धर्म

जब बारिश की बूंदे हमें स्पर्श करती है, तुलसी आप याद आते हैं…

गोस्वामी तुलसीदास ने स्वलिखित श्रीरामचरितमानस में जितना सुंदर वर्णन वर्षा ऋतु का किया है, आज तक किसी ने नहीं की। जब मैं मैट्रिक परीक्षा उतीर्ण करने के बाद इंटरमीडियट में गया, तब मुझे राष्ट्रभाषा गद्य-पद्य संग्रह पुस्तक पढ़ने को मिला, जिसमें एक चैप्टर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित वर्षा वर्णन भी था। जितने सरल शब्दों में गोस्वामी तुलसीदास ने वर्षा वर्णन कर युवाओं को सोचने पर मजबूर किया, उसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। संस्कार और चरित्र की सरल भाषा में सीख गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में खुब की है, हमारे विचार से प्रत्येक भारतीय परिवार को बिना किसी राग-लपेट के अपने बच्चों में संस्कार और चरित्र का बीजारोपण के लिए श्रीरामचरितमानस उनके हाथों में थमा देना चाहिए, क्योंकि श्रीरामचरितमानस जैसा मोरल साइंस की पुस्तक आज कहीं दिखाई नहीं पड़ता। जरा देखिये, गोस्वामी तुलसीदास ने वर्षा-वर्णन करते हुए क्या-क्या कहा और किस प्रकार हम सबका मार्गदर्शन किया।

घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।

दामिनी दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।

आकाश में बादलों का समूह घोर गर्जना कर रहे है, उनके गर्जन से सीता के बिना श्रीराम के हृदय में भय उत्पन्न हो रहा है। आकाश में बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, ठीक उसी तरह जैसे दुष्टों की प्रीति स्थिर नहीं रहती।

बरषहिं जलद भूमि निअराएं। जथा नवहिं बुध विद्या पाएं।।

बूंद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें।।

बरसने वाले बादल पृथ्वी के निकट आ गये प्रतीत हो रहे हैं, जैसे विद्या को पाकर, विद्वानों का समूह नम्र हो जाते हैं। वर्षा की बूंदों को विशाल पर्वत कैसे सह रहे हैं, जैसे दुष्टों के वचन को संत सहते हैं।

छुद्र नदीं भरिं चलीं तोराई। जस थोरेहुं धन खल इतराई।।

भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।

छोटी-छोटी नदियां इस बारिश के मौसम में इस प्रकार वेग से चलती है, जैसे थोड़े से धन को पाकर दुष्ट मर्यादाओं को ताक पर रखकर इतराने लगते है। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदा हो गया है, जैसे शुद्ध जीव माया में आकर स्वयं को गंदा कर लेती हैं।

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सद्गुण सज्जन पहिं आवा।।

सरिता जल जलनिधि महुं जाई।  होई अचल जिमि जिव हरि पाई।।

जल की बूंदे विभिन्न जगहों से बहती हुई विभिन्न तालाबों को भर रही हैं, ठीक उसी प्रकार अच्छे-अच्छे गुण स्वयं सज्जनों की ओर आकृष्ट होते रहते है। नदी का जल समुद्र में जाकर स्थिर हो रहा है, जैसे जीवात्मा श्रीहरि को पाकर हर प्रकार के आवागमन से मुक्त हो जाती हैं।

हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।

जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सद्ग्रंथ।।

छोटी-छोटी पगडंडिया, दोनों ओर हरी-हरी घासों के उग आने से इस प्रकार ढंक गई है, कि पगडंडियां दिखाई नहीं पड़ रही, जिससे इस ओर चलने में कठिनाईयां हो रही है, ठीक उसी प्रकार पाखंडियों के विवाद के कारण बहुत सारे अच्छे-अच्छे सद्ग्रंथ जो हमें राह दिखाते है, विलुप्त होती जा रही हैं।

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। वेद बढ़हिं जनु बटु समुदाई।।

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधन मन जस मिलें विबेका।।

सभी दिशाओं में मेढ़कों का समूह इस प्रकार की ध्वनि उत्पन्न कर रहा है, जैसे विद्यार्थियों का समूह वेदों का पाठ कर रहे हो। अनेक वृक्षों में नये पत्ते आ गये है, जिससे वे ऐसे हरे-भरे सुशोभित हो गये हैं, जैसे साधक का मन विवेक प्राप्त हो जाने पर हो जाता हैं।

अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।

खोजत कतहुं मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।

मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गये, जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों की एक नहीं चलती। धूल कहीं खोजने पर नहीं मिल रहे, जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता हैं।

ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपत्ति जैसी।

निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभन्हि कर मिला समाजा।।

अन्न से युक्त धरती ठीक उसी प्रकार सुशोभित हो रही है, जैसे उपकारी लोगों की संपत्तियां शोभायमान होती है। रात के अंधेरे में जुगनूओं का समूह उसी प्रकार शोभा पा रहे हैं, जैसे दंभियों के समाज का जुटान हो चला हो।

महाबृष्टि चलि फूंटि किआरीं।  जिमि सुतंत्र भएं बिगरहिं नारीं।।

कृषी निरावहिं चुतर किसाना।  जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।

भारी बारिश से खेतों की क्यारियां फूट चली है, जैसे मर्यादा में न रहने के कारण स्त्रियां बिगड़ जाती है। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं। जैसे विद्वान लोग मोह, मद और मान का त्याग कर रहे हैं।

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।।

ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियं उपज न कामा।।

चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं पड़ रहे, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहां घास तक नहीं उगते। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता।

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।।

जहं, तहं रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।।

धरती अनेक तरह के जीवों से भरी हुई शोभायमान हो रही हैं, जैसे सुराज को पाकर प्रजा की वृद्धि होती है। जहां-तहां अनेक पथिक थककर ठहरे हुए है, जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इन्द्रियां शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती है।

कबहुं प्रबल बह मारुत जहं तहं मेघ बिलाहिं।

जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।।

कभी- कभी तेज हवाएं बड़े जोरों से चलती है, जिसके वेग से बादलों का समूह गायब होने लगते हैं, ठीक उसी तरह जैसे एक कुपुत्र के जन्म लेने से कुल के उत्तम धर्म पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं।

कबहुं दिवस महं निबिड़ तम कबहुंक प्रगट प्रसंग।

बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।

कभी दिन में बादलों के कारण अचानक अंधेरा छा जाता हैं, और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं, जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है, और सुंसग पाकर उत्पन्न हो जाता है।