अपनी बात

भगवान से बने डाक्टर साहब, डाक्टर साहब से बने डाक्टर और अब  डाक्टर से बन गये डा. यानी डाकू

दुनिया में कोई ऐसा पेशा नहीं, जिसमें शत प्रतिशत लोग ईमानदार हो, हर पेशे में अच्छे और बूरे दोनों लोग हैं, और इन्हीं से उस पेशे की पहचान हो जाती है, कई साल पहले जब डाक्टर का लोग नाम नहीं जाते थे, तो हमारे देश में डाक्टरों का स्थान वैद्यों ने ले रखा था, लोग अपनी ईलाज के लिए इनके पास जाते, और स्वस्थ हो जाते। विश्व की सर्वाधिक पुरानी चिकित्सा में आयुर्वेद का जन्मदाता भारत ही है।

भारत में एक से एक चिकित्सक और वैद्य हुए, जिनके नाम भारतीय चिकित्सा शास्त्रों में आज भी विद्यमान है, उन्हीं में से एक चरक संहिता के रचयिता चरक, बाल रोग विशेषज्ञ जीवक कौमारभच्च, महान शल्यचिकित्सक सुश्रुत का भी नाम आता है, जिन्हें आयुर्वेद में रुचि हैं अथवा आर्युवेद जिनका विषय रहा हैं, वे इन्हें जानते हैं तथा इनका नाम आदर से लेते हैं।

पूर्व में जितने भी वैद्य हुए, उनका नाम आज भी आदर से लिया जाता हैं, और लिया जाता रहेगा, क्योंकि इनका ध्येय वाक्य था मानव मात्र की सेवा करना और उन्होंने इस कार्य के लिए स्वयं को समाज की सेवा में लगा दिया, पर आज समय बदल चुका है, इन वैद्यों का स्थान आधुनिक डाक्टरों ने ले लिया है, स्वास्थ्य सेवा अब समाज सेवा न होकर पूरी तरह धन कमाने का उत्तम साधन हो गया हैं।

अब आप कही जायेंगे तो आपको गिने-चुने ही डाक्टर मिलेंगे, जिन्हें आप डाक्टर कह सकते हैं, वरना ज्यादातर लोगों ने डाक्टर शब्द को इतना छोटा कर दिया है कि उनके नाम के आगे डा. शब्द, आम जनता को डाकू नजर आने लगा है, इसलिए आज किसी को भी कोई रोग सताता है, तो वह रोग से तो बाद में पर डाक्टर यानी डाकू के यहां जाना पड़ेगा, ये सोचकर ही कांप उठता है।

अब हम बात करते हैं, उस समय की, जब मैं बारह-तेरह साल का था, मां बता रही थी कि जब मैं दो साल का था, तो मुझे बहुत जोर से बुखार लगा, वो मुझे दिखाने को लेकर डाक्टर के यहां चल दी, यह वह समय था जब लोग डाक्टर को डाक्टर साहेब बड़ी श्रद्धा से कहकर बुलाया करते थे, जिनके घर में डाक्टर साहेब चले गये, वहां डाक्टर साहेब की खूब आवभगत होती थी।

उनका आदेश सर चढ़कर बोलता था, गांव-मुहल्ले के लोग डाक्टर साहेब को दिखाकर अपने छोटे बच्चों को बोला करते, देखो डाक्टर साहेब की तरह बनना, और लोगो की सेवा करना, फिर घर के लोग डाक्टर साहेब के छोटी सी चिकित्सा पेटी को हाथ में लेते और उन्हें रिक्शे पर बिठाकर, बड़ी आदर के साथ प्रणाम कर, उन्हें विदा करते।

मां बताई थी कि जब वह मुझे एक डाक्टर को दिखाने के लिए ले जा रही थी, तब रास्ते में ही एक दलदल में वह फंस गई थी, एक तो मेरा तपता शरीर और मुझे बचाने के लिए कवायद, और दूसरी ओर दलदल में उसका धीरे-धीरे फंसता शरीर हम दोनों को जान लेने पर तुला था, अचानक उधर से कुछ लोग गुजरे, उनका ध्यान हम दोनों पर गया और फिर हम दोनों डाक्टर के पास पहुंचे।

