भले ही भाजपा ने गुजरात जीते हो, पर इस जीत में भी मोदी की हार छिपी हुई है

हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी शानदार जीत हासिल की हैं। जीत तो गुजरात में भी हुई हैं, पर वह इस जीत पर इतराने की स्थिति में नहीं हैं। यह जीत, उसे हार की शक्ल में मिली है। यह कैसी जीत हैं? जिस जीत में संघ और उसका पुरा कुनबा, भाजपा और उससे जुड़ा पुरा कुनबा लगा हुआ हैं, और इधर अकेले राहुल गांधी, जिसे लोग पप्पू कहते नहीं अघाते थे, आज उनके पसीने निकाल दिये हैं। आप कह नहीं सकते कि गुजरात में भाजपा जीती हैं, पर जो राजनीतिक पंडित हैं, वे ये कहते नहीं थकेंगे, भाजपा को जीताने में कपिल सिब्बल और मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं का बहुत बड़ा हाथ हैं, जिन्होंने ऐन मौके पर ऐसी बातें कह दी, जो गुजरातियों के स्वाभिमान को चोट पहुंचा गया और लीजिये भाजपा नेताओं को एक मौका मिल गया।

उन्होंने ‘नीच’ शब्द को ऐसा भुनाया कि भाजपा के सर पर जीत का सेहरा बंधना ही था।  जो गुजरात के चुनाव परिणाम आये हैं, वो अप्रत्याशित हैं। खुद भाजपा को इस जीत का भरोसा नहीं था, उनके लोग मान चुके थे, कि इस बार गुजरात उनके हाथ से निकल चुका हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की सभा में भी उतनी उत्साह और जोश दिखाई नहीं दे रहा था, जितना कि राहुल गांधी की सभा में। कई पत्रकार भी गुजरात के चुनाव परिणाम देखकर अचंभित है, पर चुनाव परिणाम तो भाजपा के ही पक्ष में है। भारत के किसी भी राज्य में, चाहे चुनाव के प्रकार कुछ भी हो, कभी भी विकास को लेकर चुनाव नहीं हुए, जब भी चुनाव हुए तो वह जाति व भावनाओं में हुए हैं।

एक दो बार को छोड़ दें तो यहां हर चुनाव में जातिवाद हावी रहा है। 1977 में जनता लहर, 1985 में इंदिरा सहानुभूति लहर और 2014 में मोदी लहर को हटा दिया जाय तो यहां हमेशा से जातिवाद हरदम हावी रहा। अफसोस व दुर्भाग्य इस बात की है, जिस पार्टी में राष्ट्रवाद ही हावी रहा, उस पार्टी ने भी जातिवाद का खुलकर सहारा लिया और उनके नेता जातिवाद का परचम लहरा रहे हैं, भाजपा तो जातिवाद फैलाने में सारे पार्टियों से आगे निकल गई हैं। उसका उदाहरण हैं झारखण्ड। जहां का मुख्यमंत्री जातिवाद का ऐसा विष बोने की परंपरा शुरु की है, जिससे पूरा झारखण्ड जातिवाद की आग में झूलस रहा हैं।

आश्चर्य इस बात की है कि यहां का मुख्यमंत्री उस वर्ष जातीय सम्मेलन में भाग ले रहा था, जब पं. दीन दयाल उपाध्याय की जन्मशती मनायी जा रही थी। वे पं. दीन दयाल उपाध्याय जिन्होंने जातिवाद की कड़ी आलोचना ही नहीं की, बल्कि जातिवाद के नाम पर चुनाव लड़ने से ही इनकार किया था। दृष्टांत सामने है –

