अपनी बात

हनुमान-कुद पत्रकारिता में विश्वास रखनेवाले पत्रकारों को क्या पता कि सदन की रिपोर्टिंग कैसे की जाती है, उन्हें तो उछल-कूद के सिवा दुसरा कुछ दिखाई ही नहीं देता

झारखण्ड विधानसभा का पांचदिवसीय शीतकालीन सत्र समाप्त हो गया और इसी के साथ समाप्त हो गया पत्रकारों का विधानसभा परिसर में लगनेवाला मेला, जो विधानसभा की रिपोर्टिंग करने जाते थे, जिसे देखकर वहां विधायकों का समूह तरह-तरह की मनोरंजक छवियां पेश किया करता था, जिससे आकर्षित होकर ये पत्रकारों का समूह उनके पास आये, उनकी विडियो तैयार करें तथा उसे अपने फेसबुक पर डालकर उनकी लोकप्रियता में चार-चांद लगाये। अब सवाल उठता है कि जब सदन चल रहा हो और उस सदन चलने के दौरान भी सदन के अंदर की बातें आम जन तक नहीं पहुंचे और सदन के बाहर की बातें ही प्रमुखता से स्थान पा लें तो फिर विधानसभा की रिपोर्टिंग का क्या मतलब?

झारखण्ड विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी विद्रोही24 से बातचीत के क्रम में कहते है कि सत्तापक्ष हो या विपक्ष, उनकी दो बातें ही जनता तक पहुंचती है, एक वो जो सदन के अंदर रखते हैं और दुसरा वो जो सदन के बाहर रखते हैं, सदन के अंदर जो बातें रखी जाती हैं, उसका मूल्य होता है, उसकी एक रिकार्ड होती हैं, पर वहीं बातें जब सदन के बाहर रखी जाती हैं, चाहे वो बातें विधानसभा परिसर में ही क्यों न रखी गई हो, उसका कोई मूल्य नहीं होता और न ही रिकार्ड होता हैं, ऐसे में सदन के बाहर की बातें एक तरह से बेमानी हो जाती हैं, जबकि सदन के अंदर की बातों को लेकर सरकार जिम्मेदार होती है, उसे किसी भी विधायक के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए जिम्मेदारी का निर्वहण करना पड़ता है।

जैसे कोई विधायक अपने क्षेत्र की किसी समस्या को लेकर सदन के अंदर सवाल उठाता हैं तो सरकार उसके प्रश्नों को सही उत्तर देने के लिए बाध्य होती हैं, उसे उन प्रश्नों के उत्तर हर हाल में देने होते हैं, पर विधानसभा के बाहर रखे गये प्रश्नों व उनके उत्तर कोई मायने नहीं रखते, ऐसे में कोई पत्रकार या पत्रकारों के समक्ष विधानसभा परिसर में कोई माननीय क्या कर रहे हैं, उससे सदन का कोई मतलब नहीं होता। ऐसे में सदन के बाहर की बातों को लेकर, अगर पत्रकार ये कहे कि वे विधानसभा की रिपोर्टिंग कर रहे हैं, तो उनकी इस प्रकार की रिपोर्टिंग, रिपोर्टिंग नहीं रह जाती।

यही कारण है कि आज भी अखबारों की रिपोर्टिंग खासकर विधानसभा को लेकर सर्वाधिक ग्राह्य मानी जाती है, क्योंकि अखबारों से जुड़े पत्रकार अपनी दीर्घाओं में बैठकर माननीयों के हर प्रकार के सवालों व उनके जवाबों तथा हाव-भाव को देखकर जब अखबारों में प्रस्तुतीकरण दे रहे होते हैं, तो उनकी बातें जनता के समक्ष अधिक विश्वसनीय और मूल्यों वाली हो जाती हैं, जबकि इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ ऐसा नहीं हैं।

अगर विजयुल मीडिया में सदन को लेकर कोई सवाल उठाये जाते हैं, या उत्तर दिये जा रहे हैं तो अच्छा रहेगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोग सदन के प्रश्नों को ही जनता के समक्ष रखे और उनके संबंधित उत्तर भी सदन के अंदर दे रहे सरकार के विभागीय मंत्री को ही जनता के समक्ष रखे, नहीं तो बाहर में कोई क्या विधायक प्रश्न पूछा और मंत्री ने क्या जवाब दिये, उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।

