यह ‘दीक्षांत समारोह’ कम, ‘मेला’ ज्यादा है, और इस मेले में जो भी शामिल हैं उनका कोई भविष्य नहीं

वाल्मीकि रामायण श्रीरामचरितमानस तथा अन्य विभिन्न रामकथाओं पर आधारित रामानन्द सागर कृत धारावाहिक रामायण, बालकाण्ड, प्रसंग श्रीराम की शिक्षा। चारों भाई महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा पा रहे हैं। शिक्षा पूर्ण हो चुकी है। महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में दीक्षांत समारोह का आयोजन हो रहा है, यह आश्रम महाराज दशरथ के द्वारा ही अनुप्राणित है, पर इस दीक्षांत समारोह को संबोधित कौन कर रहा हैं?

उस दीक्षांत समारोह का केन्द्र बिन्दु कौन है? एक वो जो दीक्षा प्राप्त कर रहा है और दूसरा वो जो दीक्षा दे रहा है। यानी दीक्षा प्राप्त करनेवालों में श्रीराम और उनके चारों भाई तथा वे सारे बच्चे जो महर्षि वशिष्ठ के यहां शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, और दीक्षा देने के लिए मात्र एक ही व्यक्ति वो वशिष्ठ जो शिक्षा और दीक्षा के मूल तत्वों को जानते थे। लीजिये दीक्षा देने का कार्य प्रारम्भ होता है।

महर्षि वशिष्ठ कहते है हे राम, मेरे पास तुम्हें देने के लिए जो भी कुछ था, शिक्षा के रुप में प्रदान कर चुका हूं, आज दीक्षांत समारोह के दिन, मैं तुम्हें यह बताउंगा कि जो हमने शिक्षा दी है, उसका तुम अपने, अपने परिवार, अपने समाज देश के लिए कैसे उपयोग करोगे? वशिष्ठ आगे कहते हैं, जो हमने शिक्षा दी हैं, अगर वो आंख मूंदकर उसे उपयोग में लाते हो, यह सोचकर कि महर्षि वशिष्ठ ने कहा है, तो सच ही होगा और उसे अपनाते हो, तो ऐसी शिक्षा व्यर्थ है, कोई काम की नहीं, उसका कोई महत्व नहीं, उस व्यक्ति के लिए और ही उसके परिवार, समाज या राष्ट्र के लिए।

महर्षि वशिष्ठ कहते हैं कि तुम अब यह देखो, स्वयं अपने अंतरात्मा में उसका मूल्याकंण करो, कि हमने जो शिक्षा दी, वह तुम्हारे अनुसार सत्य के रुप में प्रतिष्ठित हैं या नहीं, अगर वह सत्य के रुप में प्रतिष्ठित हैं तो उसे तुम ग्रहण करों अन्यथा त्याग करो, क्योंकि हर व्यक्ति को सत्यान्वेषी होना चाहिए, जो वह कर रहा हैं, उसके बारे में अंतःकरण को भी शामिल करना चाहिए तभी सभी का भला हो सकता है, अंधभक्ति से विनाश छोड़, दुसरा कुछ हो ही नहीं सकता, यानी दीक्षांत समारोह में महर्षि वशिष्ठ ने बड़े ही सुन्दर ढंग से बता दिया कि शिक्षा और दीक्षा में क्या अंतर है?

शिक्षा से आप ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं पर दीक्षा से आप उस ज्ञान का मूल्यांकण करते हुए, देश, समाज, परिवार खुद को सत्य के रुप में प्रतिष्ठित कर सकते हैं। दीक्षांत समारोह को आयोजित करने का अधिकार किसे हैं, सिर्फ और सिर्फ शिक्षण संस्थान को और उन गुरुओं को जिन्होंने हृदय से अपने शिष्यों को अपनाया है, तथा पुत्रवत् शिक्षा दी हैं और उन्हें ही उन शिष्यों को पुत्रवत् दीक्षा देने का भी अधिकार है। पूरे रामायण और महाभारत को पलट लीजिये, जहां भी दीक्षांत समारोह की बात आई है, वहां कहीं भी राजा नहीं दिखता, सिर्फ और सिर्फ छात्र और गुरु ही दिखते हैं, लेकिन वर्तमान भारत में क्या हो रहा हैं?