डा. डी राम ने जब हम दोनों का हालत देखा तो वे अवाक रह गये, उन्होंने दवाएं दी और मैं जाकर ठीक हो गया। हमारे मुहल्ले में जिसका भी तबियत  खराब होता, वो सीधे डा.डी राम के पास पहुंच जाता। वे दानापुर अनुमंडलीय अस्पताल में चिकित्सा पदाधिकारी थे। हमें याद है कि ओपीडी में लोग दस पैसे लेकर जाते और एक छोटी सी पर्ची में डाक्टर मरीजों की जांच कर दवाएं लिख दिया करते, और ये सारी जीवन रक्षक दवाएं मुफ्त में ही अस्पताल से प्रचुर मात्रा में मिल जाती और लोग ठीक हो जाते।

सरकारी अस्पताल भी इतना सुंदर और साफ रहता कि वहां पहुंचते के साथ ही लोग ठीक हो जाने की बात करने लगते, डाक्टरों और सेविकाओं तथा वहां कार्यरत अन्य कर्मचारियों का स्वभाव भी प्रशंसनीय रहता, जो अब कहीं दिखाई नहीं देता। शायद लगता है कि अब मानवीय मूल्य को लोगों ने श्मशान घाट पर जाकर जलाकर खाक कर दिया है।

यह वह समय था, जब भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री के रुप में विद्यमान थी और बिहार में कांग्रेस का शासनकाल था, 1974 का छात्र आंदोलन अपने चरम पर था, 1977 की आहट सुनाई दे रही थी, जनता पार्टी का लहर चल रहा था और देखते ही देखते पूरे बिहार से कांग्रेस साफ और फिर 1980 में कांग्रेस का पुनःआगमन का संकेत हो चला था, लेकिन उसके बावजूद भी स्वास्थ्य सेवा में कही गिरावट देखने को नहीं मिला।

और न ही कभी अखबारों में यह सुनने को मिला कि किसी अस्पताल में किसी मरीज के परिवार ने किसी डाक्टर के साथ अपमानजनक व्यवहार किया या मारपीट की है, अब तो मारपीट और अपमानजनक व्यवहार तो सामान्य सी बात हो गई है, और ये मारपीट तथा अपमान जनक व्यवहार तो उन जगहों पर भी हो रही हैं, जो खुद को पैसे लेकर बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने की बात कहते है।

हाल ही में पटना के एक स्थानीय अस्पताल में बिहार के ही एक मंत्री इलाजरत थे, और इलाज के क्रम में वहां ऐसा ईलाज हो गया कि मंत्री के पीठ ही जला दिये गये, बवाल हुआ तो जाकर मामला शांत हुआ। यहीं नहीं पटना के पीएमसीएच में डा. गौरी शंकर सिंह का यूनिट हुआ करता था, ये वह समय था, जब पटना से प्रकाशित हिन्दुस्तान अखबार में उनकी साप्ताहिक आर्टिकल खूब छपा करती थी, जब मेरे पिताजी को ब्रेन हेमरेज हुआ और उनके ही यूनिट में जब मेरे पिताजी का दाखिला हुआ तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि चलो अब इलाज बेहतर होगा, पर मुझे बाद में जो निराशा हाथ लगी, उस निराशा को मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता, ये घटना जून 1997 की है।

ये वहीं समय था, जब डाक्टरों में धन-लोलूपता बढ़ने लगी थी। 29 मई 1997 को मेरे पिताजी की तबियत अचानक खराब हो गई, हमलोग सपरिवार उन्हें लेकर रात्रि के दस बजे दानापुर अस्पताल गये, वहां डाक्टरों ने पीएमसीएच के हृदय रोग विभाग में रेफर कर दिया, हृदय रोग विभाग के लोगों ने जांच की और उन्होंने इमरजेंसी वार्ड में भेज दिया, जैसे ही इमरजेंसी वार्ड हमलोग पहुंचे, वहां चार से पांच की संख्या में जूनियर डाक्टर बैठे थे, वहां कोई सीनियर डाक्टर नहीं था।

ये जूनियर डाक्टर, डाक्टर कम, बदमाश ज्यादा दिखाई पड़ रहे थे, इन्हें न तो बोलने की तमीज मालूम थी और न ही मरीज और मरीजों के परिवार के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, उसका बोध था, हम क्या करते, चुपचाप उनके रहमोकरम पर थे, जैसा उन्होंने कहा वैसे चिकित्सीय उपकरण लाये, दवाएं लाई और पिताजी का इलाज शुरु हुआ, इसी बीच वहां काम कर रहे छोटे कर्मचारियों ने मुझसे करीब 100 रुपये तान लिये, मैं क्या करता, मुझे लगा कि पैसे नहीं दूंगा तो ये काम नहीं करेंगे, इसलिए देना पड़ा।

