अपनी बात

देखियेगा, दिवाली में मिट्टी के दिये का रट लगानेवाले लोग ही सर्वाधिक चाइनीज लाइट का उपयोग करेंगे

इन दिनों, हमेशा की तरह, फेसबुक, व्हाट्सएप ग्रुप, अखबारों एवं चैनलों, विभिन्न पोर्टलों, नेताओं के जुबानों, आइएएस एवं आइपीएस की पत्नियों द्वारा लगनेवाले मेलों में एक ही बात की खुब चर्चा है, मिट्टी के दिये जलाइये, इस बार दिवाली सिर्फ और सिर्फ मिट्टी के दियों से, गरीबों द्वारा लगाये जानेवालों खोमचों एवं ठेलों, फुटपाथों पर लगनेवाले दुकानों पर बिकनेवाले इन मिट्टी के दियों से दिवाली मनाइये ताकि उनके घर भी, दिवाली की रौनक, दिवाली की धूम, दिवाली को खुशी के माहौल में मनाई जा सकें, ताकि उनके बच्चे/परिवार भी इन खुशियों के पर्व पर आनन्द को प्राप्त कर सकें।

हमें समझ नहीं आ रहा कि अचानक इनके मन में गरीबों/लाचारों के प्रति इतना प्यार कैसे जग गया? कुम्हारों की गरीबी का ऐहसास कैसे होने लगा? ये ऐहसास सिर्फ और सिर्फ दिवाली में ही आजकल क्यों जगने लगा है? दिवाली के बाद इनका ये ऐहसास किस बिल में घुस जाता है, हमें समझ नहीं आ रहा।

आश्चर्य की बात यह है कि ये वो लोग हैं, जो केन्द्र सरकार व राज्य सरकार द्वारा गरीबों के लिए बनाई गई योजनाओं को कमीशन और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा देते हैं, ये वे लोग है, जो सरकार में घुसकर, विभिन्न विभागों में घुसकर, इन गरीबों की योजनाओं पर कुंडली मारकर बैठ जाते हैं, और इनके सारे पैसे अपने परिवारों पर लूटा देते हैं, आपको इस पर ज्यादा दिमाग लगाने की जरुरत नहीं हैं, बस आप किसी भी विभाग में चक्कर काट आइये, पता लग जायेगा।

झारखण्ड में तो ऐसे-ऐसे अधिकारी है, जो अपनी बीवी, ससुर और ससुराल के अलावे कुछ देखते ही नहीं, और ऐसे लोग हर जगह छाये हुए हैं, और वर्तमान सरकार के सारी योजनाओं को अपने चाहनेवालों के नाम स्थानान्तरित कर दिये हैं, अब सवाल उठता है कि इन्हें सही मायनों में दिवाली को लेकर गरीबों के प्रति दर्द उठा है तो ये गरीबों और लाचारों के लिए बनी योजनाओं को अक्षरशः जमीन पर क्यों नहीं उतार देते, क्योंकि जब ये  योजनाएं जमीन पर उतरेगी तो फिर इस राज्य में गरीबों और लाचारों के लिए ये सब ढोंग करने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।

सच्चाई तो यह है कि इस रघुवर सरकार में एक जहांगीरी घंटी है, जिसका नंबर हैं 181, जिसमें महीने में एक दिन आकर यहां के मुख्यमंत्री, ईमानदारी और पारदर्शिता का ढोंग करते हैं, जबकि सर्वाधिक भ्रष्टाचार और अनैतिकता इसी में भरा-पड़ा है, आश्चर्य तो यह है कि इस राज्य में पहले मुख्यमंत्री के रुप में रघुवर दास हुए, जिनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।

इनकी सबसे बड़ी विशेषता हैं कि जो अधिकारी सच बोलता है, ये उसको बाहर का रास्ता दिखाते हैं और जो इनकी आरती उतारता हैं, उसे सेवा विस्तार, उसको सम्मान, उसे अवकाश प्राप्त करने के बाद भी सुविधा मुहैया कराते हैं, ताकि जब तक शासन रहे, वह व्यक्ति उनके शासन का परम आनन्द लेते रहे। स्थिति यह है कि जैसे कोई दिवाली में दूसरों के पैसों से पटाखे फोड़ता हैं, दूसरे के पैसे से अपने घर में गणेश और लक्ष्मी की पूजा करता है और फिर गरीबों-लाचारों के पेट पर लात मारकर, उन्हें अंग्रेजी के बोल हैप्पी दिवाली का रट लगाता है। वहीं हाल यहां सर्वत्र दिखाई पड़ रहा हैं।