दीक्षांत समारोह सिर्फ और सिर्फ डिग्रियां बाटने का मेला भर रह गया है, जिसमें विश्वविद्यालय स्वयं को प्रतिष्ठित करने के लिए राष्ट्रपति, राज्यपाल   मुख्यमंत्री को बुला लेता है। यानी ऐसे लोगों को बुला लेता है, जो उसके द्वारा दी जा रही डिग्रियों पर ही सवाल उठाते हैं, क्या राज्य के नागरिक भूल गये कि झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुवर दास अपने जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान एक जनसभा में क्या कहा था? उन्होंने तो डिग्रियों पर ही सवाल उठा दी, तो फिर ऐसे मुख्यमंत्री को दीक्षांत समारोह में बुलवाना रांची विश्वविद्यालय के कुलपति को शोभा देता है, या रांची विश्वविद्यालय के कुलपति ने बुला भी दिया तो ऐसे मुख्यमंत्री को इस प्रकार के कार्यक्रम में जाना चाहिए?

या जिस व्यक्ति को यह भी नहीं पता कि दीक्षा का मतलब क्या होता है? उसे दीक्षांत समारोह में जाना चाहिए। जो व्यक्ति देश और समाज के लिए मुसीबत बन जाये, उसे ऐसे समारोह में जाना चाहिए। क्या राष्ट्रपति महोदय को पता है कि उनके इस प्रकार के कार्यक्रम में आने से लोगों को कितना झेलना पड़ता है, क्या उन्हें पता हैं कि उनके रांची आगमन के दौरान कितने लोगों का ट्रेन छूट गया, कितने लोगों की फ्लाइट छूट गई, आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है, राष्ट्रपति की यात्रा, वर्तमान सिस्टम या जनता की मजबूरी का फायदा उठाने की तीव्र इच्छा, क्या राष्ट्रपति महोदय को पता नहीं कि उनके आगमन के बाद से लेकर रांची में तीन दिनों तक लोग अपने घरों छोटे मुहल्लों में कैद रहे, जैसे लगता हो कि उन्होंने सामान्य व्यक्ति होने का गुनाह कर लिया हो। 

जरा दूसरे देशों में देखिये, कम से कम ऐसा नहीं होता। जब राष्ट्रपति महोदय को मात्र दस लोगों को ही डिग्री देनी हैं और बाकी वैसे लोगों को जिन्हें डिग्री का मतलब ही नहीं पता, जिन्हें डिग्री की खिल्ली ही उड़ानी हैं तो ऐसे लोग दीक्षांत समारोह में आये, उससे किसे फायदा मिलनेवालाजरा देखिये , कल रांची विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह आयोजित हुआ और जिन्हें इस दौरान डिग्रियां मिली, वे इतने खुश है कि जैसे उन्हें लॉटरियां लग गई, पर सच्चाई क्या है?

उनके मातापिता और अभिभावकों को भी पता है कि जो डिग्रियां उन्हें मिली है, वो राष्ट्रपति दें या क्लर्क दें, उसका भैल्यू उतना ही है, जितना उस डिग्री में अंक तालिका में अंक भरे गये हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं। वह भी सिर्फ नौकरियों के लिए निकलनेवाले फार्म में शैक्षिक योग्यता के कॉलम भरने तक, कि इसके द्वारा वो चीजें प्राप्त हो जायेगी, जिसे वो डिग्रियां मिली हैं।

ये डिग्रियां बच्चे के भविष्य को बेहतर करेंगी, इसकी भी कोई गारंटी नहीं, क्योंकि हाल ही में, 28 सितम्बर को दैनिक भास्कर के इंदौर संस्करण में पढ़ने को मिला कि एक आर्थिक रुप से समृद्ध साफ्टवेयर इंजीनियर अभिषेक सक्सेना को 18 लाख के पैकेज की नौकरी जैसे ही गई, बाजार लूढ़कता नजर आया, शेयर में भारी घाटा हुआ, उसने पत्नी प्रीति सक्सेना तथा अपने दो जुड़वा बच्चों के साथ एक पार्क में जाकर जहर खा, जान दे दी अर्थात् उक्त इंजीनियर परिवार द्वारा आत्महत्या करने की घटना ये बताने के लिए काफी है, कि ये डिग्रियां बेहतर जिंदगी देने में भी कामयाब नहीं हैं। 

पर जब वशिष्ठ जैसे गुरु राम को प्राप्त होते हैं, तो वह रावण जैसे अत्याचारी शासक के सामने, विपरीत परिस्थितियों में भी वानरभालूओं को साथ लेकर मुकाबला करता हैं, और विजयी होता है, तथा पूरे विश्व को बताता है कि उसके गुरु वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र ने दीक्षांत समारोह के दौरान कैसी दीक्षा दी थी और पढ़ने का मतलब क्या समझाया था, दरअसल दीक्षा का मतलब ही हैं, कि आपने जो पढ़ा हैं, जो गुरु से पाया हैं, जो शिक्षण संस्थान से प्राप्त किया है, उसके मूल स्वरुप को समझे। 

