःसाल। एक हाथ में जूट की बोरी और दूसरे हाथ में एक छोटी सी मैली-कुचैली थैली, जिसमें रखा प्यारा सा स्लेट, कोबी की डंडी और गीताप्रेस गोरखपुर की हिन्दी बाल पोथी और कभी –कभी मनोहर पोथी और लीजिये पहुंच गये स्कूल। स्कूल भी कोई बहुत दूर नही जाना पड़ता, मेरे घर के सामने ही था – प्राथमिक स्कूल। जिसमें पहली कक्षा से लेकर तीसरी कक्षा तक के छात्र एक ही स्थान पर बैठकर पढ़ा करते। स्कूल की लोकप्रियता ऐसी की हमारे बीबीगंज, दानापुर, गोला, लालकोठी, शनिचरा स्थान और नयाटोला तक के बच्चे यहां पढ़ने आते। पढानेवाली टीचर सभी महिलाएं, जिन्हें हमलोग नाम से नहीं जानते और न ही कोई मुहल्ले के लोग ही उन्हें नाम से बुलाते। हां इनको बस इसी से जाना जाता कि ये खगौलवाली दीदी जी है, ये गोलापर वाली दीदी जी है और ये गलीवाली दीदी जी है, यानी जो जहां से आती, बस उनका नामकरण हो जाता।

जितना ये दीदीजी प्यार से पढ़ाती, उतना ही ठोकती भी खूब, पर मजाल नहीं कि कोई बच्चे का अभिभावक, इन दीदीजी से ये पूछने की हिम्मत करें कि आपने उनके बच्चों को क्यों मारा? या उनसे काम क्यों लिया?  उलटे उस वक्त के गार्जियन ही बोल दिया करते, ये घर पर पढ़ता ही नहीं, लीजिये हो गई और ठुकाई। अगर पहाड़ा याद करने के लिए दे दिया गया या श्रुतिलेख लिखाया जा रहा है और किसी ने इधर – उधर तांक-झांक कर ली तो हो गया, पिटाई सुनिश्चित है। खजूर की छड़ी लाने का विशेष इंतजाम हमारे ही मित्रों की मंडली में से एक को दे दिया जाता, वह भी बड़े प्रेम से लाकर वो छड़ी दीदी जी के हाथों में दे देता। जिसे देख सब के पसीने छूट जाते, उक्त छड़ी का नामकरण भी हुआ था। दीदीजी ही बताई थी – दुखहरण सिंह। दुखहरण सिंह को देखकर ही कई के पैंट से पेशाब निकल जाते, बेचारे दुखहरण सिंह थे ही ऐसे। अगर दुखहरण सिंह कभी नही दिखाई पड़े तो लो भाई स्लेट का कोना ही सहीं, फिर भी एक प्रकार का आनन्द, पढ़ेंगे तो दीदीजी से और रहेंगे तो मित्रों के साथ।

गजब-गजब के दोहे, याद कराये जाते और हम सब भी मस्ती में गाते और ये गीत कैसे सहजता के साथ याद हो जाते, समझ में ही नहीं आता…

देखो भालूवाला आया, काला-काला भालू लाया

डूग-डूग-डूग डूगडूगिया बोली, जमा हुई लड़कों की टोली

भालू नाच दिखायेगा, पैसे लेकर जायेगा।

और जब आम की बात हुई तो लीजिये शुरु…

आओ लड़कों लाया आम

हरे लाल औ पीले आम

सभी फलों का राजा आम

मीठा-मीठा ताजा आम

नहीं अधिक पैसे का काम

ले लो, ले लो, खालो आम

इधर इन सबके पहले प्रार्थना कराई जाती – सभी एक स्वर में हाथ जोड़कर भक्ति भाव से गाते….