कल की ही बात है, मैं दिये और बाती लेने के लिए बाजार निकला। दिये के दुकान में पहुंचकर जब दिये लेने के दौरान, दिये बेच रहे विक्रेता से पूछा कि क्यों भाई, आजकल तो आपके दिये खुब बिक रहे होंगे, क्योंकि इधर तो मिट्टी के दिये के खुब प्रचार हो रहे हैं, तव उस विक्रेता ने कहा कि ये जो अमीरों की जो चोचलेबाजी है न, वह चोंचलेबाजी वे अपने पास ही रखे तो बेहतर हैं, क्या हमलोग भिखमंगे है कि वे हम पर दया लूटा रहे हैं, क्या किसी कुम्हार ने उनके पास जाकर दया की भीख मांगी है? ये सब ड्रामा क्यों भाई? क्या साल में एक बार दिये की बिक्री हो जायेगी तो हमारी गरीबी दूर हो जायेगी और बाकी साल के ग्यारह महीने क्या करेंगे? दरअसल इस सरकार और इनके अधिकारियों ने हमारे सम्मान को ऐसा करके, हमारे सम्मान को, बाजार में नीलाम करने की कोशिश की है।

वह विक्रेता बोलता है कि दिवाली में अब ज्यादा दिन नहीं है, ये जो चिल्ला रहे है न, दिवाली में मिट्टी के दिये जलाइये। याद रखियेगा, यहीं लोग सर्वाधिक चाइनीज लाइट का उपयोग करेंगे, जाकर देखियेगा मुख्यमंत्री आवास में और इनके मंत्रियों के आवास में, आइएएस और आइपीएस के घरों में, कि ये कितने मिट्टी के दिये जला रहे हैं और ये कितने चाइनीज लाइट्स लगाकर, चीन की आर्थिक शक्ति को और मजबूत कर रहे हैं।

उस विक्रेता ने कहा कि दरअसल हमारे यहां लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम हैं ही नहीं, हर जगह बाजार हो गया तो बाबू बाजार में तो सिर्फ तोल-मोल होता है, प्यार कहां मिलेगा, मानवीय मूल्य कहां मिलेगा, दर्द को समझनेवाला कहां से मिलेगा? दर्द समझनेवाले लोग पहले हुआ करते थे, पहले किसी के घर में शादी होती थी, तो उसके घर में पानी पिलानी हो या चाय पिलानी हो, कुम्हार के घर सें चुक्कर जाता था, आलू दम चलाने के लिए मिट्टी की प्याली अलग और दही चलाने के लिए मिट्टी की प्याली अलग जाया करती थी। गर्मी के दिनों में अतिथियों को ठंडे पानी पिलाने के लिए मिट्टी के मटके जाया करते थे।

घर में छप्पड़ के लिए खपरैल बनाने का काम हम किया करते थे, अब हर चीज का विकल्प हो गया तो लोग विकल्प अपना रहे हैं, इसमें गलत क्या है? हम भी इसे गलत नहीं मानते। जिसको जो मन कर रहा हैं करें, हमें भी लगेगा कि ये करना चाहिए तो करेंगे, नहीं तो दूसरा विकल्प लेंगे, हमारे लिए कोई क्यो रोएं भाई, ये तो बर्दाश्त से बाहर है। जिनके घरों में गरीबों के घर के बच्चे जूठन मांजते हैं, जिनके घरों में गरीबों के बच्चों का शोषण होता हो, उनके तो पैसे हमारे लिए हराम है।

वो विक्रेता तो साफ कहता है कि एक समय था लोग बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी से चलते थे, आज लोग स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार, बस से चलते हैं, समय बदलता है, हर चीज बदलती है, अब कोई ये कहें कि आइये बैलगाड़ी पर चले, घोड़ागाड़ी पर चलें तो जरा बताओ, कि कौन ऐसा आइएएस/आइपीएस या नेता या हमारे राज्य का मुख्यमंत्री हैं, जो बैलगाड़ी पर अपने ससुराल के लोगों को लेकर रांची का चक्कर लगायेगा?

मैं तो साफ कहूं कि ये मिट्टी के दिये का चक्कर छोड़े, और अपना-अपना काम लोग देखे, भाषण देनेवाले और योजनाओं को जमीन पर उतारनेवाले, हमें हमारे हाल पर छोड़ दें, हम जैसे है, ठीक है। उन सब से बेहतर हैं, क्योंकि हम किसी की पेट पर लात नहीं मारते और न किसी की मुंह से छीनी रोटी को गड़प कर जाते हैं, हम तो अपनी मेहनत की खाते हैं, मेहनत को जीते हैं, दिये बिक गये तो ठीक, नहीं बिके तो भी ठीक, जैसे ईश्वर रखना चाहेंगे, वैसे रहेंगे, दिवाली मनायेंगे, उनसे बेहतर मनायेंगे, जो गरीबों के खून चुसकर महल खड़े किये हैं।