कि विपरीत परिस्थितियों में स्वयं को नष्ट करने के साथसाथ अपने से जुड़े लोगों का भी भविष्य खुद ही तय कर दें। चूंकि आज की शिक्षा और उसकी दीक्षा तो यही बता रही हैं, क्योंकि तो आज के विश्वविद्यालयों में लाखोंकरोंड़ों कमानेवाले प्राध्यापकों को शिक्षा का मतलब पता है, और ही उन्हें दीक्षा का, वे तो दीक्षा का ही अंत इस प्रकार कर देते हैं कि आज का बच्चा भविष्य के संकटों से लड़ता नहीं, बल्कि उसके आगे घूटने टेक देता हैं।

दरअसल प्राचीन भारत और आधुनिक भारत को सामने रखें तो साफ है, कि प्राचीन भारत में शिक्षा और दीक्षा पर राजा का प्रभाव के बराबर था, राजा सिर्फ यह देखता था कि उनके शासन में पढ़ रहे बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने में कोई समस्या तो नहीं रही, बस इसकी वो जिम्मेदारी लेते थे, बाकी उसके आगे की जिम्मेदारियां शिक्षण संस्थाओं से जुड़े आचार्य उठा लेते थे, ज्यादा जानकारी प्राप्त करनी हो तो नालंदा विश्वविद्यालय तक्षशिला विश्वविद्यालय का इतिहास खंगालिये और देखिये कि वहां किस प्रकार दीक्षांत समारोह आयोजित किये जाते थे। 

आप पायेंगे कि आपकी तरह राजनीतिज्ञों/शासक वर्ग/शिक्षादीक्षा विहीनों को बुलाकर दीक्षांत समारोह का अंत नहीं करते थे, अब देखना है कि जिन्हें दीक्षांत समारोह में जिनके द्वारा डिग्रियां मिली, वे क्या गुल खिलाते हैं? पर हमें तो पता है कि आचार्य बिनोवा भावे ने जो बहुत पहले कहा था, वही आगे सामने आयेगा? जब उन्होंने एक मैट्रिक के परीक्षार्थी से पूछा कहां जा रहे हो? मैट्रिक परीक्षार्थी अतिप्रसन्न मुद्रा में, मैट्रिक की परीक्षा देने जा रहा हूं। जब वहीं इंटर की परीक्षा देने जा रहा था, वही सवाल आचार्य बिनोवा भावे ने पूछा प्रसन्न मुद्रा में, इंटर की परीक्षा देने जा रहा हूं।

जब वहीं बच्चा स्नातक की परीक्षा देने के लिए निकला, तब वही सवाल फिर बिनोवा जी ने उससे पूछा आज उसकी प्रसन्नता गायब थी, जो मुखमंडल मैट्रिक के दौरान दिखाई दिया था, वह इंटर के बाद धीरेधीरे जीवन की सच्चाई सामने आने पर बिखर चुका था। आचार्य बिनावा भावे का हृदय टूट चुका था, वे बोले ततः किम्? ततः किम्? ततकिम्?

आचार्य बिनोवा भावे ने उस वक्त कहा था कि आज की शिक्षा हनुमान कूद के बराबर है, जबकि पूर्व की शिक्षा व्यवहारिक शिक्षा थी, वशिष्ठ ने राम को वही पढ़ाया जो राम को पढ़ना था, कोई अलग चीज नहीं पढ़ाई, पर आज के युग मे कितने शिक्षक हैं, जो राम यानी छात्र को जान सकें और कितने राम यानी छात्र हैं, जो अपने गुरु वशिष्ठ को जान सकें, जब तक ऐसी परम्परा विकसित नहीं होगी। 

मैं दावे के साथ कहूंगा कि दीक्षांत समारोह सिर्फ मेले बनकर रह जायेंगे, फिर कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री आयेंगे, फिर गलीमुहल्लों में नाकाबंदी होगी, फिर किसी किसी के ट्रेन या फ्लाइट छूटेंगे, फिर कोई बच्चा जब अपनी जिंदगी में असफल होगा, तो वह आत्महत्या करेगा और ये सिलसिला चलता रहेगा, क्योंकि दीक्षा देनेवाला उसके पास आज कोई वशिष्ठ या विश्वामित्र नहीं हैं।