हर बात में ‘अमित खरे’ को हीरो बनाने की परम्परा जितनी जल्दी हो बंद होनी चाहिए

आज एक बार फिर रांची के कुछ अखबारों ने अपनी आधुनिक पत्रकारीय ठकुरसोहाती परम्परा के अनुरुप राज्य की जनता के समक्ष समाचार प्रस्तुत कर दिये। अखबारों का कहना है कि देश में जो नई शिक्षा नीति लागू होने जा रही है, उसमें अमित खरे की बहुत बड़ी भूमिका है, अर्थात् जैसे लगता है कि देश में नई शिक्षा नीति को लागू करने में सिर्फ और सिर्फ इनकी ही भूमिका है, बाकी लोग इनके सामने तुच्छ थे, या जो पूर्व में उच्च शिक्षा सचिव रहे और उन्होंने जो इसे आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया, उनकी कोई भूमिका ही नहीं थी।

सवाल उठता है कि अमित खरे, उच्च शिक्षा सचिव कब बने और क्या ये सारा श्रेय उनको ही जाना चाहिए। एक अखबार खुद लिखता है कि पिछले साल अक्टूबर में स्कूली शिक्षा विभाग और दिसम्बर में उच्च शिक्षा विभाग का इन्हें जिम्मा दिया गया था, तो फिर क्या ये नई शिक्षा नीति मात्र छह महीने में इन्होंने बनाकर तैयार कर दी।

सच्चाई यह है कि जिस दिन नरेन्द्र मोदी सरकार 2014 में सत्ता में आई, उसी समय से नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए चर्चाएं शुरु हो गई थी, और लोगों ने इस पर काम करना शुरु कर दिया था, जिसमें देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों की प्रमुख भूमिका रही। हां आज जो लागू करने की हरी झंडी दिखाई गई, इस पर अमित खरे का योगदान सिर्फ इतना ही है कि वे इस समय उच्च शिक्षा विभाग के सचिव है, इससे ज्यादा कुछ नहीं।

हां, अगर आप विभागीय सचिव है तो काम कुछ न कुछ करेंगे ही, आपको करना भी चाहिए, पर नई शिक्षा नीति बनाने का पूरा श्रेय लेने का अमित खरे को अधिकार ही नहीं और न कोई अखबार उन्हें दे सकता है, एक भाजपा नेता नाम-दीपक प्रकाश, जो वर्तमान में प्रदेश अध्यक्ष है, नये-नये राज्यसभा सांसद बने हैं, उसने अपने प्रेस कांफ्रेस में लार्ड मैकाले को थामस मैकाले बताते हुए, पीएम मोदी को इसके लिए भूरि-भूरि प्रशंसा कर दी और जातीय खुशियों को मन में न छुपाकर रखते हुए अमित खरे का भी इसके लिए गर्व से नाम ले लिया। क्या करें बेचारा, हमारे देश में जातीय प्रेम और उसका उन्माद जग-जाहिर है।

यानी ये वहीं बात हुई कि असली काम किया चारा घोटाले में तत्कालीन वित्त सचिव वी एस दूबे ने, जिन्होंने सारे डीसी और ट्रेजरी को पत्र लिखा कि पशुपालन विभाग में हो रही गड़बड़ियों की तत्परता से जांच करें और श्रेय दे दिया अखबारों ने अमित खरे को। जो उस वक्त चाईबासा में डीसी थे, उन्होंने पशुपालन विभाग की जांच की और गड़बड़ियां पाई, जबकि लोगों को मालूम होना चाहिए कि सबसे पहले रांची में पशुपालन विभाग की धमक पड़ी।

अमित खरे तो बहुत बाद में चाईबासा में अपनी भूमिका तय की, वह भी तब जब बिहार के तत्कालीन वित्त सचिव वीएस दूबे ने दबाव बनाया। इसके बाद लालू यादव जेल चले गये और इसी खुशी में कुछ अखबारों के पत्रकारों ने अमित खरे को नायक बनाकर पेश कर दिया कि अमित खरे चारा घोटाले में लालू यादव को जेल भेजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा दी, जबकि सच्चाई यह है कि इस चारा घोटाले के असली हीरो वी एस दूबे है/थे और रहेंगे। जिन्होंने जैसे ही सरयू राय द्वारा बार-बार इस विभाग में हो रही गड़बड़ियों का ध्यान आकृष्ट कराया गया। बिहार विधानसभा में जैसे ही सीएजी की रिपोर्ट पेश हुई, जिसमें गड़बड़ियां उजागर हुई। उन्होंने एक्शन लिया, नतीजा सामने है।

राजनीतिक पंडित तो अमित खरे से सीधे सवाल पूछते है कि अमित खरे खुद बताये कि इनके कार्यकाल में कितने सौ करोड़ की अवैध निकासी हुई? अमित खरे क्या बतायेंगे कि ये इसे रोक पाने में क्यों विफल रहे? अमित खरे, झारखण्ड बनने के बाद कई विभागों में यहां शीर्षस्थ पदों पर रहे हैं, पर सच्चाई यह है कि उनके रहते किसी विभाग ने कोई खास परचम नहीं लहराया। झारखण्ड में इनके समय में पीएम मोदी की मुद्रा योजना का क्या हाल हुआ है, सभी जानते है।

मुद्रा योजना की गड़बड़ियां इसी से पता चलता है कि एक गरीब व्यक्ति ने एक थ्रीव्हीलर के लिए लोन लिया, लोन में उसे चीन निर्मित गाड़ी मिली और वो गाड़ी देखते ही देखते कुछ दिनों में ध्वस्त हो गई। उस वक्त आइपीआरडी में सीएम रघुवर दास जनसंवाद केन्द्र चलाया करते थे। वह व्यक्ति इस मुद्दे को वहां ले गया, पर उसकी व्यथा की सभी ने मजाक उड़ा दी।

हालांकि अपनी पीठ थपथपाने के लिए एक छोटी किताब मुद्रा योजना पर अमित खरे ने खुद लिखवाई और जमकर अपनी पीठ थपथवाई कि उन्होंने गजब कर डाला है, पर आज भी मुद्रा योजना की सही-सही जांच करवा ली जाये, तो पता लग जायेगा कि इनके कार्यकाल में बैंकों ने किस प्रकार झारखण्ड की जनता के साथ गलत किया और मुद्रा योजना जिससे जनता को लाभ मिलना था, वो लाभ न मिलकर चूं-चूं का मुरब्बा बन गया।