1963 में लोकसभा के 4 सीटों पर उपचुनाव हुए। फरुखाबाद, जौनपुर, राजकोट और अमरोहा। विपक्षी गठबंधन के तहत इन जगहों से क्रमशः लोहिया, पं. दीनदयाल जी, मीनू मसानी और आचार्य कृपलानी खड़े किये गये। जौनपुर में कांग्रेस जातीय कार्ड खेलकर अपने राजपूत उम्मीदवार की स्थिति मजबूत करने में लग गयी। वहां ब्राह्मण भी बड़ी संख्या में हैं। जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने पंडित जी के पास प्रस्ताव रखा कि यदि हमने भी जातीय कार्ड नहीं खेला तो हम को कांग्रेस जीतने नहीं देगी। दीन दयाल जी ने जातिवाद कार्ड खेलने से साफ इनकार कर दिया, उन्होंने उस दौरान साफ कहा था कि भले मैं ऐसा कर जीत जाऊं पर ऐसी जीत प्राप्त करने से, मैं चुनाव मैदान से बाहर चला जाना मंजूर करुंगा, पर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करुंगा। ऐसी प्रतिबद्धता थी पं दीन दयाल उपाध्याय में, ऐसे थे उच्च कोटि के विचारक, चिन्तक, उस वक्त के जनसंघ में। आज जो स्वयं को लोग भाजपा का नेता कहते, कार्यकर्ता कहते नहीं अघाते, जरा बताये कि ऐसी प्रतिबद्धता कितने लोगों में हैं, अगर नहीं, तो फिर किसे बेवकूफ बनाने की कोशिश हो रही हैं?

गुजरात की जीत, न तो भाजपा की जीत है और न ही मोदी की जीत है। यह जीत है गुजरातियों के स्वाभिमान की। गुजरात के स्वाभिमान के प्रतीक बन चुके हैं, नरेन्द्र मोदी। गुजरातियों को लगता है कि अगर यहां से भाजपा हारी तो पूरे देश ही नहीं, विश्व में यह संदेश जायेगा कि गुजरातियों ने नरेन्द्र मोदी की अपना मानने से इनकार कर दिया, तो हम क्यों, मोदी-मोदी चिल्ला रहे हैं। इससे पूरे देश ही नहीं, बल्कि विश्व में गुजरातियों का स्वाभिमान प्रभावित होगा और इस गुजराती स्वाभिमान को जगाने में आग में घी डालने का काम, मणिशंकर अय्यर के बयान ने कर दिया और फिर शुरु हुआ गुजरात में कमल खिलाने का काम।

सारे मुददे जैसे जीएसटी, नोटबंदी, किसानों की आत्महत्या, शिक्षा, कुपोषण, गरीबी, विकास, आर्थिक नुकसान सभी ठंडे बस्ते में चल गये और गाली-गलौज की नई परंपरा, जातिवादी राजनीति का वीभत्स चेहरा सबके सामने खड़ा हुआ और जिसने इसकी अच्छी मार्केंटिग की, वह बाजी मार ले गया, इसमें आश्चर्य कुछ नहीं, पर यहां अगर कोई हारा तो वह था, पं. दीन दयाल उपाध्याय का आदर्श।

भाजपा के लोग सोचे कि क्या आप अपने मार्ग से नहीं भटक रहें?  क्या आप और आपके लोग वह नही कर रहे जो अन्य दल के लोग कर रहे हैं?  मैं कहता हूं कि इस गलतफहमी में मत पड़िये कि 2019 के लोकसभा चुनाव में या झारखण्ड के विधानसभा चुनाव में ऐसी ही स्थिति रहेगी। उस वक्त भारत के कई नदियों में पानी बहुत बह चुका होगा, संभलिये और खुद को संभालिये, गुजरात की जनता ने आपको जरुर जीताया है, पर उन्हें मालूम हैं इस जीत का दर्द। उन्हें पता है कि कैसे उन्होंने अपने छाती पर पत्थर रखकर कमल का बटन दबाया है, पर क्या भाजपा और नरेन्द्र मोदी तथा उनके छुटभैये नेता, उस दर्द को समझ पायेंगे, हमें तो नहीं लगता और न कहीं दूर-दूर तक ऐसा दिखाई देता हैं। जिस नेता को पूरे देश का राष्ट्रीय स्वाभिमान बनना चाहिए अगर वह सिर्फ एक प्रांत का स्वाभिमान बन रहा हैं, तो वह खुद ही बता दें कि वह जीता हैं या हारा है।

One thought on “भले ही भाजपा ने गुजरात जीते हो, पर इस जीत में भी मोदी की हार छिपी हुई है

  • December 18, 2017 at 12:48 pm
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    सत्य कहा आपने..इस जीत की दर्द गुजरात की जनता ने छाती पर पत्थर..रख कर सहा है…;
    और इस जीत का श्रेय राष्ट्र स्वाभिमान से संकल्पित उन दुआओं की भी है..जो मोदी जी को बिकल्पहीनता के कारन मिलती रही है..।।
    राहुल को बधाई..01 vs india कठिन मुकाबला है।

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