एक कम्बल का है सवाल चमके तेरे राजनीति बाबू, चमके व्यापारियों के कारोबार भी दादा

“मैंने अन्तिम बार दो कम्बल 2007 में धनबाद के रणधीर वर्मा चौक पर स्थित खादी ग्रामोद्योग की दुकान से खरीदा था, आज भी है, पर नेताओं द्वारा गरीबों को मिलनेवाला हर साल कम्बल ठीक दूसरे दिन कहां चला जाता है, पता ही नहीं चलता।” आखिर ये माजरा क्या है? लोग या राजनीतिज्ञ या सामाजिक संस्थाएं गरीबों को रजाई या शॉल क्यों नहीं देते? और ये कम्बल जब गरीबों को मिल जाता हैं तो फिर वही कम्बल दूसरे दिन उनके शरीर पर क्यों नहीं दिखता?

गरीबों को कम्बल ही क्यों अच्छा लगता है या वे गरीबों को कम्बल ही क्यों प्रेफर करते हैं, जबकि कम्बल कहता है कि जब तक तुम मुझे नहीं ओढ़ाओगे, मैं तुम्हारे शरीर को गर्मी प्रदान नहीं कर सकता। आज भी बहुत सारे घरों में कम्बल को लोग कपड़ों से ढकते हैं, तभी उसका प्रयोग करते हैं, पर गरीबों को मिलनेवाला कम्बल, गरीब कितना उपयोग करते हैं, मुझे अच्छी तरह मालूम है, क्योंकि पत्रकारिता के दौरान हमनें इस पर काफी शोध किया है

जीवन में घटी कई सारी कम्बल से जुड़ी घटनाओं ने तो हमें इतना बेचैन किया कि मुझे कंबल बेचनेवालों, कंबल का दान करनेवालों, कम्बल के नाम पर राजनीति चमकानेवालों और गरीबी के नाम पर कम्बल लेनेवालों से घृणा हो गई। मुझे याद है कि जब पहली बार अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने, तो उस वक्त मैं ईटीवी रांची में कार्यरत था।

मुख्यमंत्री कार्यालय से उस वक्त सूचना मिली की अर्जुन मुंडा अब से थोड़ी देर बाद कांटा टोली स्थित बस स्टैंड जायेंगे और वहां जाकर गरीबों को कंबल प्रदान करेंगे, सूचना मिलते ही मैं वहां पहुंच गया, पहुंचते ही पता चला कि एक स्थानीय चैनल के ब्यूरो पद पर कार्यरत व्यक्ति ने अपने कार के अंदर दो कम्बल रखवा लिये थे।

मैंने कहा कि यार शर्म आनी चाहिए कि गरीबों के कम्बल पर अब चैनलवाले भी कब्जा कर रहे हैं, तब उक्त चैनल के लोगों ने कहा कि उनका ड्राइवर भी गरीब हैं और इसीलिये उसने ये कम्बल लिया है, अब बताइये चैनल में कार्यरत लोगों की इतनी भी औकात नहीं कि वे अपने ड्राइवर को एक-दो कम्बल खरीद कर दें, अरे जिस ब्यूरो पद पर कार्यरत लोगों को लाखों में वेतन मिलते हैं, क्या वे सात-आठ सौ रुपये कम्बल अपने ड्राइवर को नहीं दे सकते?

दरअसल हमारे देश में मुफ्त में अगर जहर भी कोई देना शुरु करें तो लोग उस मुफ्त की जहर लेने के लिए भी एक बड़ी पंक्ति बना देंगे, भले ही वो जहर उनके लिए घातक ही क्यों न साबित हो, पर अपना देश ही आजकल कुछ ऐसा हो गया है, कि माल मुफ्त में मिले तो लाइन लगायेंगे ही।

दूसरी घटना उस वक्त मैं ईटीवी धनबाद कार्यालय में कार्यरत था। दिसम्बर का महीना था। मैं और मेरा कैमरामैन शाहनवाज यहीं कोई रात्रि के आठ बजे थे, धनबाद से झरिया की ओर बाइक से जा रहे था, तभी बैंक मोड़ से थोड़ी आगे तिराहे पर बोरा ओढ़कर सोए लोगों पर हमारी नजर पड़ी, मुझे आश्चर्य हुआ, खुले आकाश के नीचे बोरा ओढ़कर इस भीषण ठंड में लोग कैसे पड़े हुए है?

