राजनीति

JMM की राष्ट्रपति से गुहार, आदिवासियों-मूलवासियों को बचाने के लिए आगे आये, IFA 1927 के प्रस्तावित संशोधनों को तत्काल रद्द करें

भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा भारतीय वन कानून 1927 में प्रस्तावित संशोधन के विरुद्ध तथा वन अधिकार कानून 2006 के अक्षरशः अनुपालन हेतु झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का एक प्रतिनिधिमंडल नेता प्रतिपक्ष हेमन्त सोरेन के नेतृत्व में आज झारखण्ड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू से मिला तथा उनके माध्यम से भारतीय राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को एक ज्ञापन संप्रेषित किया।

राष्ट्रपति को संप्रेषित पत्र में बहुत सारी बातों का जिक्र है, जिसमें राष्ट्रपति को कहा गया है कि स्वतंत्रता के पूर्व से भारतीय वन कानून 1927 लागू है। विभिन्न जनसंवादों के माध्यम से पता चला है कि भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भारतीय वन कानून 1927 में कुछ संशोधन की जरुरत बताते हुए कुछ प्रस्तावों को विचारार्थ लाने का निर्णय लिया है। जैसे

प्रस्तावित संशोधन में वन अधिकारियों को सशस्त्र बल के रुप में प्रस्तावित किया गया है, एवं उन्हें यह अधिकार दिया गया है कि वे अपने अधिकार क्षेत्र में सशस्त्र विचरण कर सकते हैं तथा संदेह की स्थिति में बल प्रयोग कर सकते हैं। वन अधिकारियों के क्षेत्राधिकार में प्रयोग किये गये अधिकारों की समीक्षा न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा करने की बाध्यता नहीं होगी। वन अधिकारियों को यह भी अधिकार प्राप्त होगा कि संदेह की स्थिति में वन क्षेत्र अन्तर्गत किसी भी ग्राम, टोला या अवस्थित घरों की कभी भी तलाशी ले सकते हैं।

भारतीय वन कानून 1927 के प्रस्तावित संशोधन, 2006 में बने वनाधिकार कानून के मूल भावनाओं के विपरीत है। साथ ही साथ प्रस्तावित संशोधन 2006 के वनाधिकार कानून की संवैधानिकता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। प्रस्तावित संशोधनों के लागू होने से वनाधिकार कानून 2006 अप्रासंगिक हो जायेगा।

भारतीय वन कानून में जहां वन आच्छादित ग्रामों में सदियों से रहनेवाले आदिम जनजाति, आदिवासीमूलवासी को चिह्नित कर उनको जमीन का राजस्व पट्टा एवं मालिकाना हक देने का प्रावधान है, वनोपज पर सामुदायिक रुप से स्वामित्व भी प्राप्त है, वनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन की जिम्मेवारी भी तय है तथा वन ग्रामों में सरकार द्वारा सभी तरह के बुनियादी नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने की व्यवस्था तय है।

1980 में संशोधित भारतीय वन कानून 1927 के चैप्टर 2 में परिभाषित आरक्षित वन क्षेत्र तथा चैप्टर 4 में परिभाषित सुरक्षित वन क्षेत्र के होते हुए पीपेसा 1996 तथा वन अधिकार अधिनियम 2006 को संवैधानिक शक्ति देकर उस क्षेत्र के आदिम जनजाति, आदिवासी एवं मूलवासी को पर्याप्त संरक्षण, संवर्द्धन एवं उनके सामाजिक, आर्थिक उन्नति के पथ को प्रशस्त किया गया है।

ज्ञापन में कहा गया है कि भारत विश्व की प्राचीन सभ्यताओं एवं परम्पराओं वाला देश है। वन का महत्व हम सभी भारतीयों के प्राणों के साथ आत्मसात् है। देश के सबसे प्राचीन नागरिक सभ्यता, आदिमजनजाति, आदिवासी एवं मूलनिवासियों का निवास वनक्षेत्र ही है। सभ्यता एवं विकास के साथसाथ वन आच्छादित क्षेत्रों की संख्या घटते चली जा रही है। वन क्षेत्रों में रहनेवाले आदिम जनजाति, आदिवासी, मूलवासी अब जनसंख्या बल मे अल्प हो चुके हैं।

स्वाधीनता के बाद भारत के संविधान में पांचवी और छठी अनुसूची जहां आदिम जनजाति, आदिवासीमूलवासियों के संरक्षण एवं संवर्द्धन को संवैधानिक कवच प्रदान करती है, वहीं कालान्तर में भारतीय संसद ने संवैधानिक प्रावधानों के अनुसरण में पीपेसा 1996 एवं वन अधिकार कानून 2006 को अधिसूचित कर वन आच्छादित तथा संलग्न भूभाग पर निवास करनेवाले आदिमजनजाति, आदिवासियोंमूलवासियों के जीवन यापन को कानून सम्मत अधिकार प्रदान किया है।

ज्ञापन में इंगित किया गया है कि वनाधिकार कानून के तहत यह सुनिश्चित किया गया है कि 18 दिसम्बर 2005 की तिथि या उसके पूर्व तक वनक्षेत्र में बसनेवाले सभी आदिम जनजाति, आदिवासीमूलवासी को रैयत मानकर उनको भूमि का मालिकाना हक दिया जायेगा, लेकिन दुर्भाग्यवश प्रशासनिक दुर्भावना एवं उदासीनता के कारण आज तक सर्वेक्षण का काम पुरा नहीं कर, उनके दावों को कानूनी रुप नहीं दिया गया। जिसके फलस्वरुप सैकड़ों वर्षों से वनक्षेत्र में निवास करानेवाले आदिम जनजाति, आदिवासी एवं मूलवासी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।

राष्ट्रपति से ज्ञापन में अनुरोध किया गया है कि वे भारतीय वन कानून 1927 के प्रस्तावित संशोधनों को तत्काल रद्द करने तथा 2006 वनाधिकार कानून के तहत वन क्षेत्र में रहनेवाले सभी आदिम जनजाति, आदिवासीमूलवासी को भूमि पर मालिकाना हक दिलाने की दिशा में आवश्यक निर्णय लें, ताकि देश के आदिम जनजाति, आदिवासीमूलवासी को आपके संरक्षण का सतत् लाभ प्राप्ति के साथ वन अधिकार कानून 2006 की मूल भावना का अनुपालन हो सकें, ताकि संवैधानिक व्यवस्था के साथसाथ उच्चतम सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्परा एवं अवधारणाओं को अक्षुण्ण रखा जा सकें।