अपनी बात

बाल मंडली की दुर्गापूजा यानी दुर्गापाठ और मानसपाठ के माध्यम से अध्यात्म की ओर प्रथम प्रवेश

भाई वो हमलोगों का जमाना था, जब टमटम की जगह छोटी-छोटी टैक्सियां ले रही थी, बैलगाड़ियों की जगह करीब-करीब ट्रैक्टर और ट्रक ने ले लिए थे। खेतों से रेहट, लाठा-कुड़ी, नहरों से करींग एक तरह से गायब होने के कगार पर थे, और उनकी जगह पर पम्पिंग सेट ने ले लिये थे। उस वक्त न तो किसी के घर में टीवी था और न ही मोबाइल फोन, ले-देकर हमारे मुहल्ले में दो ही के घर में फोन थे, एक नन्दा साव और दूसरे राजेन्द्र प्रसाद के पास। किताबों में पढ़ा करते थे कि एक टेलीवीजन जैसा एक यंत्र होता है, जो दूर की चीजों को घर बैठे दिखा देता है।

दिल में बड़ी इच्छा थी, कि ऐसी चीजे हमलोग भी देखें, उस वक्त सभी के घर में रेडियो भी नहीं था, क्योंकि रेडियो के लिए भी लाइसेंस लेना पड़ता था, किसी-किसी के पास दो बैंड तो किसी के पास पांच बैंड का रेडियो हुआ करता था, लोगों को मीडियम वेभ से लेकर शार्ट वेभ के मीटरों पर रेडियो सेन्टर लगाने में पसीने छूट जाया करते थे, आज तो सब कुछ बदल चुका है, और उस समय के दौरान जब ढोल के आवाज कानों में पड़ते, तो हमलोग समझ जाते कि लो आ गया – दुर्गा पूजा।

स्कूल में पढ़ने जाते तो जल्द ही छुट्टी हो जाने की प्रार्थना करते, क्योंकि फिर ढोल बजानेवाले के पीछे चलने का अपना अलग ही आनन्द होता, ढोलवाला भी एक से एक ढोल के माध्यम से धुन निकालता, जिससे हम बच्चे शोर करते हुए, मजे लेते। इन्ही ढोलों पर शस्त्रों के सहारे, अपने मुहल्ले के वीरों के जत्थे, एक से एक करतब दिखाते, जिसे देख सभी रोमांचित हो जाते, आजकल तो इनका स्थान फूहड़ नाचों ने ले लिया है, जिसे अब कोई देखना भी पसन्द नहीं करता, उस समय जो युवक शस्त्रों के साथ करतब दिखाता, उसका सम्मान खूब होता और अगर बच्चे ने करतब दिखा दिये तो लीजिये, वो बच्चा सब के कंधों पर घुम रहा होता।

अब तो कही दुर्गा माता की जयकारा भी सुनाई नहीं पड़ता, पहले एक से एक जयकारे होते, दुर्गा माता और उनके परिवारों के लाने और पंडाल में स्थापित करने के जयकारे अलग और विसर्जन करने के समय के जयकारे अलग, पर सर्वाधिक जयकारे और उछल-उछलकर, मस्ती में जयकारे सिर्फ इसी से लगते, एक कहता और दूसरा उसका प्रत्युत्तर देता, जरा देखिये जयकारे – ‘ए हो, का हो, देवी जी की जय हो’ ‘जय-जय दुर्गे- जय-जय काली’ ‘एक-दो-तीन-चार, देवीजी की जय-जयकार’ ‘बोलो-बोलो, दुर्गा माई की जय’ ‘नरियल घाट दूर है, जाना जरुर है’ अब तो आधुनिकता के रंग में रंगे आधुनिक बच्चों को ये सब याद कहा और होगा भी कैसे आधुनिकता के चक्कर में, इनके आधुनिक माता-पिता ने बच्चों से उनका बचपन ही जो छीन लिया।

दुर्गा पूजा के समय में अपने मुहल्ले में भारत माता की प्रतिमा भी बड़े शान से बैठाई जाती और उनका विधिवत् पूजन भी होता। कई जगहों पर कई प्रकार की पूजा समितियां होती, जैसे युवाओं के लिए युवा समिति, प्रौढ़ों-वृद्धों के लिए विशेष पूजा समिति और बच्चों के लिए बाल मंडली तैयार रहती। छोटे-छोटे पंडालों में, छोटी-छोटी प्रतिमा के रुप में स्थापित दुर्गा व भारत माता की प्रतिमा बरबस लोगों की ध्यान खींचती, बच्चों के इस उत्कंठा और उमंग को मुहल्ले के लोग भी समर्थन करते।

हमें याद है कि इन्हीं बाल मंडलियों में हमने पूजा और अध्यात्म की ओर कदम बढ़ाया, यानी बच्चों द्वारा पंडाल का निर्माण, बच्चों द्वारा प्रतिमा का निर्माण और बच्चों के द्वारा पूजा और बच्चों के ही बच्चे पंडित, कमाल का दृश्य होता, सचमुच अब तो ये सिर्फ यादें ही शेष है।

