अपनी बात

पत्रकार या नमूना, ईटीवी भारत के प्रवीण बागी ने एक हत्या को प्राकृतिक न्याय बता दिया

जब नमूना ‘पत्रकार’ बनता है, तो ऐसे ही विचार आते हैं। कल उत्तर बिहार में एक बहुत बड़ी घटना घट गई। सीतामढ़ी कोर्ट में एक कुख्यात अपराधी संतोष झा की, कुछ अपराधियों ने मिलकर हत्या कर दी। इस हत्या का समाचार सुनते ही समाज के कई वर्गों ने राहत की सांस ली। बताया जाता है कि संतोष झा उत्तर बिहार में आतंक का पर्याय बन चुका था, और दो इंजीनियर्स की हत्या के आरोप में फिलहाल जेल में बंद था, शिवहर का रहनेवाला अपराधी संतोष झा की हत्या की खबर, आज बिहार के सभी अखबारों की सुर्खियां हैं।

ऐसे तो अपराधी संतोष झा की हत्या की खबर से सभी प्रसन्न हैं, होना भी चाहिए, जिस प्रकार का वह अपराधी था, उसके नहीं रहने से सभी का प्रसन्न होना स्वाभाविक हैं, पर इसकी सर्वाधिक प्रसन्नता बिहार के पत्रकारिता जगत में हैं, कुछ पत्रकारों ने तो अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने में सारी मर्यादाएं लांघ दी हैं, वह मर्यादा नैतिकता की हो या संवैधानिक। अगर इसी को लेकर, कोई वरीय पुलिस पदाधिकारी ऐसे-ऐसे कथित संपादकों/न्यूज कार्डिनेटरों/पत्रकारों को कानून के लपेटे में ले लें तो ऐसे लोग दांत निपोड़ते नजर आयेंगे, वह भी इसलिए कि आप किसी की भी हत्या को चाहे वह अपराधी हो या सामान्य व्यक्ति, आप कानून को अपने हाथ में लेने की मंशा को सहीं कैसे ठहरा सकते हैं? और इसे प्रकृति का न्याय कैसे बता सकते हैं?

पटना में अभी नये- नये ‘ईटीवी भारत’ ज्वाइन किये, और कुछ दिन पहले ‘कशिश’ को अलविदा कर चुके एक पत्रकार प्रवीण बागी ने कल अपने फेसबुक सोशल साइट पर लिखा है कि ‘कहते हैं जब अति हो जाती है तो प्रकृति खुद न्याय करती है। सीतामढ़ी कोर्ट में कुख्यात अपराधी संतोष झा की हत्या प्रकृति का न्याय ही माना जायेगा।’

प्रवीण बागी के इस कथित ‘सोच’ पर कई पत्रकारों/ बुद्धिजीवियों ने उनके ही साइट पर कमेंट्स के माध्यम से तीखी आलोचना की हैं। जरा देखिये, तीखी आलोचना करनेवालों ने प्रवीण बागी के इस ‘सोच’ की कैसे बैंड बजाई और उसके बाद भी जनाब गलथेथरई करने से बाज नहीं आ रहे।

विजय कुमार ने लिखा है कि प्रकृति न्याय क्या होता है? हादसा भी तो नहीं हुआ है? क्या वह वज्रपात से मर गया या धरती फटने से उसमें समा गया। सूबे में अपराधियों का तांडव जारी है, पुलिस का इकबाल कम हो गया है। जंगल राज में हमलोग मर रहे हैं।

रेणु त्रिवेदी मिश्रा ने लिखा है कि, नहीं, माफी सहित कहूंगी ये प्रशासनिक विफलता है,न्यायपालिका भी सुरक्षित नहीं, तो लोकतंत्र भी सुरक्षित नहीं बिहार में।

प्रशान्त मिश्र ने लिखा कि नेताओं से बड़ा अपराधी कौन हैं, जो इन अपराधियों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं, उन पर कब नजरें इनायत करेंगी ये प्रकृति।

उपेन्द्र कुमार ने लिखा, क्या सर। यह प्रकृति का न्याय हैं या रियल जंगलराज है?