राजनीतिक पंडितों की मानें तो आजकल भेड़िया धसां पत्रकारों का समूह पत्रकारिता जगत में आ धमका हैं। इसे विधानसभा की रिपोर्टिंग कैसे की जाती हैं, उसकी कोई जानकारी नहीं होती, बस वो जैसा देखता हैं, वैसा करने लगता है, जैसे उसने देखा कि पोर्टिंको में किसी मंत्री या विधायक की गाड़ी आई और एक कैमरामैन ने उसका विजुयल उतारना शुरु किया तो वह भी देखा-देखी ऐसा ही करने लगता है।

जैसे किसी ने एक नेता की बाइट लेनी शुरु की, तो देखा-देखी वो भी इसी प्रकार की हरकतें करने लगता है, चाहे उसकी उस बाइट की जरुरत हो या नहीं, या विधानसभा के अंदर से हंगामे की आवाज आई तो उस हंगामा की खबर को कैद करने में दिमाग लगाने लगता है, भले ही उस हंगामे की खबर को स्पीकर ने सदन की रिकार्डिंग से अलग ही क्यों न कर दिया हो। ऐसे में इस प्रकार की रिपोर्टिंग का क्या मतलब?

अब जरा देखिये, एक दिन नियोजन नीति को लेकर युवाओं का दल जोशो-खरोश के साथ विधानसभा के समक्ष पहुंच गया। सरकार ने अपने कुछ मंत्रियों और विधायकों तथा अन्य दलों के विधायकों की एक टीम बनाकर युवाओं के क्रोध को शांत करने के लिए भेज दिया। विधानसभा में रिपोर्टिंग कर रहे कुछ पत्रकार वहां पहुंच गये और फिर वहां भी वन टू वन की नौटंकी शुरु कर दी, जैसे लगता हो कि वे सारी समस्याओं का देखते ही देखते हल निकाल लेंगे, नाना प्रकार के उटपुटांग सवाल पुछने लगे, जैसे लगता हो कि जो विधायक व मंत्री बोलेंगे उससे हल निकल जायेगा।

पर सच्चाई क्या है कि बाते सड़क पर हो रही हैं और सड़क पर की गई बातों का मिलान, सदन से किसी जिंदगी में नहीं हो सकता, तो फिर इस प्रकार की खबरों का क्या मतलब, अगर यही इन युवाओं की बातों को लेकर वे सारे विधायक व मंत्री सरकार के पास जाते और सरकार नियमतः उन युवाओं के बारे में सदन में जवाब देती तो फिर ये समाचार था, पर ऐसी बातों से आजकल के हनुमान कूद पत्रकारों को क्या मतलब?

ऐसे में अच्छा रहता कि झारखण्ड विधानसभाध्यक्ष ऐसे पत्रकारों की एक टीम बनाते, जिन्हें सदन की रिपोर्टिंग कैसे की जाती हैं, उसका अच्छा ज्ञान हो और उन पत्रकारों से ऐसे रिपोर्टरों को प्रशिक्षण दिलवाया जाता कि सदन की रिपोर्टिंग कैसे की जाती हैं, उसका वे प्रशिक्षण लेते। जिन पत्रकारों को उसमें रुचि होती, वे इसमें भाग लेते और जिनको नहीं रुचि रहती, उससे कोई मतलब भी नहीं रखना चाहिए।

साथ ही झारखण्ड विधानसभा की नियमावली व संविधान की एक छोटी सी पुस्तक भी इन पत्रकारों को कहा जाये कि अपने पास रखें ताकि वे समझ सकें कि सदन किसी भी राज्य के लिए कितना महत्वपूर्ण है। सच्चाई यह है कि हनुमान-कूद में विश्वास रखनेवाले आजकल के पत्रकारों को इसका भान ही नहीं है कि सदन क्या होता हैं, जिस दिन सदन की मर्यादा व उसकी गंभीरता का ऐहसास हो जायेगा, ये हनुमान कूद सदा के लिए बंद हो जायेगा, पर इसके लिए जाम्बवन्त कौन बनेगा?

सदन की गरिमा व मर्यादा को भलीभांति समझनेवाले निर्दलीय विधायक सरयू राय कहते है कि आजकल की जो स्थिति हैं, उसको देखते हुए वे अब खुद दूरियां बनाने लगे हैं, उन्हें ये सब खुद अच्छा नहीं लगता, इसलिए वे विधानसभा के गेट नं. चार से ही आराम से निकल जाते हैं, क्योंकि वे जानते है कि न तो ढंग के अब सवाल पूछनेवाले पत्रकार हैं और न ही उससे सुनने को तैयार पत्रकार, तो फिर ऐसे में उस रास्ते से गुजरने से क्या मतलब?