हे प्रभु आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये

लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बने

ब्रह्मचारी धर्मरक्षक, वीरव्रतधारी बने

और फिर शुरु होता पढ़ाई, पढ़ाई शुरु होते ही टिफिन की याद सताने लगती, एक आंख सड़क पर लगे नल पर रहता, उससे पानी निकलना जैसे ही शुरु होता, हमलोग समझ लेते, अब टिफिन होने ही वाला है, और जैसे ही टिफिन हुआ, लीजिये बच्चों का दल धूम-धडाम करके घर की ओर निकल पड़ा। जिनके घर नजदीक थे, वो तो चले जाते, बाकी अपने घर से लाये टिफिन का भोग लगाते। और जब छुट्टी की बारी आती तो उसके पहले पहाड़ा को रटाया जाता। इस रटंत पहाड़े की खासियत थी कि भले ही किसी बच्चे को 2 से 40 तक का पहाड़ा नही आये, पर सभी को 10 और 15 का पहाड़ा जरुर याद रहता, लेकिन सबसे मस्ती आती, 15 के पहाड़े में। जब एक स्वर में मस्ती के साथ जोड़ लगाकर सभी बोलते – पन्द्रह का पन्द्रह, पन्द्रह दूनी तीस, तियो पैतालिस, चौके साठ, दाम पचहत्तर, छक्का नब्बे, सातो बिछोत्तर, आठो बीसा, नौ पैतीसा, पन्द्रह दहा डेढ़ सौ और इसी तरह कब दूसरी कक्षा में पहुंच गये पता ही नही लगा …और दूसरी कक्षा में ही पहली कविता से हमें पाला पड़ा जो दोस्ती को समर्पित थी, मित्र को समर्पित थी, बोल थे ..

करो मित्र की मदद हमेशा

तन से मन से खुश होकर

उसका जो भी काम पड़े

तो करो उसे पूरा हंसकर

खाना हो जो पास तुम्हारे

उसे खिलाकर तुम खाओ

फल मेवा हो या कि मिठाई

आपस में मिलकर खाओ

बोझ उठाता हो जब साथी

तुम भी उसकी मदद करो

पड़ जाए बीमार अगर वह

सेवा उसकी सदा करो

साथी भी हर एक काम में

हंसकर हाथ बटायेगा

काम पडेगा कभी तुम्हे

तो पूरा कर दिखलायेगा

जब मैंने यह कविता पहली बार पढ़ा था, याद किया था, तब ये फ्रेंडशिप डे क्या होता है? हमें नही मालूम था और न ही हमारे माता-पिता या मुहल्ले या राज्य या देशवासियों को, और अगर ऐसा होता तो कम से कम अखबारों और रेडियो से तो इसके बारे में हम जरुर ही सुने होते या फिल्मों के माध्यम से हम तक जरुर पहुंचा होता, लेकिन हम इतना जरुर जानते है कि कोई भी डे तभी मनाया जाता है, जिस पर संकट के बादल उमड़-घुमड़ कर मंडराने लगते है, जैसे आज तक अंग्रेजी दिवस कब मनाया जाता है? हमें अब तक पता नहीं, पर हिन्दी दिवस कब मनाया जाता है, हमें मालूम हैं? हिन्दी दिवस का मनाया जाना ही इस बात का संकेत है कि हिन्दी की यहां क्या दुर्दशा है?

जब हम छठी कक्षा में गये, तब हिन्दी की कक्षा में सीता सिन्हा पढ़ाने आती, वो हम बच्चों से इतना प्यार करती कि हम आज तक उनके प्यार को, उनके ऐहसानों को नहीं भूले हैं, वो बड़ी ही प्यार से बच्चों को महान कवियों के दोहों से परिचय कराती। उनके मुख से ही हमने सुना था – अब्दुर्रहीम खानखाना के दोहे, जो मित्रता से जुड़ी थी। क्या बात कही थी – रहीम ने।

जे गरीब पर हित करे

ते रहीम बड़ लोग।

कहा सुदामा बापूरो

कृष्ण मिताई जोग।।

रहीम कहते है, गरीब पर जो हित करें, वे बड़े लोग है, अरे दोस्ती तो कृष्ण और सुदामा की थी, बाकी की दोस्ती, उनदोनों के आगे कहां। सचमुच जो कृष्ण ने सुदामा के लिये किया?  वो आज तक किसी ने नहीं किया। केवल द्वारपाल के मुख से सिर्फ सु शब्द ही तो सुना था और वे दौड़ पड़े थे महल के सिंहद्वार तक और अपने प्रिय मित्र को गले लगा लिया। उस वक्त सुदामा की ये दुर्दशा थी कि कोई उन्हें बैठने तक को नहीं कह सकता था और उन्होंने वैसे जगह लाकर सुदामा को बिठाया, बड़े पारात लाकर अपने आंसूओं से पांव धोए, जो आज के युग मे कोई मित्र कर ही नही सकता. मैं भी कहता हूं कि अगर मित्र हो तो कृष्ण के जैसा। मित्रता हो तो सुदामा और श्रीकृष्ण के जैसी। ये आज की फ्रेडशिप डे जो आर्थिक ढांचे पर खड़ी रहती हैं, उसे मित्रता कहना, मित्रता शब्द का अपमान है।