महेन्द्र सिंह जैसा जनता और सदन के प्रति समर्पित एवं कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व मैंने आज तक नहीं देखा

लालू प्रसाद को कुछ सीटे कम मिल गई, झामुमो तो अलग झारखण्ड के लिए पहले से ही आन्दोलनरत थी, कांग्रेस और भाजपा ने थोड़ा जोर लगाया, लालू की बोलती बंद हो गई, जो लालू बिहार को बांटने के पक्ष में कभी नहीं थे, जिनका नारा ही था कि उनके लाश पर बिहार बंटेगा, पर बिहार बंटा, नया झारखण्ड राज्य का उदय हुआ।

इसी बीच संयोग ऐसा हुआ कि ईटीवी के न्यूज कार्डिनेटर गुंजन सिन्हा ने हमें ईटीवी रांची की जिम्मेदारी सौंपी और फिर शुरु हुआ का. महेन्द्र सिंह से हमारा जुड़ाव। का. महेन्द्र सिंह झारखण्ड के बगोदर विधानसभा सीट से चुनाव जीता करते थे। हमेशा सादगी पसंद महेन्द्र सिंह, आजकल के जन-प्रतिनिधियों की तरह नहीं थे। उनमे दिखावा नहीं था, वे जो थे, सो थे, जिनको पसंद करना है करो, नहीं तो मत करो।

हमारी मुलाकात, बराबर विधानसभा तथा उनके विधानसभा स्थित आवास और काली मंदिर रोड स्थित रांची कार्यालय में हुआ करती। मैं हमेशा अपना कैमरा लेकर, मोटरसाइकिल से न्यूज कवरेज किया करता और समय पर ईटीवी के हैदराबाद मुख्यालय में समाचार भेज दिया करता।

इसी बीच गुंजन सिन्हा ने एक बार हमें बताया था कि पटना में विधानसभा का सत्र जब चल रहा था, तब महेन्द्र सिंह ने सदन में गजब ढा दिया था, तब मैंने भी गुंजन सिन्हा को यही कहा था कि झारखण्ड में भी महेन्द्र सिंह गजब ही ढा रहे हैं, नई-नई सरकार को कैसे घेरना है, कब घेरना है, किस बिन्दु पर घेरना है, अगर कोई जानता है तो वे सिर्फ महेन्द्र सिंह ही थे, बाकी का तो केवल हाजिरी देने में ही समय कटता है, या बेवजह का वेल में आकर धरना देना या हंगामा करना होता है।

कुछ पत्रकार जो जातिवाद किया करते थे, और जाति को लेकर ही महेन्द्र सिंह से सटने का प्रयास करते थे, महेन्द्र सिंह उनको बखूबी जानते थे, और उसी अंदाज में उनका जवाब देकर, खुद को अलग करने का प्रयास किया करते, एक बार इसी प्रकार की बातों के दौरान, मैंने उनकी आंखों को पढ़कर, महसूस किया था कि वे हमसे ये कहना चाह रहे हो कि दुनिया में कैसे-कैसे लोग हैं, जो इतनी ऊंचाई पर होने के बावजूद, छोटी-छोटी सी हरकत करने से बाज नहीं आते।

एक बार जब मैं मोतिहारी में था, तब मैंने पत्रकारिता में फैले अनाचार को लेकर, एक नाटक लिखा था, नाटक का नाम था – “ब्यूरो”। जब मैंने अपने लिखित इस नाटक के बार में माले कार्यालय में उनसे बाते कही तब उनका कहना था कि ऐ मिश्रा जी, ऐसा करते है कि चलिये अलबर्ट एक्का चौक, और हम दोनों की इस नाटक को जनता के सामने रखते है, कैसा रहेगा?  

मैं आश्चर्यचकित था कि उन्होंने कितनी सहजता के साथ ये बाते कही और नाटक करने पर जोर दिया। इसी बीच हमारा तबादला डालटनगंज हो गया था, और कुछ दिन के बाद ही पता चला कि आतताइयों ने आज ही के दिन महेन्द्र सिंह की हत्या कर दी। आखिर ऐसे लोगों की हत्या करने से किसको क्या मिलता है, भगवान जाने, पर मेरा हृदय रो पड़ा था।

महेन्द्र सिंह जब भी हमसे मिलते तो बस गरीबों की योजनाओं और उनके क्रियान्वयन तथा सरकार और उनके लोगों की इस ओर विफलता पर ही बातें करते, और उनका सम्मान सदन में बैठा हर व्यक्ति किया करता, पर आश्चर्य हुआ कि एक बहुत बड़े वामपंथी नेता से, जब हमारी बातचीत हुई, तो पता चला कि उनके मन में महेन्द्र सिंह के प्रति कोई अच्छी धारणा नहीं थी, और इसका जो मूल कारण था, वो यह था कि आखिर लोग महेन्द्र सिंह को ज्यादा सम्मान क्यों देते हैं?

