राज्य जीत लिया, पर समाज को जोड़ने में विफल रहे, तो अलगाववाद के नए केन्द्र जनजातीय क्षेत्र होंगे 

पूरे झारखण्ड ही नहीं, बल्कि पूरे जनजातीय समाज में एक पत्र धमाल मचा रहा हैं, संभवतः यह पत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े किसी सदस्य का हो सकता हैं, क्योंकि जो उसमें भाव छुपे हैं, ऐसे भाव सिर्फ और सिर्फ स्वयंसेवकों में ही देखने को मिलते हैं। यह पत्र भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता करिया मुंडा को लिखा गया हैं, और प्रेषक में “जिन्होंने सपने संजोये, हमसे बड़ा दल और दल से बड़ा राष्ट्र” लिखा है।

पत्र लिखनेवाला राज्य के वर्तमान भाजपाइयों एवं संघ के उच्चाधिकारियों से लगता है कि कुछ ज्यादा दुखी हैं, और उसे लगता है कि जिनके हाथों में वर्तमान नेतृत्व हैं, उनके हाथों से झारखण्ड निकलता चला जा रहा हैं, इसलिए वह अपनी वेदना पूर्व सांसद व पूर्व लोकसभा उपाध्यक्ष के आगे बयां किया है। पत्र में समस्या हैं, सवाल है, और जवाब भी। अगर निराशा हैं, तो आशा भी।

पर पत्र लेखक अपनी बातों को झारखण्ड के निवारणपुर (वर्तमान में संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक निर्वहणपुर कहते हैं) स्थित प्रांतीय संघ मुख्यालय के अधिकारियों या हरमू स्थित भाजपा मुख्यालय में रह रहे कथित भाजपाइयों को शेयर नहीं करता, शायद उसे पता है कि ये सभी अपनी आत्मा को बेच चुके हैं। आखिर क्या हैं पत्र में?

पत्र में करिया मुंडा को इंगित करता हुआ कहा गया है कि क्या आनेवाले भविष्य में आप जैसे सहज, सरल, सौम्य, प्रगल्भ, आदिवासी संस्कृति को नेतृत्व देगा? आनेवाले समय में जनजातीय क्षेत्रों में राष्ट्रवादी नेतृत्व क्या बिल्कुल सतही होगा, वहीं कान्ट्रैक्ट, टेंडर तक सीमित। सांस्कृतिक परिमाण पर कस कर चमकनेवाले कितने नए नेता तैयार हो रहे हैं? या फिर जो भी उपलब्ध नेतृत्व हैं, उन्हें हम कैसे संस्कृति के विशाल वट-वृक्ष की महत्ता बता पा रहे हैं?

पत्र में लिखा है कि जनजातीय समाज आज एक अनोखे दो राहे पर हैं। विदेशी सोच, विदेशी साहित्य और विदेशी संस्कृति के अहर्निंश प्रहार के बाद अब जनजातीय क्षेत्रों में राष्ट्र की मुख्यधारा से कटना या कटने का स्वांग करना सहज हो चला है। केन्द्र सरकार नीतिगत तौर पर इस पर अंकुश लगाने के सारे प्रयास कर रही है। फिर भी सिर्फ नीतियों से समाज कितना चलता है, यह आप जानते है। हम जमीनी विमर्श में कहां हैं? जनजातीय क्षेत्रों के विमर्श में राष्ट्र कहां है? राष्ट्र का चिन्तन कहां है? इस बदली परिस्थिति में भी हमें प्रयास करने चाहिए, क्या इस पर सक्षम लोग कोई मंथन कर रहे हैं?

पत्र में लेखक ने आगे लिखा है कि यदि हम राजनीतिक मीमांसा करते हैं तो भी जनजातीय क्षेत्र किसी खतरे कि घंटी बजा रहे हैं। झारखण्ड के परिप्रेक्ष्य में लोकसभा चुनाव 2019 की विजय के आयाम तो यहीं बता रहे हैं, जैसे राज्य की जनता ने राष्ट्रवाद, सांकेतिक राष्ट्रवाद, सीमा सुरक्षा, निर्णायक नेतृत्व, संवेदनशील शासन, व्यवस्थित संगठन, कुशल दृष्टिकोण प्रबंधन और समावेशी संघ कार्य के पक्ष में अभुतपूर्व मतदान किया है। साथ ही जनता ने छद्म धर्मनिरपेक्षता, परिवारवाद, कोरी जातिवादिता एवं ओछे अधिनायकवाद को सिरे से नकारा है।