पर इसी बीच 7 जून को मेरे पिताजी ने डा. गौरी शंकर सिंह की यूनिट में दोपहर में अंतिम सांस ली। पटना में बहुत सारे ऐसे लोग या पत्रकार है, जो जातीयता के आधार पर या अन्य कारणों से डा. गौरी शंकर सिंह को बहुत अच्छा मानते हैं, पर जो हमने झेला है, वो तो सिर्फ हमने झेला है, उसका दुख और कौन बया कर सकता है।

ऐसे अपने जीवन में एक से एक डाक्टरों से हमें पाला पड़ा है, जिनमें बहुत सारे अच्छे भी मिले या यह भी हो सकता है कि मैं पत्रकार हूं तो इसलिए उन्होंने मुझ से बेहतर संबंध बनाना ही ज्यादा जरुरी समझा, पर रांची के दो डाक्टरों को तो मैं आज भी कहूंगा कि उनका जवाब नहीं, क्योंकि उनके पास मैंने कभी जाकर यह नहीं कहा कि मैं पत्रकार हूं, बस एक सामान्य व्यक्ति की तरह गया, इलाज करवाई और उनके व्यवहार तथा चिकित्सकीय गुण ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उनमें से एक हैं – डा. पी आर प्रसाद ( जो अब जीवित नहीं हैं।) और दूसरे पद्मश्री डा. एसपी मुखर्जी।

बात उन दिनों की है, जब में ईटीवी रांची में था, एक बार डाक्टर्स डे के दिन ही, जब मैं उनके लालपुर स्थित क्लिनिक पहुंचा और एक न्यूज बनानी चाही तो वहां इलाज के लिए आये बहुत सारे गरीबों से हमने बातचीत की और सवाल पूछा कि आज तो डा. एसपी मुखर्जी रांची में हैं तो मात्र पांच रुपये में इलाज हो जा रहा हैं और किसी कारणवश  डाक्टर साहब रांची छोड़कर कहीं अन्यत्र शिफ्ट हो गये तो, तब क्या होगा? सभी इस सवाल पर ऐसी चुप्पी साध गये, जैसे लगता हो उन्हें काठ मार गया हो, पर उनका ये चुप्पी साध लेना, इस बात का प्रमाण था कि वे डा. एसपी मुखर्जी को कितना प्यार करते हैं और उन्हें किस श्रेणी में रखते हैं।

हाल ही में रांची में एक बहुत बड़े चिकित्सक का निधन हो गया, जनाब की फीस इतनी थी कि एक गरीब आदमी तो कभी उसके दरवाजे पर जा ही नहीं सकता था, यहीं नहीं उनका नंबर भी मिलना मुश्किल होता था, पर रांची के कुछ अखबारों के संपादकों के लिए वे किसी भगवान से कम नहीं थे, पर गरीबों के लिए उनके दिलों में कोई जगह नहीं थी और न ही गरीबों ने उन्हें अपने दिल में जगह रखा था, नहीं तो याद रखिये, जिस दिन उक्त डाक्टर का देहांत हुआ था, गरीबों के आंखों से आंसू जरुर छलकते और कुछ नहीं तो बेचारे पद्मश्री जरुर ही पा लेते, पर ये कैसे हो सकता है, पैसे भी लेंगे, प्यार भी पायेंगे और पद्मश्री भी ग्रहण करेंगे, संभव नहीं। हालांकि ये सम्मान दिलाने के लिए कई लोगों ने अपनी ओर से प्रयास किये, पर ऐसा संभव नहीं हो सका।

जब मैं ईटीवी में कार्यरत था, तो उसी दौरान मैंने धनबाद में कई डाक्टरों को देखा कि उन्होंने अपनी ओर से मरीजों की इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ रखा था, कई चिकित्सकों ने अपनी ओर से हर संभव मदद करने की कोशिश की और आज भी कर रहे हैं। उन्हीं में से डा. शिवानी झा, डा. नेहा झा, डा. लीना सिंह, डा. अनिल सिन्हा, डा. एन के सिंह, पटना के डा. राम नरेश सिन्हा, नेत्र रोग विशेषज्ञ, रांची के डा. अजय कुमार सिंह, डा. रोहित शर्मा एवं डा. राघवेन्द्र नारायण शर्मा का नाम लेना, मैं ज्यादा जरुरी समझता हूं।