पत्रकार मर गया, वो कहां का था ये बतायेंगे पर किस संस्थान से जुड़ा था? नहीं बतायेंगे, वाह रे दैनिक भास्कर, तू भी वहीं निकला

कल यानी 13 मई को रांची से प्रकाशित होनेवाले एक अखबार “दैनिक भास्कर” ने अपने “राजकाज” पृष्ठ पर पत्रकारों से जुड़ी समस्याओं को लेकर एक खबर छापी, जो झारखण्ड के सभी संस्करणों में दिखाई दी। हेडिंग थी – “झारखण्ड सरकार पत्रकारों को फ्रंटलाइन वॉरियर घोषित करे, बिहार, ओडिशा, बंगाल समेत छह राज्यों ने पत्रकारों को फ्रंट वारियर्स माना”। सब हेडिंग थी – “राज्य के 22 पत्रकारों की अब तक कोरोना संक्रमण से हो चुकी है मौत”।

इस अखबार ने उन 22 पत्रकारों की सूची भी छापी, उन शहरों के नाम भी छापे, जिन शहरों से, ये पत्रकार जुड़े थे। लेकिन इस “दैनिक भास्कर” ने भी वहीं गलती कर दी, जो गलती रांची से प्रकाशित “प्रभात खबर” ने कुछ दिन पहले कर दी थी, मतलब इस अखबार ने भी ये नहीं लिखा कि ये मृत पत्रकार किस अखबार या किस चैनल या किस संस्थान से जुड़े थे? और सच्चाई यही है कि यह एक बहुत बड़ा अपराध है, उन मृत पत्रकारों के साथ, जब आप उसे यह मानने को तैयार नहीं कि मृत व्यक्ति अथवा पत्रकार किस संस्थान से जुड़ा था?

आम तौर पर जो बड़े पत्रकार हैं, उन्हें तो कोई दिक्कत नहीं, उन्हें तो संस्थान से और अन्य स्थानों से भी मुंहमांगी रकम प्राप्त हो जाती है,  जिसकी कल्पना सामान्य व्यक्ति भी नहीं कर सकता, लेकिन जो छोटे-मझौले पत्रकार हैं, जो प्रखंड या अनुमंडलों में इन बड़े-बड़े संस्थानों का झोला ढोते हैं, ये बड़े संस्थान मरने के समय ये भी मानने से इनकार कर देते हैं कि फलां पत्रकार उनके संस्थान से जुड़ा था।

इसका समर्थन मजबूरी या जो कह लीजिये, वे भी करते हैं, जो स्वयं को बहुत बड़ा पत्रकार मानते हैं, जबकि ये बड़े पत्रकार इन छोटे-मझौले पत्रकारों का खुब शोषण करते हैं, उपहार प्राप्त करते हैं, जब इनके क्षेत्रों में पहुंचते हैं, तो उसकी सेवा लेते हैं, लेकिन मरने के बाद ये भी उन छोटे-मझौले पत्रकारों पर दो बूंद आंसू तक नहीं बहाते, अगर सच्चाई देखनी हो तो जरा इन सबके फेसबुक एकाउंट खंगाल लीजिये, पता लग जायेगा, बड़ा-बड़ा पत्रकार मरेगा तो ये आंसू बहायेंगे, दो शब्द नहीं, बल्कि कई पृष्ठों का आलेख छाप देंगे, लेकिन इन छोटे लोगों पर कहा जाये कि थोड़ा आर्थिक मदद करें, तो देखिये इनकी नौटंकी।

कमाल है, जिन पत्रकारों की सूची “दैनिक भास्कर” ने दी है, उनमें कई पत्रकारों के बारे में पता लगाने में ही हमारे पसीने छूट गये, पता नहीं ये कहां से सूची निकाल लिये, लेकिन धनबाद में ही दो पत्रकार एक दैनिक जागरण के विजय रजक और भारत भूषण जी दिवंगत हो गये, विजय रजक तो कोरोना से मरे, लेकिन भारत भूषण को दुसरी बीमारी थी, पर इन दोनों का नाम उस सूची में नहीं था। अब सवाल है कि क्या इन दोनों का नाम नहीं होना चाहिए था, और अगर नाम नहीं हैं तो इसका कारण क्या है?

राज्य सरकार तो आज भी जो विज्ञापन निकाली है, फुल पेज का, जो सभी अखबारों को मिले हैं, इससे असली फायदा किसको मिलता है, क्या सरकार को नहीं मालूम? श्रम विभाग में बैठा आयुक्त क्या करता है, वह क्यों नहीं पता लगाता कि बड़े-बड़े अखबारों-चैनलों में छोटे-मझौले पत्रकारों के साथ क्या होता है? आखिर ये क्यों नहीं पता लगाता कि इस आर्थिक मंदी में जहां कई चैनल समाप्त हो गये, लेकिन झारखण्ड में एक चैनल के पास कौन सा “अलादीन का चिराग” उसे मिल गया है, जो चलता ही जा रहा है?

दरअसल सच्चाई यह है कि सरकार हो या उनके नुमाइंदे, ये सभी मस्ती के गोलगप्पे खाने के लिए पैदा हुए हैं, आम लोगों को बेहतर सुख-सविधा देने के लिए नहीं और ये तब तक चलता रहेगा, जब तक यहां की जनता नहीं सुधरेगी। सच्चाई यह भी है कि सरकार और उनके नुमाइन्दों की इतनी मोटी चमड़ी हैं कि वे जनता को सुधरने नहीं देगी, क्योंकि इन्हें भी पता है कि जनता को लॉलीपॉप खुब पसन्द है, मतलब गरीब पत्रकारों तुम्हें बेमौत मरना ही नियति है।