बाल कोना

मेरा बचपन-मेरा घरौंदा, वो सपनों का महल, जिसमें होती वो हर चीजें, जो जीवन जीना सीखाती थी, अब बस यादे शेष रह गई हैं

आज सुविज्ञा की दादी, सुविज्ञा के लिए घरौंदा सजा रही थी। दूर मुंबई में बैठी पांच वर्षीया सुविज्ञा अपनी दादी को घरौंदा सजाती देख बहुत खुश हो रही थी। मेरे घर में दो घरौंदे हैं। एक बड़ा सा जो घरौंदा हैं। उसे आज से तीन साल पहले जब अपना घर तैयार हो रहा था तो चौखट सप्लाई करनेवाले एक व्यक्ति को हमने अनुरोध किया था कि वो मेरी पोती के लिए एक छोटा सा घरौंदा बनाकर दे दें।

उस व्यक्ति ने बड़ी ही ईमानदारी दिखाई और एक घरौंदा मुझे बनाकर सौंप दिया। उस वक्त सुविज्ञा बहुत छोटी थी, उसे घरौंदा का मतलब भी मालूम नहीं था, पर अब जब वो इन घरौंदों को देखती हैं तो उसके पांव जमीन पर नहीं होते, ठीक उसी प्रकार जब हम बचपन में होते थे और तब घरौंदों को देखकर झूम उठते थे।

अपने घर में दूसरा छोटा सा घरौंदा, कागज के कार्ड बोर्ड का बना हुआ है। जिसे मेरे दो बेटों ने अपनी कारीगरी से बचपन में बनाया था, जिसे आज भी हम संजोकर रखे हैं और जब भी दिवाली आती है तो इन दोनों घरौंदों को सजाना-संवारना नहीं भूलते, क्योंकि ये घरौंदे हमें जीवन जीना सिखाती है। अपने जीवन में सौंदर्य का बोध करना तथा अपने सपनों को संजोना सिखाती है।

हमें याद हैं, 1975 में आई पटना का बाढ़। जिसमें कई लोगों के घर बाढ़ के कारण तबाह हो गये थे, ढह गये थे। उस बाढ़ में भी मेरा घरौंदा ढहे नहीं, इसकी चिन्ता हमें बहुत सता रही थी। उस वक्त हम नौंवे साल में प्रवेश कर चुके थे। तथा उस वक्त चौथी कक्षा में पढ़ा करते थे। हमें याद हैं कि उस दौरान जब तक हम आठवीं कक्षा में नहीं पहुंच गये, उसके पहले तक घरौंदा का निर्माण और उसके संरक्षण में अपना ध्यान ज्यादा रहता था।

अपने मुहल्ले में जितने हमारे दोस्त थे, चाहे वो लड़के हो या लड़कियां। सभी दिवाली आने के पूर्व ही अपने-अपने घरों में घरौंदा का निर्माण करने में लग जाते। स्कूल की छुट्टी होते ही, सभी अपने-अपने घरों से छोटी सी कठौती निकालते और चल पड़ते खेत की ओर। वे उस वक्त परती खेतों से मिट्टी लाते और कुछ दिनों तक मिट्टी को अपने-अपने घरों में जमा करते। जब मिट्टी जमा हो जाती तो फिर शुरु होती घरौंदा निर्माण की शुरुआत।

उस वक्त सभी के घरों में जो बुजुर्ग होते, जैसे-दादा-दादी या माता-पिता वे बच्चों के साथ लग-भिड़कर घरौंदा निर्माण में जुट जाते। छोटे-छोटे ईटों व मिट्टी से बने घरौंदे भी दो-से तीन मंजिलों तक बनते। जिसमें सीढ़िया भी होती। छोटे-छोटे शीशे उन घरौंदों में लगा दिये जाते। घरौंदों में खिड़कियां भी बनाई जाती। दिये रखने के लिए उसमे ताखे भी बना दिये जाते और जब बन जाती तो फिर शुरु होती उन घरौंदों की पुताई।

घर में पहले से ही पुताई के लिए आये चुने व गेरुओं से घरौंदों की पुताई हो जाती। फिर उसे रंग-बिरंगी बनाने के लिए तरह-तरह के रंगों का प्रयोग होता और जब कलाकारी हो जाती तो फिर चलते निरीक्षण को, कि किसके घर में सबसे सुंदर घरौंदा बना हैं। हालांकि सभी के घर में बने घरौंदें एक से बढ़कर एक होते, पर सभी को लगता कि उसी का घरौंदा सर्वश्रेष्ठ है।

फिर दिवाली के दिन ही दोपहर में अपने-अपने परिवारों के साथ दिवाली के बाजार को जाते और वहां से मिट्टी के बने वे सारे खिलौने लेते, जो जीवन के लिए जरुरी होते। उस वक्त मिट्टी के दो मुंहे-चार मुंहे चुल्हे, कुलिया-चुकिया, लोढ़ा-सिलौटी, तराजू, जाता, गिलास, घंटी, लोटा, कमंडल आदि खुब बिकते। इन सभी के सेट कुम्हार लोग बनाकर रखे रहते और बच्चे उन्हें लेना नहीं भूलते।

फिर लावा-फरही, चीनी की बनी मिठाइयां व खिलौने की बारी आती। उसके बाद मिट्टी के बने गणेश-लक्ष्मी को लेने की बारी आती। पिताजी इसका बड़ा ध्यान रखते। मेरी मां रात होते ही, एक बड़े परात में पुराने गणेश व लक्ष्मी को आदर सहित उन परातों में रखती और फिर एक तरफ उसी परात में नये गणेश लक्ष्मी को रख, दोनों की विधि-विधान से पूजा करती।

दिये जलाती। फिर उन जलते दियों में से एक दिये तुलसी जी के पास, एक दिये गंगाजी के नाम पर कुएं के पास, एक दिये कुलदेवता घर में, एक दिये मंदिर में भेजने के बाद, पांच दिये गणेश लक्ष्मी पर जलाकर माथा टेकती, ये सारे दिये घी के होते, उसके बाद वो हम सभी भाई-बहनों को प्रणाम करवाती और फिर शुरु होता घरौंदा के पास जाना और कुलिया चुकिया भराना। हम भाई-बहन सभी मां को देखा करते। वो दीवाली की गीत गाती, मंगल गीत गाती और हमलोगों से उन कुलिया-चुकिया में लावा-फरही भरवाती। अगर कोई उस दिन पुछता कि स्वर्ग कहां हैं तो हम भाई बहन बेधड़क कह देते, उसी घरौंदे में।

आज मेरी पत्नी यानी सुविज्ञा की दादी उसी मुद्रा में हैं। लेकिन सुविज्ञा मुंबई में हैं। लेकिन हमारी परम्परा आज भी जीवित है। हमारी संस्कृति आज भी जीवित है। सुविज्ञा दूर ही सही पर वो अपनी दादी को देख रही है। घरौंदा बनकर तैयार है। कल ही दीवाली है। कुलिया-चुकिया भरायेगा। गणेश-लक्ष्मी की विधिवत् पूजा होगी। हम अपनी पुरानी यादों में खोये रहेंगे और उन्हीं यादों से अपने जीवन को और सजाने की कोशिश करेंगे।