उस वक्त धनबाद के उपायुक्त अजय कुमार सिंह थे, मैंने उन्हें फोन लगाया और कहा कि इन गरीबों के लिए हो सके तो जितनी जल्द हो कंबल का प्रबंध कर दें, उन्होंने मेरी बात मानी और देखते ही देखते कंबल मिल गया, लोग आराम से सो गये, मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। ठीक दो दिन बाद मुझे फिर झरिया समाचार संकलन के लिए उसी तरफ से जाना पड़ा।

मैंने देखा कि उसी जगह फिर लोग बोरा ओढ़कर सोये हैं, मैंने उन्हें जगाया और कहा कि क्यों बोरा ओढ़कर सोए हुए हो, उस बोरा ओढ़े लोगों में से एक ने कहा कि “मालिक हम गरीब लोगों को कौन पूछता है, हम लोग ठंड से ठिठुर कर मर जायेंगे और क्या करें?” जबकि सच्चाई यह थी कि दो दिन पहले इन्हें कम्बल मिल चुका था, मैंने ही दिलवाई थी, पर इस प्रकार से आंखों में आंसू भरकर उसने आवाज निकाली कि हमें लगा कि नाटक की विधा में ये लोग अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान को भी मात दे देंगे?

मैंने पता लगाया कि आखिर ये लोग इतने कंबल जो हमेशा कभी प्रशासन, तो कभी राजनीतिज्ञ तो कभी विभिन्न प्रकार की सामाजिक संस्थाएं की ओर से मिलती हैं, आखिर जाता कहां हैं तो पता चला कि ये लोग बड़ी सावधानी से ये कंबल बाजार में बेच आते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे इलाहाबाद के संगम में पंडों का समूह नारियल गंगा में प्रवाहित करने के लिए यजमान को देता हैं, और यजमान जैसे ही उस नारियल को गंगा में प्रवाहित करता हैं, फिर वही नारियल नीचे नाव में बने तहखाने में पहुंच जाता हैं और इस प्रकार पंडों, यजमानों का धंधा चलता रहता है।

ठीक उसी प्रकार कंबल का दान और गरीबों-व्यापारियों का व्यवसाय इससे आराम से चल रहा हैं, जिससे लोगों को पुण्य भी मिल जाता हैं और गरीबों का ठंड में कारोबार भी अच्छी प्रकार से चल पड़ता है, तथा कारोबारियों को कौड़ियों के भाव कंबल मिल जाते हैं और उस पर उन्हें बेहतर मुनाफा भी प्राप्त हो जाता है, जो कम्बल की फैक्ट्रियों से भी नहीं मिल पाती।

आश्चर्य है कि इन गरीबों में वस्तुतः बहुत कम ही लोग गरीब होते हैं, कई लोगों के पास अगर जांच हो जाये तो कई की बिल्डिंग भी शहर में मौजूद हैं। रांची में, मैं खुद जिस जगह आज से एक महीने पहले रहा करता था, वहां एक परिवार ऐसा है कि उसका एक बेटा विकलांग है, जो रांची जंक्शन पर भीख मांगने का काम करता है।

पर सच्चाई यह है कि उसके माता-पिता हर प्रकार से सुखी संपन्न है, उसके मां और बाप को देखकर कह ही नहीं सकते कि इसका बेटा भीखमंगा है, पर सच्चाई यह है कि ये मां-बाप अपने बेटे को बहुत ही आराम से रांची जंक्शन छोड़ आते हैं और रांची जंक्शन से ले आने का काम करते हैं और इससे उनका पूरा परिवार आराम से चल रहा है, कभी-कभी कम्बल देनेवाले भी उसे देखकर कम्बल ओढ़ा देते है, जिससे और अच्छी आमदनी होने के चांस बढ़ जाते हैं।

अब सवाल उठता है कि जहां समाज की सोच इतनी नीचे जा चुकी है कि एक माता-पिता अपने विकलांग बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय उसे भीख मांगने की ओर ढकेलता है, जहां मुफ्त के कम्बल लेकर, उसे बेचने में लोग ज्यादा दिमाग लगाते हैं, जहां कम्बल दान करने से भगवान प्रसन्न होते हैं।

ऐसा कहने और करनेवाले लोग हैं, जहां श्रम और मेहनत से कम्बल प्राप्त कर शरीर को गर्मी प्रदान करनेवालों को मूर्ख कहा जाता हो, वहां कम्बल के नाम पर जो भी कुछ चल रहा हैं, उसे देख और सुनकर आश्चर्य होता है, आखिर ये कब तक चलेगा कंबल के नाम पर राजनीति चमकाने का धंधा, आखिर कब तक चलेगा कम्बल दान कर पुण्य कमाने का धंधा?