उसी दौरान कुछ साल बीते, मैं सिपाही भगत मिडल स्कूल की छठी कक्षा में पढ़ रहा था, कि अपने बाबूजी ने सायं के समय, दुर्गापूजा के आने के पूर्व कहा था, कि योगेन्द्र बाबू नवरात्र के समय श्रीरामचरितमानस का पाठ कराना चाहते हैं, तुम्हें वहां सायं काल में श्रीरामचरितमानस का नवाह्ण परायण पाठ कराना है। यह वह समय था, जब पहली बार हमने श्रीरामचरितमानस का पाठ, पूरे नौ दिनों में पूरा किया। सचमुच ईश्वर ने मुझसे एक बेहतर काम, बचपन में ही करा लिया। उस वक्त योगेन्द्र बाबू के द्वारा मुझे पन्द्रह रुपये दक्षिणा के रुप में प्राप्त हुए थे। योगेन्द्र बाबू दरअसल अध्यात्मिक पुरुष थे, जिनकी अध्यात्मिकता में बड़ी रुचि थे, वे बराबर अपने घरों में धार्मिक कार्यों को संपन्न करते और सज्जनों का सम्मान करते। वे यादव कुल में जन्मे थे, पर ब्राह्मणों-संतों के प्रति उनकी निष्ठा देखते बनती थी, वे इस बात का ध्यान रखते कि उनके घर से कोई भी व्यक्ति बिना कुछ ग्रहण किये न जा पाये।

कालांतराल बीतता गया, मेरे और उनके बीच, कब अध्यात्मिकता रुपी प्रेम ने स्थान गहरा बना लिया, पता ही नहीं चला, एक बार किसी ने उनके पास जाकर कहा कि छोटे वाले पंडित जी का पाठ करने/कराने का ढंग अलग है, और इनके पिताजी का अलग है, कहीं ये गलत तो नहीं करा रहे, उनका कहना था कि बड़े वाले पंडित जी प्राचीनता को ग्रहण किये हैं, और ये पंडितजी युवा है और इनमें आधुनिकता का पुट है तथा इन्होंने धर्म और अध्यात्म को दूसरे नजरिये से देखा है, इसलिए कोई टीका-टिप्पणी करने से अच्छा है कि इनसे कुछ सीखा जाये। आज योगेन्द्र बाबू दुनिया में नहीं है, पर जब कभी अपने मुहल्ले को जाता हूं, तो योगेन्द्र बाबू का घर, वो स्थान जहां कभी मैं श्रीरामचरितमानस का पाठ शुरु किया, बरबस अपनी ओर खींचता है।

सचमुच दुर्गा पूजा का जो मजा पूर्व में मैंने बचपन और किशोरावस्था में प्राप्त किया, जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, वो आनन्द काफूर होता गया, पर बचपन और किशोरावस्था की यादें आज भी हमें उस अवस्था में ले जाती है, और परमानन्द का एहसास करा देती है। हमनें सबसे पहला श्रीरामचरितमानस का पाठ और दुर्गापाठ का शुभारम्भ, योगेन्द्र बाबू के घर से ही प्रारम्भ किया, आज तो हाल यह है कि ऐसा कोई भी दिन नहीं होता, जिस दिन हमने दुर्गापाठ किया न हो। बिना दुर्गा पाठ किये तो हम अन्न-जल तक ग्रहण नहीं करते, यहीं हाल हमारे दोनों बच्चों का है, हमने महसूस किया है कि अगर कोई भी व्यक्ति प्रतिदिन दुर्गा पाठ करता है, तो उसे कभी दिक्कत हो ही नहीं सकती, उसे परम आनन्द की प्राप्ति होती है, बशर्ते वह व्यक्ति नियमानुसार उक्त दुर्गापाठ का वाचन करता रहे।

बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था के बाद प्रौढ़ावस्था की ओर कदम बढ़ा चुका, मेरा मन और मेरी आत्मा ने स्पष्ट हमें संदेश दिया कि मां भव्य पंडालों में नहीं रहती, बाह्याडंबरों-कर्मकांडों, पाखंड में नहीं रहती, वो तो सरल, सहज, सहृदय भाव रखनेवाले प्रत्येक जीवात्मा में वास करती हैं, उन्हें हर कोई देख सकता है, हर कोई महसूस कर सकता हैं, बस वो अपने हृदय के द्वार को छल-प्रपंचों से दूर कर लें, लेकिन ऐसा लाखों-करोड़ों में से किसी एक के मन में ही ये भाव जन्म लेता है, और जिसके मन में ये भाव जन्म ले लिया, तो लीजिये उसके जीवन धारण करने का मकसद ही पूरा हो जाता है और नहीं तो वह हर जन्म में चंदा काटता, भव्य पंडालों का निर्माण करता/कराता, मूर्तियों में मां को ढूंढता रहता है पर उसे मां के दर्शन तो दूर, उनके चिह्न भी दिखाई नहीं पड़ते।