अपनी बात

आखिर भाजपा विरोधी गोलबंदी की हवा कौन निकाल रहा है? कांग्रेस, JVM, JMM या वामपंथी पार्टियां

कुछ दिन पहले तक ऐसा प्रतीत हो रहा था कि झारखण्ड में भाजपा सरकार के खिलाफ जो नाराजगी है, कहीं लोकसभा चुनाव में उन्हें खाता खोलने में भी न मुश्किल हो जाये। विपक्षी पार्टियों की लामबंदी जिसमे कांग्रेस से वामपंथी सभी एक साथ दिख रहे थे, महागठबंधन का यह स्वरूप भाजपा विरोधी जमात की बड़ी एकता दिखाई पड़ती थी। भाजपा के लिए इस महागठबंधन की एका को भेदना मुश्किल था।

लेकिन समय बीतने के साथ चीजें बदलते जा रही है। पहले तो विपक्ष के चार दलों ने जो सीटों की घोषणा की उसे बाबुलाल मरांडी का गोड्डा को लेकर अड़ने से महागठबंधन की एका कमजोर हुई। ऊपर से वामदलों को संसद का सीट नहीं मिलने से वामपंथी दल अलग मोर्चेबंदी करने लगे। इस दो मोर्चे पर विभाजित दिख रहे विपक्ष ने महागठबंधन में बड़ी गाठ पैदा कर दी, जबकि भाजपा अपनी चाल से विपक्ष के खिलाफ अपनी लामवंदी मजबूत करते गई।

आजसू और भाजपा की एकता से कमसे कम 4 संसदीय क्षेत्र जंहा आजसू की स्थिति ठीकठाक है, विपक्ष के खिलाफ मजबूत किलेबंदी कर ली। इस श्रेणी में रांची, हजारीबाग, गिरिडीह और जमशेदपुर संसदीय सीटें है। भाजपा विरोधी शक्तियों की इन चारो क्षेत्रों में मजबूत एकता नहीं बनी, तो भाजपा-आजसू की सम्मिलित ताकत को भेदना विपक्ष के लिए मुश्किल हो जायेगा।

होलिकादहन के मौके पर भाजपा ने बाबूलाल मरांडी के किले में पलीता लगा दिया। महागठबंधन की सीटों की कांग्रेस की दिल्ली दरवार की सहमति से शुरूआती दौर में चर्चा बनी थी कि जेवीएम को दो सीटें मिली है, जिसमे कोडरमा के अलावे एक पलामू या चतरा हो सकता है। जिसमे चर्चा बनी थी कि पलामू मिलने से प्रभात भुइया महागठबंधन के प्रत्याशी बनेंगे और चतरा मिलने से नीलम देवी।

इत्तेफाक देखिये गोड्डा को लेकर प्रदीप यादव की हठ से खूंटा गाड़ने वाले बाबूलाल मरांडी गोड्डा की सीट तो ले लिए पर पलामू और चतरा के दोनों कद्दावर नेताओं को भाजपा में जाने से नहीं रोक सके। ये दोनों नेता ऐसे हैं जो बाबूलाल की प्राथमिकता से भले ही बाहर कर दिए गए हों पर भाजपा के लिए जबरदस्त आशा का सृजन करवा दिये। प्रभात भुइंया बाबूलाल के शुरूआती दिनों से साथ रहने के साथ ही पलामू के भुइया समाज के कद्दावर नेताओं में रहे हैं। एक जाति के रूप में भुइंया समाज पलामू क्षेत्र में सबसे ज्यादा संख्या में हैं।

इसी समुदाय की वजह से प्रभात भुइया जब भी चुनाव लड़े अपने बदौलत लड़ाई के मुख्य केंद्र में बने रहे। इस तरह के नेता को भाजपा अगर पलामू से प्रत्याशी बना दी तो इस क्षेत्र में महागठबंधन का सफ़र मुश्किल हो जायेगा। यही बात नीलम देवी के बारे में भी कहा जा सकता है। महागठबंधन के संभावित नेताओं की तुलना में नीलम देवी स्थानीय होने की वजह से और पिछले चुनाव में थोड़े से वोट से तीसरे पायदान पर रहने की वजह से खुद यादव समाज के लिए पहली पसंद हो सकती हैं।

यादव समाज के बड़े हिस्से का समर्थन की स्थिति में महागठबंधन को इस क्षेत्र से भाजपा को रोकना काफी कठिन बन जायेगा। बाबूलाल मरांडी गोड्डा सीट तो प्रदीप यादव के लिए हासिल कर लिए पर पलामू और चतरा क्षेत्र अगर भाजपा के हाथ में गया तो इसकी पूरी जिम्मेबारी बाबूलाल मरांडी की ही होगी। इन दोनों क्षेत्रों में भाजपा के पक्ष में भुइंया और यादव समाज को झुक जाने की सम्भावना अगर सफल हो गई तो महागठबंधन के हाथ से दोनों क्षेत्र निकल जाएगा।

बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम के बारे में कहा जाता है कि हर चुनाव के पहले और चुनाव के बाद इनके नेताओं का भाजपा कैम्प में जाने का रेला लग जाता है। इस बार भी २०१५ के विधान सभा चुनाव के पूर्व की तरह यह रेला लग गया है। कुछ दिन पहले भी इनके कोडरमा संसदीय क्षेत्र से प्रत्यासी रहे प्रणव वर्मा भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। जैसी चर्चा है कि भाजपा के कोडरमा के संभावित प्रत्याशी भी वर्मा हैं, अगर वर्मा कोडरमा से प्रत्याशी बने तो इस क्षेत्र में भाजपा को कोइरी समाज का बड़ा समर्थन तो हासिल होगा ही झारखण्ड के अन्य क्षेत्रों में भी इस समाज का असर पड़ सकता है क्योंकि महागठबंधन के खाते में भी इस जाति से कोई उम्मीदवार नहीं हैं।

बाबूलाल खुद अपने उम्मीदवार बनने के चक्कर में प्रणव वर्मा को भी खुद से अलग कर लिए. गोड्डा क्षेत्र पर बाबूलाल मरांडी को खूंटा गाड़ने की वजह से मरांडी के सबसे विश्वसनीय नेता प्रदीप यादव को सीट तो मिल जा रही है पर महागठबंधन को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। यह कीमत सिर्फ पलामू और चतरा नहीं है बल्कि कई सामाजिक हिस्से नए रूप से भाजपा के लिए सुलभ बना दिए जा रहे हैं और खासकर मुस्लिम समुदाय गोड्डा में प्रदीप यादव को दिए जाने की सम्भावना की वजह से काफी नाराज है।

गोड्डा मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधित्व के लिए सबसे उपयुक्त सीट था जिसे छिनने का सेहरा भी जेवीएम नेताओं के मत्थे ही चढ़ रहा। इस समुदाय की नाराजगी पूरे झारखण्ड में महागठबंधन को प्रभावित करेगा, उत्साहजनक तरीके से इस समुदाय का महागठबंधन के पक्ष में ध्रुवीकरण नहीं हो पायेगा। इस समुदाय में उपजे रोष का प्रतिफल सामानांतर रूप से कुछ उम्मीदवारों के खड़ा होने के रूप में भी हो सकता है, जो महागठबंधन के लिए कदापि लाभप्रद नहीं होगा.

महागठबंधन के लिए बाबूलाल मरांडी और उनकी पार्टी जेवीएम कितना उपयोगी साबित होंगे, यह तो समय बताएगा पर उनकी आयाराम-गयाराम वाली टीम भाजपा को कई सीटों पर तात्कालिक बढ़त के लिए काफी फलदाई साबित हो रही है, और गोड्डा के प्रति इनका हठ से तो कई नुकसान दिखाई पड़ रहे  हैं। सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि भाजपा विरोध की यह कैसी पार्टी व कैसे नेता हैं जिसके नेता भाजपा के लिए प्रत्याशी बनने के लिहाज से और जीत जाने पर सरकार बनाने के लिए सबसे उपयोगी साबित हो रहे हैं।

क्या इस सिलसिला पर बाबूलाल मरांडी रोक लगाने की स्थिति में हैं? अभी तक का व्यवहार इसका नकारात्मक उत्तर देता है।  झारखण्ड की राजनीति में झामुमो तो लोकसभा सीटों के सन्दर्भ में अपने सहयोगियों के प्रति उदार है, पर कांग्रेस और जेवीएम अपने हित के मामले में  अत्यधिक आसक्ति ने वामदलों को भी महागठबंधन से अलग कर दिया है। इसबार का लोकसभा चुनाव को सभी विपक्षी पार्टियाँ काफी अहम् मानती है, भाजपा को अलगाव में डालने के लिए कुछ भी कुर्वान करने को तैयार बताती है लेकिन सभी भाजपा विरोधी दलों को साथ लेने के मामले में अपने हित से बाहर नहीं निकलती।

कुल मिलाकर महागठबंधन के प्रमुख साझीदार अपनी करनी से भाजपा के लिए मैदान सुलभ बनाते जा रहा है। भाजपा की मजबूत किलेबंदी को विपक्ष के द्वारा भेदने के लिए एक-एक वोट को जोड़ने की जरुरत है, भाजपा विरोधी तमाम पार्टियों को साथ लेकर किलेबंदी मजबूत करने की जरुरत है। समय रहते विपक्षी पार्टियां अगर नहीं चेती तो भाजपा को रोकने में शायद ही सफल हो पायेगी।