पत्र लेखक ने उदाहरणस्वरुप बताया है कि झारखण्ड में 12 लोकसभा सीटों पर विजय प्राप्त हुई है।  जिनमें तीन अनुसूचित जनजाति की सीटें हैं, जिसमें विजय का अंतर अन्य सीटों की तुलना में काफी कम हैं। दो सीटे जिन पर हमें पराजय देखनी पड़ी, वह भी अनुसूचित जनजाति की सीटें हैं।

पत्र में इस बात को जोरदार ढंग से उठाया गया है कि एक ओर जहां मुख्यधारा के हिन्दू जनमानस ने जातिवाद के बंधन को लांघकर भाजपा नेतृत्व के प्रति अदम्य समर्थन दिखाया, वहीं दूसरी ओर जनजातीय लोकसभा क्षेत्रों में हमने कड़ा संघर्ष देखा है। जनजातीय क्षेत्रों में विशेष प्रकल्पों के बाद भी हम गैर मसीही आदिवासी समाज को अपने साथ रख पाने में कही-कही अक्षम दिखें। इस बिंदु पर गहन चिन्तन की आवश्यकता प्रतीत होती है।

पत्र लेखक ने कहा है कि खूंटी लोकसभा क्षेत्र जो झारखण्ड के मसीही धर्म नाद का केन्द्र बिन्दु है, वहां हमारे प्रत्याशी को मात्र 1445 मतो से विजय मिली। चाईबासा लोकसभा सीट पर हमारे निवर्तमान सांसद की करारी हार हुई। पत्थलगड़ी, भूमि सुधार के विफल प्रयास, मसीही संगठनों के दुष्प्रचार, सांस्कृतिक समरसता के सेतु के अभाव, मसीही समाज के संगठित मायावी प्रयासों के समक्ष इन जनजातीय सीटों पर हमारे प्रयास लहुलूहान रहे।

पत्र लेखक के कथनानुसार जनजातीय क्षेत्रों मे अलगाव की पृष्ठभूमि में चर्च, चर्च पोषित स्थापित सामाजिक शिक्षण संस्थान, विपक्षी दल, वामपंथी संगठन अब लगभग एक हो चुके हैं। पत्थलगड़ी विमर्श एवं प्रयोग द्वारा अलगाववाद की संवैधानिक कथानक का नया स्वरुप दिया जा रहा है। यानी प्रतीत होता है कि गैर ईसाई आदिवासी समाज, परिस्थिति और षडयंत्रवश राष्ट्रविरोधी समूहों के हाथों का खिलौना बन चुका हैं। हमने राज तो जीत लिया, परन्तु यदि समाज को जोड़ने में विफल रहे, तो आंतरिक अलगाववाद के नए केन्द्र अब जनजातीय क्षेत्र होंगे। पत्र लेखक ने करिया मुंडा से आग्रह किया है कि वे सामाजिक-राजनीतिक तिमिर में राष्ट्र चेतना का आशा दीप जलाने का प्रयास करें, क्योंकि उसका मानना है कि वे ऐसा कर सकते हैं।

पत्र के अंत में कुछ प्रश्न भी पत्रलेखक ने छोड़ें हैं, जैसे – 1. क्या यह संभव है कि वनवासी क्षेत्र, भारत के भविष्य की मुख्यधारा का केन्द्र बनेंगे? 2. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जमीनी प्रसार के लिए जनजातीय क्षेत्र में क्या विशेष सामाजिक प्रयास किये जाये? 3. चुनाव 2019 के परिप्रेक्ष्य में जनजातीय क्षेत्र में जमीनी मजबूती सुनिश्चित करने के उपाय क्या है? 4. क्या वनवासी क्षेत्रों में सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षा के नए आशादीप तैयार हो सकते हैं? 5. क्या वनवासी क्षेत्रों में सहज, सरल, सत्यशील एवं तेजस्वी व्यक्तित्व को शक्तिशाली नेतृत्व में परिणत किया जा सकता है?