जब दैनिक भास्कर जानता है कि “दुष्कर्म किसी जाति, धर्म या मजहब की नहीं पूरी इंसानियत की समस्या है”, तो फिर इसे खुद पर अमल क्यों नहीं कर रहा?

जब ‘दैनिक भास्कर’ के ही राजस्थान के एक स्टेट एडिटर लक्ष्मी प्रसाद पंत यह स्वीकार करते हैं कि “दुष्कर्म किसी जाति, धर्म या मजहब की नहीं पूरी इंसानियत की समस्या है”, तो फिर ‘दैनिक भास्कर’ ही बताएं कि उसने हाथरस मामले में जातीय उन्माद को बढ़ावा देनेवाले हेडिंग्स का इस्तेमाल क्यों किया? जरा देखिये ‘दैनिक भास्कर’ ने क्या लिखा है – “जातिगत टकराव की ओर हाथरस, पीड़िता के घरवाले बोलेः ठाकुर-ब्राह्मण के गांव में डर कर जी रहे हैं, पर इंसाफ लेंगे”

कहने को यह संवाददाता जिसे बाइलाइन स्टोरी मिली है, वह यह भी कह सकता है कि यह तो एक पीड़िता के परिवार वालों का स्टेटमेन्ट हैं, उस स्टेटमेंट से कैसे छेड़छाड़ कर सकता हैं, तो सवाल तो यह भी है कि बहुत सारी जगहों पर स्टेटमेंट देनेवाले लोग मां-बहन की खूलेआम गालियों का भी इस्तेमाल करते हैं, क्या वे गालियां भी अखबारों या चैनलों की कभी सुर्खियां बनी हैं। दैनिक भास्कर जवाब दें।

आम तौर पर जो समाज व देश के प्रति जो निष्ठा रखनेवाले पत्रकार या संवाददाता या समाचार पत्र हैं, वे इस प्रकार के हेडिंगों से खुद को बचाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि एक आलेख में लिखी कुछ बातें समाज और देश के लोगों को कितना प्रभावित करती है। सच्चाई यह है कि दुष्कर्म एक ऐसा रोग बन चुका है, कि इससे अब लगता है कि किसी का भी बचना मुश्किल है, क्योंकि इसने जिस प्रकार से हमारे समाज में अपनी जड़ें मजबूत कर ली है, वह खतरनाक है और इसे मजबूत करने में समाज के बुद्धिजीवियों की भी कम भूमिका नहीं है, जो इस खतरे से खेल रहे हैं।

सच्चाई तो यह है कि हमारे देश का माहौल इतना गंदा हो चुका है कि हमारी बेटियां तो अब अपने घरों तक में सुरक्षित नहीं हैं, वह मैं इसलिए लिख रहा हूं कि अब तो रिश्ते भी तार-तार हो रहे हैं, ऐसे में आप किसी जाति या धर्म से संबंधित लोगों या समुदायों को निशाना बनाकर कहना क्या चाहते हैं? मैं तो कहता हूं कि आज देश का कोई चैनल या अखबार दावे के साथ नहीं कह सकता कि उनके यहां काम करनेवाली महिलाएं सुरक्षित है, क्योंकि ऐसी खबरे भले ही उनके अखबारों व चैनलों में नहीं दिखाई देती हैं, पर वहां घटनेवाली घटनाओं से गुजरकर निकलनेवाली हवाएं बहुत कुछ कह देती है कि कहां क्या हो रहा है?

आज जिस प्रकार से देश में महिलाओं-लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ या दुष्कर्म की घटनाएं घट रही है, उसके एक नहीं कई कारण है, सबसे बड़ा कारण है संयुक्त परिवारों की संख्या में गिरावट, रोजी-रोटी की तलाश में गांवों का बिखर जाना, गांवों में जो रिश्तों की डोर होती थी, उसका पूरी तरह मिट जाना और शहरों का अकेलापन, जो जहां हैं, वह अकेले में रहकर सोचता है कि दूसरे के साथ घट रही घटनाओं से हमें क्या लेना और फिर वही घटना जब उसके साथ घटती हैं तो बहुत देर हो चुका होता है।

अब जरा सवाल जनता से भी, कि जिस देश का एक अखबार कहता है, वह भी तब जब वो आपके शहर में पहली बार दस्तक दे रहा होता है, वो प्रचार के माध्यम से कहता है कि अब आपके घर में आपकी बीवी की नहीं, आपकी चलेगी मर्जी, तो फिर आप खुद बताएं कि वहां महिलाओं की इज्जत का क्या जनाजा नहीं निकलेगा, और जहां ऐसे होर्डिंग लगते हैं और लोग उसका प्रतिकार नहीं कर, उस अखबार को हाथो हाथ लेते हो, तो उस समाज से आप क्या अपेक्षा रखते हैं?

सच्चाई यह है कि आज स्कूल, कॉलेज हो या कोई भी शिक्षण संस्थान, वहां चरित्र की पढ़ाई खत्म हो गई है, और जिन्हें चरित्र की घूंट पिलानी है, उन्होंने जापानी तेल का प्रचार का जिम्मा उठा लिया हैं, तो ऐसे में समाज में विष कौन घोल रहा है? और आनेवाले समय में इसकी क्या गारंटी की ऐसी घटनाएं नहीं घटेगी? जरुरत है, अपने घर-परिवार को देखिये, फिर समाज को देखिये और उसके बाद अपने पूरे शहर को। सभी को अपना मानिये। रिश्तों की गांठ को और मजबूत बनाइये।

बच्चों को शुरु से बताइये कि चरित्र कितना महत्वपूर्ण है, पर आपने तो बच्चों को पैसा कमाने की मशीन बना दिया है। बच्चे को बड़े होने के पहले, उन्हें मोबाइल थमा दी और मोबाइल आते ही बच्चा, कब जवान हो गया? आपको पता ही नहीं चलता। आपके देश की स्थिति ऐसी है कि यहां सरकार भी है, मानव संसाधन विभाग भी है, शिक्षा मंत्रालय भी है, पर वह क्या शिक्षा बच्चों को दे रहा है? उसको पता ही नहीं है, तो ऐसे में कितना भी कड़ा कानून क्यों न बन जाये, जो शैतान है, जिनके मन में शैतान छूपा है, उसे कानून से कैसा डर?

डर तो उसे होता है, जिसे अपने सम्मान की चिन्ता हो और सम्मान की चिन्ता किसे होती है, तो सज्जनों को और सज्जन कौन होता है, तो जिसने नैतिक मूल्यों का स्वाद चखा हो, जिनके घर के लोगों ने या स्कूलों ने उन बच्चों में नैतिक मूल्यों का स्वाद चखाया हो, पर हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर नैतिक मूल्यों की ही हवा निकाल दी गई, ऐसे में आज के बच्चे जब कल युवा होंगे तो उन्हें अपनी धरोहर, अमूल्य संस्कृति को सजाने-संवारने का संकल्प लेने को कौन कहेगा? जब तक ऐसा नहीं होगा, कोई कुछ भी कह लें, ये रोग हमें समय-समय पर डसेगा। अगर कोई सरकार या कोई राजनीतिक दल ये कहता है कि हम इसे कानून बनाकर रोक लेंगे तो वो एक नंबर का झूठा और बेइमान है, अफवाह फैला रहा है, साथ ही अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहा है, अंत में अखबारों-चैनलों से भी गुजारिश है कि वे अपनी क्षुद्र स्वार्थ के लिए इसकी मार्केटिंग न करें, नहीं तो भविष्य आपको कभी माफ नहीं करेगा।