हमें एक और बात याद है कि जब उन्होंने माले कार्यालय में एक बार प्रेस कांफ्रेस किया तो हमें भी सूचना दी गई, मैं उस दिन प्रेस कांफ्रेस शुरु होने के कुछ समय पहले ही पहुंच गया। उनसे बातचीत होने लगी, उन्होंने कहा कि ऐ मिश्रा जी, आपको हमलोग बुलाते हैं, तो आप मोटरसाइकिल अपना उठाते हैं, और चल आते हैं, और हम अपने इलाके में जब संवाददाता सम्मेलन करते हैं तो आपका ईटीवी का संवाददाता कहता है कि आप गाड़ी भेज दीजिये, तब आयेंगे। यह सुनकर हम अवाक थे, मैंने तुरन्त ही गुंजन सिन्हा को फोन लगाया और कहा कि लीजिये महेन्द्र जी से बात करिये, कुछ कहना चाहते है।

का. महेन्द्र जी, लड़ रहे थे, सभी से उन तमाम भ्रष्टाचारियों से जो समाज को चूहों की तरह कूतर रहे थे, चाहे वे कही हो, कभी शांत नही बैठे, और जो शांत बैठ जाये, वो महेन्द्र सिंह नहीं हो सकते।

इसी बीच झारखण्ड बने 18 साल हो गये, कई लोगों को विधानसभा ने सर्वश्रेष्ठ विधायक घोषित किया, कई तो ऐसे है कि किसी जिंदगी में सर्वश्रेष्ठ विधायक नहीं हो सकते, फिर भी उन्हें मिला, पता नहीं उन्हें चूननेवाले किस संस्थान से डिग्री लिये हुए हैं, पर जो सचमुच में सर्वश्रेष्ठ विधायक की उपाधि लेने की योग्यता रखता था, उस महेन्द्र सिंह ने कभी भी ऐसी उपाधि लेने की मन में इच्छा नही रखी, बल्कि उसे ठुकराया।

जब भी कभी मंत्रियों द्वारा पेश किये जानेवाले बजट के दौरान मंत्रियों के द्वारा गिफ्ट दी जाती, सभी विधायक दांत निपोरकर लेते, पर का. महेन्द्र सिंह बड़ी विनम्रता से ठुकरा देते। हमें याद है कि किसी प्रसंग को लेकर, का. महेन्द्र सिंह गुस्से में आ गये, और उन्होंने सदन में इस्तीफा देने की घोषणा कर दी, और सदन से निकल लिये।

मैं अपने कैमरे लेकर दौड़ता हुआ, उनके पास गया, उन्होंने अपनी बाते रखी, जिसे कोई चुनौती नहीं दे सकता, पर मानना पड़ेगा, झारखण्ड विधानसभाध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी और तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी की भी, जिन्होंने उनके इस्तीफे को मंजूर नहीं किया, बल्कि उनके सम्मान को सदन में भी बढ़ाया, जो जरुरी भी था, हमें याद है कि सदन में ही बाबू लाल मरांडी ने अपने विधायकों को महेन्द्र सिंह से प्रेरणा लेने को भी कहा था कि सदन में आने के पूर्व कैसे तैयारी करके आनी चाहिए?

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आज सदन में जितने भी जनप्रतिनिधि है, चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हो, महेन्द्र सिंह के आगे नहीं टिकते। महेन्द्र सिंह के दिवंगत होने के बाद उनके बेटे विनोद सिंह ने उनकी परम्परा का बहुत सुंदर ढंग से निर्वहण किया, ये अलग बात है कि वे 2014 के चुनाव में पराजित हो गये, उनका पराजित होना बहुत लोगों को खला भी।

भारतीय संस्कृति में एक सुक्ति पढ़ने को मिलती है – कीर्तियस्य स जीवित। जीवित वहीं है, जिसकी कीर्ति है, सचमुच का. महेन्द्र सिंह बनना आसान नहीं, सादगी, सदन के प्रति निष्ठा और सिर्फ जनता के लिए ही जीना कोई सीखना चाहे, तो वह का. महेन्द्र सिंह के जीवनी से सीख सकता है, पर यहां तो सभी अपने और अपने परिवार के लिए सदन में उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं, इसके लिए अपने उसूलों की सूली ही क्यों न चढ़ा देनी पड़े, ऐसे में जहां इस प्रवृत्ति के लोगों की संख्या होगी, भला का. महेन्द्र सिंह की कौन सुनेगा?

का. महेन्द्र सिंह, लोग कहते है कि आप इस दुनिया में नहीं है। मैं कहता हूं कि आप कभी मर ही नहीं सकते, का. महेन्द्र सिंह जैसे लोग, हमेशा जीवित रहेंगे, जब लोग सदन में किसी ईमानदार जनप्रतिनिधि को ईमानदारी के साथ अपनी बात रखते देखेंगे। का. महेन्द्र सिंह को मेरी ओर से भावपूर्ण श्रद्धाजंलि।