अपनी बात

तो क्या भारत में रहनेवाले लोग बहुत तेजी से कृतघ्न होते जा रहे हैं?

19 नवम्बर। इसी दिन भारत में दो महान नारियों का जन्म हुआ था। पहली महान वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और दूसरी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी। एक ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किये तो दूसरी ने पाकिस्तान को उसकी औकात बताते हुए उसके दो टुकड़े करते हुए एक नये देश बांगलादेश का जन्म कराया। यहीं नहीं भारत को हर क्षेत्र में मजबूत बनाया और अंत में दोनों ने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, पर आश्चर्य इस बात की कि न तो केन्द्र सरकार ने और न ही राज्य सरकार ने और न ही यहां की सामाजिक संस्थाओं और स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं को ये याद रहा कि हमें उनके जन्मदिन के अवसर पर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए, हम उन्हें अपना श्रद्धा सुमन अर्पित करें।

और अब बात उस समय की है, जब मैं ईटीवी धनबाद में कार्यरत था। डीसी आवास से कुछ कदमों की दूरी पर ही बेकार बांध के आस-पास चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा है। मैंने देखा कि चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा अपने जन्मदिन के अवसर पर एक फूल के लिए तरस गई, क्योंकि किसी को पता ही नहीं था, कि उनका जन्मदिन कब है। उस वक्त धनबाद के डीसी अजय कुमार सिंह हुआ करते थे। जब साप्ताहिक प्रेस कांफ्रेस के दौरान, हमनें ये मुद्दा उठाया तब उनका कहना था कि ऐसा होना नहीं चाहिए था, हमें ऐसे मौकों पर उन्हें याद करना चाहिए था।

ऐसा नहीं कि हमारे देश के नेता या पार्टियां, सामाजिक संस्थाएं अथवा स्कूल कॉलेज के छात्र-छात्राएं अपने नेताओं को याद नहीं करते, खूब करते है, पर इसलिए नहीं कि उनका जन्मदिन है या पुण्यतिथि है, या उन्हें याद करके, उनकी जीवन से सीख लेनी है, बल्कि इसलिए कि इसका वे कितना राजनीतिक अथवा सामाजिक लाभ उठा सकते हैं, अपना चेहरा चमका सकते हैं।

आजकल सरदार पटेल का जन्मदिन खुब मनाया जाता है, क्योंकि इससे पिछड़ों को एक करने में काफी मदद मिलती है तथा वोट बैंक भी मजबूत होता है। इसी तरह बाबा साहेब अम्बेडकर का जन्मदिन और उनकी पुण्यतिथि खुब मनाया जाता है, क्योंकि इससे दलितों को एकीकृत करने तथा उनके वोट बैंक को मजबूत करने में खुब मदद मिलता है। एक समय था जब कांग्रेस का शासन था, तो पं. जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी आदि नेताओं को खूब याद किया जाता था, पर अब चूंकि भाजपा का शासन है, इसलिए इनको याद करने में केन्द्र सरकार को दिक्कते आती है, इसलिए अब लोग धीरे-धीरे इन्हें भूलने लगे है, अब पं. दीन दयाल उपाध्याय और डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद करने का जमाना है, यानी जिस पार्टी का शासन, उनके नेताओं का बोलबाला और बाकी गये धूल फांकने।

भगत सिंह, चंद्रशेखर, राजगुरु, सुखदेव, बटुकेश्वर, खुदी राम बोस, सुभाष, तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले आदि को कौन पूछता है, या कौन जानना चाहता है, या कौन उनके पथों पर चलने का संकल्प लेना चाहता है, क्योंकि ये तो वो लोग है, जिनके नाम पर न तो कोई वोट देगा और न ही इनके नाम पर कोई लोग जुटेंगे, जबकि भारत में ही एक समय किसी ने कहा है कि

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे,

हर बरस मेले,

वतन पर मरनेवालों का,

बाकी यहीं निशां होगा।

कभी माखन लाल चतुर्वेदी ने कहा था कि एक पुष्प कि अभिलाषा है

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीष चढ़ाने जिस पथ जाये वीर अनेक

अब भारत के लोग ही बताये कि पुष्प की अभिलाषा तो है कि वह उन महान वीरों के आगे चादर की तरह फैल जाये, जिस पथ से वीर पुरुष देश के लिए स्वयं को बलिदान करने के लिए निकल पड़ते हैं। ऐसे कितने भारतीय है, जो इस पुष्प की तरह इच्छा रखते है। स्वतंत्रता के आंदोलन के बाद मिली स्वतंत्रता का सुख भोग कर रही भारत की जनता, कितनी बार, कितने शहीदों के चिताओं पर मेले लगाई और उन्हें याद किया।

मुझे तो लगता है कि वोट की राजनीति अगर खत्म हो जाये तो लोग सरदार पटेल और अंबेडकर तक को भूल जाये, पर क्या किया जाय, वोट की राजनीति है, तो पटेल और अम्बेडकर याद आयेंगे ही, बाकी देशभक्तों, साहित्यकारों, कवियों, जवानों से वोट तो मिलते नहीं, इसलिए इन्हें याद करने की क्या जरुरत?

जिस देश में इस सोच की पीढ़ी का जन्म हो चुका हो, वह देश क्या खाक आगे बढ़ेगा? वो तो गिनती के सांस ले रहा होगा, क्योंकि कृतघ्नों के देश में वीर नहीं पैदा होते, सिर्फ और सिर्फ लालची और मक्कार ही पैदा होते हैं।