अपनी बात

बिहार की भाषा, बिहार में ही सम्मान नहीं और CM रघुवर ने माथे बिठा लिया, विरोध शुरु

झारखण्ड सरकार ने अब झारखण्ड में बिहार में भारी संख्या में बोली जानेवाली भोजपुरी, मगही, मैथिली व अंगिका को दूसरी राजभाषा का दर्जा दे दिया है। ज्ञातव्य है कि भोजपुरी, मगही, मैथिली व अंगिका की जन्मस्थली बिहार ही हैं, और खुद बिहार सरकार ने ही इन चारों भाषाओं को वह स्थान नहीं दिया, जो स्थान कल झारखण्ड सरकार ने दे दिया। हमें लगता है कि बिहार दिवस की पूर्व संध्या पर झारखण्ड में रह रहे बड़ी संख्या में बिहारियों को, झारखण्ड सरकार की ओर से विशेष उपहार हैं, जिसका फायदा राज्य सरकार इन दिनों राज्य में चल रहे नगर निकाय चुनावों में उठाना चाहती हैं, क्योंकि रघुवर सरकार को अच्छी तरह मालूम है कि इस नगर निकाय चुनावों में उसकी पार्टी की शूर्पनखा की तरह नाक काटने को, यहां की जनता तैयार हैं, पर क्या सचमुच राज्य सरकार को इसका फायदा मिलेगा, भाजपा को मिलेगा, या जनता इस पार्टी का बुखार छुड़ायेगी।

क्या झारखण्ड का निर्माण इसीलिए हुआ था कि जो काम बिहार नहीं करे, वह काम झारखण्ड कर दें, या झारखण्ड का निर्माण इसलिए हुआ था कि झारखण्ड की अस्मिता, संस्कृति, सभ्यता, उसका परिवेश अक्षुण्ण रहे। हमें लगता है कि राज्य सरकार के इस निर्णय से बिहार के लोग, जो झारखण्ड में बड़ी संख्या में रह रहे हैं, उन्हें भले ही आनन्द की प्राप्ति हुई होगी, पर जो मूल रुप से झारखण्डी हैं, उन्हें आज सरकार के इस निर्णय से बहुत ही पीड़ा हुई होगी। हमें तो लगता है कि जिस प्रकार से आनन-फानन में इन भाषाओं को दूसरी राजभाषा घोषित किया गया, वह साफ बताता है कि इसमें शत प्रतिशत राजनीति हैं। इसका विरोध करने पर हो सकता है कि विपक्षियों को खामियाजा भुगतना पड़ें, इसलिए विपक्षी दल वोट के कारण इसका विरोध नहीं कर सकें, पर बहुत कम को पता है कि झारखण्ड के सुदूरवर्ती इलाकों में इस सरकार ने यह निर्णय कर, यहां के करोड़ों आदिवासियों-मूलवासियों को चिढ़ाते हुए, उनकी छाती पर मूंग दल दिया, ऐसे में इसका विरोध भले ही आज न दिखाई पड़ें, पर इसका विरोध आज नहीं तो कल अवश्य दीखेगा।

हमारा मत हैं, हर भाषा का सम्मान हो, पर किसी को चिढ़ाकर, किसी को नीचा दिखाकर, किसी को उसके सम्मान के साथ खेलकर, ऐसा करना अन्याय हैं। क्या झारखण्ड सरकार बता सकती है कि जिस प्रकार बंगाल सरकार ने संथाली भाषा को दूसरा राजभाषा का दर्जा दिया हैं, क्या बिहार सरकार ने एकीकृत बिहार में ही किसी आदिवासी भाषा को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया? अगर नहीं तो फिर कल कैबिनेट में इसकी जरुरत क्यों पड़ गई?

मैं देख रहा हूं कि कुछ लोग कल मुख्यमंत्री रघुवर दास और नगर विकास मंत्री सीपी सिंह को फूल-मालाओं से लाद दिये, मुख्यमंत्री और नगर विकास मंत्री भी खूब खुश थे, पर जो इस निर्णय से  दुखी है, उनकी आह को वरण करने की स्थिति में ये दोनों महाशय हैं, या उनकी आह को बर्दाश्त कर पायेंगे, क्योंकि गरीबों की आह तो अच्छे-अच्छों को बर्बाद कर देती हैं, हो सकता है कि भोजपुरी, अंगिका, मगही और मैथिली भाषी लोगों के पांव इस निर्णय से जमीन पर न हो, बहुत खुशियां मना रहे हो, पर हम सब से यहीं कहेंगे कि बड़ी सावधानी से खुशियां मनाइये, क्योंकि झारखण्ड का एक बहुत बड़ा वर्ग, इस निर्णय से स्वयं को ठगा महसुस कर रहा हैं, उसे लग रहा हैं, कि उसके साथ चीटिंग हुई है, वह कह रहा है कि इससे अच्छा होता कि एकीकृत बिहार ही रहता, क्योंकि कम से कम ऐसी सरकार तो नहीं होती, जो उसकी छाती पर भाषा के नाम पर मूंग दल रही होती।

मैंने महसूस किया है कि कई लोगों से हमारी बातचीत हुई और कई लोगों के हमने चेहरे देखे, जो आनेवाले भयावह तूफान की संकेत दे रहे हैं, शायद इसकी आहट रघुवर सरकार को नहीं हैं, कुछ लोग तो ये भी कहने लगे कि मुख्यमंत्री जब छत्तीसगढ़ के मूल निवासी है तो उन्हें छतीसगढ़िया भाषा को भी दूसरी राजभाषा का दर्जा दे देना चाहिए, ये उनकी वेदना है, समझिये। समझ गये तो झारखण्ड का भला होगा, नहीं तो जो आप कर रहे हैं, उसका परिणाम जल्द सामने आयेगा?

हमें याद  हैं कि कभी विधानसभा में कांग्रेसी विधायक गीता उरांव ने भी इस मुद्दे पर सरकार का कड़ा विरोध किया था, पर आज गीता उरांव विधायक नहीं है, ऐसे में इस मुद्दे पर कौन सरकार से भिड़ेगा, सवाल यह है? क्योंकि यहां के ज्यादातर विधायक झारखण्ड के प्रति कितना प्रेम रखते हैं, वह तो कल के निर्णय से ही उजागर हो गया, फिर भी हम आशावादी है, एक दिन सूर्य उगेगा, झारखण्डी भाषा अपने परवान चढ़ेंगी और लोग इसे देखेंगे, पर ये देखने के लिए वर्तमान सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाना जरुरी हैं।