वरिष्ठ समाजसेवी मुकुटधारी अग्रवाल ने लिखा कि आज कुख्यात अपराधी कोर्ट परिसर में मारा गया, कल कोई और मारा जायेगा, जब कोर्ट परिसर जहां न्याय की उम्मीद से लोग आते हैं, सुरक्षित न रहें तो इसे जंगलराज नहीं तो और क्या कहेंगे? विधि व्यवस्था, ध्वस्त होती जा रही हैं। शासनदंड का डर बिल्कुल नहीं रहा।

इन्द्रजीत सिंह ने लिखा, प्रकृति नहीं ये तो नियति हैं।

वरिष्ठ पत्रकार मनोज सिंह ने लिखा, ये प्राकृतिक न्याय नहीं, कोर्ट परिसर में हुई हत्या है, जो कानून-व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर रही है। संतोष झा अपराधी था। उस पर मुकदमें चल रहा था और उसे कोर्ट में पेशी के लिए लाया गया था, जहां अन्य अपराधियों ने उसकी हत्या कर दी। पत्रकारिता के मानदंडों के मुताबिक इस हत्या को जस्टिफाइ करना निहायत ही अनुचित है।

संतोष राज पांडेय ने लिखा यह प्रकृति का न्याय नहीं है, बिहार में सिस्टम फेल हैं, उसी का यह हश्र है। न्यायालय में भी सुरक्षा फेल है। इससे बड़ी दुखद बात क्या होगी। इस राज्य के लिए।

रोशन कुमार मैथिली ने लिखा कि तब तो संविधान को फाड़कर फेंक दीजिये सर। प्रकृति को कहिये कि और स्वतंत्र होकर काम करें। इसी कड़ी में लालू सहित अन्य भ्रष्ट नेताओं को भी टारगेट किया जाये। हे प्रकृति पीएम मोदी, राहुल गांधी, नीतीश कुमार पर कब अपना कृपा बरसाओगे? वैसे आपके व्यक्तित्व के अनुसार यह पोस्ट सहीं नहीं है, अपराधी को सजा देने का अधिकार कानून को है ना कि अपराधी को।

प्रदीप सिन्हा ने लिखा, लगे हाथों हत्यारे को भगवान बना दीजिये, कमाल है बजाए सिस्टम विफलता बताने के आप इसे प्राकृतिक न्याय बता रहे हैं।

गौरव अरण्य लिखते हैं, माफी चाहूंगा सर, यह प्रकृति का न्याय नहीं है। अंधा कानून है। इसको प्रकृति का न्याय बोल हत्यारे को क्लीन चीट दे रहे हैं।

लाल मोहर चौधरी ने लिखा है कि हत्या अपराधी का हो या आम आदमी का, वो अपराध ही कहलायेगा, इसे प्रकृति का न्याय कभी भी नहीं कहा जा सकता। हां, कानून व्यवस्था में गिरावट का सटीक उदाहरण जरुर कहा जा सकता है।

शेषनाथ प्रसाद ने लिखा है कि यह तो वैसे ही राय हो गई कि जैसे गांधी ने बिहार में भूकम्प से आई आपदा को प्रकृति का प्रकोप कहा था। अपनी राय को प्रकृति पर थोपना गलत है।

कुलदीप भारद्वाज ने लिखा है कि ये प्रकृति का न्याय तो कदापि नहीं हैं, ये एक सिस्टम का फेलियर और प्रायोजित हत्या है। आप जैसा सम्मानीय व्यक्तित्व और वरिष्ठ पत्रकार फेल सिस्टम को प्रकृति का न्याय का लेप लगायेगा तो फिर…खैर।

बिहार पुलिस सबआर्डिनेट सर्विस कमीशन के अध्यक्ष सुनीत कुमार ने लिखा है कि This is a heinous crime and cannot be justified by any means by saying that is justice given by nature. This will give rise to a chain of events creating law and order problem.