अपनी बात

PM नरेन्द्र मोदी जी, संभल के, कहीं आपातकाल के चक्कर में दांव उल्टा न पड़ जाये…

भारत सरकार के डीएवीपी ने आज एक विज्ञापन जारी किये हैं, जो आपातकाल से संबंधित हैं। इस विज्ञापन से केन्द्र सरकार ने कांग्रेस को निशाने पर लिया है,तथा इसके माध्यम से एक बार फिर कांग्रेस पार्टी को जनता की नजरों में नीचा दिखाने की कोशिश की है। ऐसा नहीं कि आपातकाल में सब कुछ गलत था, या आपातकाल से देश को नुकसान हो गया। आज भी जो निरपेक्ष लोग हैं, जिन्हें राजनीति से कोई लेना-देना नहीं, वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि कुछ मायनों में आपातकाल देश के लिए सुखद भी रहा, यहीं कारण भी था कि जब 1977 में उत्तर भारत में जनता लहर था, तब उस वक्त दक्षिण में कांग्रेस बहुत मजबूती से उभरी थी। ये बात किसी को भूलना भी नहीं चाहिए।

जब आपातकाल लगा था, उस वक्त मैं आठ साल का था। घर में अपने परिवार के लोग इंदिरा जी की इमरजेंसी के बारे में खुब बात किया करते थे और इंदिरा जी की कड़ी आलोचना करते। घर के दलान में साढ़े सात बजे प्रादेशिक समाचार और पौने नौ बजे राष्ट्रीय समाचार सुनने के लिए, उन दिनों लोगों की भीड़ लगी रहती। अपने मुहल्ले के कई संघ के स्वयंसेवक भूमिगत हो गये थे। उस वक्त कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के कार्यकर्ताओं की बल्ले-बल्ले थी, जबकि अन्य दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं पर शामत आ चुकी थी। विपक्ष के सारे के सारे नेता व कार्यकर्ता चुन-चुन कर जेलों में भरे जा रहे थे, और यहीं जनता में इंदिराजी के प्रति गुस्से का कारण बनता जा रहा था। युवाओं में उस वक्त लोकनायक जयप्रकाश नारायण बड़ी तेजी से उभरते जा रहे थे, स्थिति ऐसी बन गई थी कि मानो उनके एक इशारे पर युवा जान दे दें, लेकिन इसके विपरीत जो मैंने देखा वह अकल्पनीय थी।

मैंने अपने घर में ही देखा कि अपने बाबूजी जो पहले भी ड्यूटी समय पर जाने के लिए विख्यात थे, वे अपनी मां से कहते कि अब अपने पोस्टऑफिस में कर्मचारी और अधिकारी समय पर आते हैं। घंटों-घंटों विलम्ब से चलनेवाली ट्रेनें नियत समय पर आ रहे थे। मैं खुद जिस स्कूल में पढ़ता था। स्कूल निरीक्षकों की टीम बराबर अपने स्कूल में आकर धावा बोलती और देखती कि पढ़ाई ठीक ढंग से हो रही या नहीं। सरकारी स्कूलों ही नहीं अस्पतालों में भी सुविधाएं ठीक हो गई थी। भ्रष्टाचार पर ऐसा अंकुश लगा था कि क्या कहने, हमें लगता है कि शायद यहीं कारण रहा कि भ्रष्टाचारियों का भी एक वर्ग इंदिरा जी के शासन को बदनाम करने के लिए सुनियोजित साजिश रचा और वे कामयाब रहे।

1977 में इंदिरा जी बुरी तरह हार गई। जनता पार्टी का शासन आया। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने और लाल कृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने, लेकिन ये मोरारजी देसाई भी ज्यादा दिनों तक नहीं टिके। शुरु हुई आपस में कुर्सी की लड़ाई, मोरारजी देसाई के हटने के बाद जनता पार्टी के शासनकाल में चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बन गये। इसी बीच जनता शासन की अलोकप्रियता ने इंदिरा जी को पुनः लोकप्रिय बना दिया, यानी हाल ऐसा हुआ कि 1980 में देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा और इंदिरा जी फिर से देश की प्रधानमंत्री बन गई।

अब सवाल है कि जब ढाई साल के ही जनता पार्टी के शासन काल में तथा इमरजेंसी लागू होने के पांच साल बाद ही जनता ने इंदिरा गांधी को एनओसी सर्टिफिकेट देकर भारत का प्रधानमंत्री बना दिया। 1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद फिर उन्हीं के बेटे राजीव गांधी को अपार बहुमत यानी 400 से भी अधिक लोकसभा की सीटें सौंप दी, उसके बाद भी इस प्रकार के विज्ञापन आज के समय में निकालना और जनता को इसके माध्यम से यह बताना कि “आजाद भारत का सबसे काला कालखंड, जब भारत के संविधान की पूरी तरह अवहेलना हुई और लोकतंत्र का दमन  हुआ” यह कतई ठीक नहीं।

शायद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पता नहीं कि कल ही राजस्थान के एक बड़े भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी ने साफ कहा कि “आपातकाल के दो रुप हैं, एक वो जो 1975 में कांग्रेस ने लगाया और एक आज। उस समय का आपातकाल घोषित था, और आज का आपातकाल अघोषित।” घनश्याम तिवाड़ी के शब्दों में भय और दमन का ऐसा कुचक्र गढ़ा गया कि स्वतंत्र विचार का दम घुट रहा है, आवाज उठानेवालों पर झूठे केस मुकदमे लगाए जा रहे हैं।

कुल मिलाकर कहें तो जनता इतनी भी मूर्ख नहीं कि वह घोषित आपातकाल और अघोषित आपातकाल में फर्क न महसूस कर सकें, बस 2019 का इंतजार कीजिये, जनता आपको भी 1980 की तरह सबक सिखाने को तैयार हैं, जब जनता पार्टी 1980 की चुनाव बुरी तरह हारी और फिर वहीं जनता पार्टी ताश के पत्तों की तरह बिखड़ गई, आज जनता पार्टी और उसका चुनाव चिह्न चक्र बीच हल लिए किसान कहां हैं कोई जानता ही नहीं। इसलिए जनता को बरगलाइये मत, अपना काम करिये, जो वादा किया, वो निभाइये, क्योंकि अब लोकसभा चुनाव होने में समय बहुत कम बचे हैं।