राजनीति

PM को जैसे ही गुजरात में हार नजर आई, भोलेनाथ की जगह आंबेडकर नजर आने लगे

कल की ही बात है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय आंबेडकर केन्द्र का उद्घाटन किया और लगे हाथों अपने प्रतिद्वंदी राहुल पर भी निशाना साध दिया। उन्होंने कहा कि बाबा साहेब आंबेडकर के जाने के बरसों बाद तक राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान को मिटाने के प्रयास किये जाते रहे, लेकिन जिस परिवार के लिये ये सब किया गया, उस परिवार से कहीं ज्यादा लोग आज बाबा साहेब से प्रभावित है, राहुल गांधी पर अपना निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह भी कहने से नहीं चूके कि आजकल कुछ लोगों को बाबा साहेब नहीं, बल्कि बाबा भोले याद आ रहे हैं।

गुजरात में मतदान का दिन जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे पीएम मोदी और राहुल के बीच वाक् युद्ध देखते ही बन रहा है। पहली बार देखने को मिल रहा है कि राहुल गांधी की सभा में लोग बड़े उत्साह और जोश के साथ शामिल हो रहे हैं, जिससे पीएम मोदी और अमित शाह की धड़कनें तेज हो रही है, दलित वोटों को अपने पक्ष में करने के लिए दोनों ओर से जोर लगाया जा रहा है, एक दूसरे को नीचा दिखाने की हर प्रकार की कोशिश की जा रही है।

पीएम मोदी का यह बयान कि आजकल कुछ लोगों को बाबा साहेब नहीं, बल्कि बाबा भोले याद आ रहे हैं, उसी की एक कड़ी हैं, पर पूछनेवाले पीएम मोदी को भी नहीं बख्श रहे हैं और उनसे सवाल कर रहे हैं कि हरदम बाबा भोले को याद करनेवाले, कोई भी काम बाबा भोले से शुरु करनेवाले, सोमनाथ और केदारनाथ जाकर माथा झूकानेवाले को आजकल बाबा भोले की जगह बाबा आंबेडकर क्यों नजर आ रहे है?  कहीं ऐसा तो नहीं कि उन पर बाबा भोले की कृपा नहीं बरसने का अनुमान हो चुका है, और इसलिए उन्हें बाबा आंबेडकर की शरण लेनी पड़ रही है।

राजनीति ऐसी चीज है कि यहां कोई किसी का नहीं होता, न तो रिश्ते चलते है और न रिश्तेदारी। यहां भगवान और भक्त को भी राजनीतिज्ञ नहीं छोड़ते। आज इन राजनीतिज्ञों को पता चल जाये कि दलितों का वोट निर्णायक नहीं हैं या दलित आंबेडकर के नाम पर, वोट नहीं देंगे तो यकीन मानिये कोई नेता आंबेडकर का नाम नहीं लेगा, फिर आंबेडकर के आगे कोई नहीं झूकेगा, ठीक उसी प्रकार जैसे राहुल गांधी या पीएम मोदी से ही पूछिये कि उन्होंने गुजरात चुनाव के दौरान कितनी बार महात्मा गांधी का नाम लिया, कितनी बार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद का नाम लिया।

सच्चाई यह है कि इनके नाम से न तो वोट मिलते हैं और न ही राजनीति चमकती हैं, राजनीति तो चमकती है गुजरात में, सिर्फ और सिर्फ सरदार पटेल और आंबेडकर के नाम पर, तो ऐसे में राजनीतिज्ञ बाकी के ऐतिहासिक व आध्यात्मिक पुरुषों का नाम क्यों लें? पूरा देश कृतघ्न होता जा रहा है, उन्हें अपने पूर्वजों में भी जातीयता देखने को कहा जा रहा हैं और उन्हें ऐसा सोचने पर मजबूर किया जा रहा हैं, ऐसे में चुनाव की क्या जरुरत? ये तो चुनाव ही बेमानी है।

कौन कहता है कि इससे लोकतंत्र मजबूत होगा, लोकतंत्र में तो यहां घुन लग गया और ये घुन अपना तेजी से कमाल दिखाता जा रहा है। देखियेगा, आनेवाले समय में, जातीवाद रहेगा, लोकतंत्र भी रहेगा, पर भारत नहीं दिखेगा, क्योंकि भारत को रबर से मिटाने की हर कोई प्रयास कर रहा हैं, चाहे वह सत्तापक्ष हो या विपक्ष।