दिल थाम कर बैठिये, हो सकता है पांच सितम्बर को 1932 का खतियान लागू कर दे हेमन्त सरकार !

आप माने या न माने। सचमुच पांच सितम्बर का दिन झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ऐतिहासिक बनाने पर लगी है। सूत्र बता रहे है कि हेमन्त सरकार इस दिन कुछ धमाका करने की सोच रही है और विपक्षी भाजपा को एक ही वार से पस्त करने के फार्मूले पर विचार कर रही है, जिसके लिए उसे लग रहा है कि सबसे अच्छा मसाला 1932 का खतियान लागू करना ही है, क्योंकि इस मामले में वो भाजपा की महत्वपूर्ण सहयोगी आजसू को भी पटखनी देना चाहती है।

सूत्रों की मानें तो सब कुछ ठीक रहा तो उस दिन आरक्षण, स्थानीयता और 1932 के खतियान पर हेमन्त सरकार अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए बहुमत तो सिद्ध करेगी ही, पूरे राज्य में सदा के लिए अपनी पार्टी को और मजबूती दे देगी, लेकिन राजनीतिक पंडितों की मानें तो ऐसा फिलहाल संभव नहीं दिखता, लेकिन उनका ये भी कहना है कि क्रिकेट व राजनीति में कुछ भी कहा नहीं जा सकता, क्योंकि जब राजनीतिज्ञों को अपनी सत्ता जाने का भय का भूत सताता है।

तब ऐसे हालात में, देखते ही देखते वी पी सिंह जैसा व्यक्ति भी देवी लाल जैसे नेता को धूल चटाने के लिए हड़बडी में मंडल कमीशन को लागू करने में देरी नहीं दिखाता और स्वयं को पिछड़ों का मसीहा भी घोषित करवा लेता है। ठीक उसी प्रकार अपनी विधायिकी जाने और लगातार यूपीए के विधायकों का पाला बदलने का खतरा राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन से कुछ भी करवा सकता है, यही कारण है कि फिलहाल हड़बड़ी में बहुत कुछ निर्णय हो सकते है।

पुलिसकर्मियों को मिला वरदान व ओल्ड पेंशन स्कीम का लागू करना वो भी तब जब राज्य की आर्थिक स्थिति डांवाडोल है, सब कुछ कह देता है। फिलहाल पूरे देश की नजर हेमन्त सरकार द्वारा आनन-फानन में लिये जा रहे निर्णयों की ओर हैं तथा नजर उनकी भी हैं, जो हेमन्त सरकार को हटाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, ऐसे लोग दोनों तरफ हैं।

राजनीतिक पंडितों का तो मानना है कि इन सबके लिए भी अगर कोई जिम्मेवार है तो वे खुद राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन है, क्योंकि हेमन्त सोरेन की विधायिकी पर खतरा उत्पन्न करनेवाला पहला व्यक्ति कोई भाजपा के रघुवर दास नहीं, बल्कि झारखण्ड के एक आरटीआई कार्यकर्ता सह उच्च न्यायालय के अधिवक्ता सुनील कुमार महतो थे, जिन्होंने सबसे पहले हेमन्त सोरेन के विधायिकी पर अंगूलियां उठाई, और उसके बाद विधायिकी चली भी जाती हैं तो इसका श्रेय भले ही कोई दूसरा ले लें।

पर असली नाम तो सुनील कुमार महतो का ही होगा, जिन्होंने हेमन्त की विधायिकी को लेकर सबसे पहले राजभवन को पत्र लिखा। ये अलग बात है कि राजभवन ने उनके पत्र को वो तरजीह नहीं दिया, जो तरजीह भाजपा नेता रघुवर दास को मिल गई और कुछ चैनलों-पोर्टलों ने रघुवर दास को इसका श्रेय देने की कोशिश की।

अब चूंकि ज्यादा दिन नहीं हैं, आज तीन सितम्बर बीत गये, कल संभवतः रायपुर में कांग्रेस के अतिथि बने झारखण्ड विधानसभा से जुड़े यूपीए के विधायक रांची लौट आये और फिर पांच सितम्बर को वे झारखण्ड विधानसभा में अपनी सरकार के निर्णयों में हां में हां मिलाये, भाजपा को सबक सिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं, पर संभव यह भी है कि पांच सितम्बर को कुछ ऐसा भी हो जाये, जिसकी कल्पना हेमन्त सोरेन ने भी न की हो, अगर ऐसा होता हैं तो समझ लीजिये, क्या होगा? न भूतो-न भविष्यति। इसलिए जब तक पांच सितम्बर बीत न जाये, हम कुछ नहीं बोलेंगे, क्या समझे?