अपनी बात

झारखण्ड में महागठबंधन की बल्ले-बल्ले, हर सीट पर NDA को करारी मात देने को तैयार कार्यकर्ता

धीरे-धीरे झारखण्ड में भी चुनावी दंगल का शोर अपने चरम पर जाने को बेकरार है। एनडीए और महागठबंधन के कार्यकर्ता पूरे झारखण्ड में आमने-सामने आ गये हैं। दोनों एक दूसरे को सबक सिखाने को आतूर है। ज्यादातर स्थानों पर महागठबंधन इतना मजबूत हैं कि उसके आस-पास एनडीए दिखाई नहीं पड़ रहा।

एनडीए कार्यकर्ता भी समझ चुके हैं, कि इस बार महागठबंधन के उम्मीदवारों को हरा पाना संभव नहीं। वे बड़े ही दबी जुबान से कहते हैं कि पहले वोट बंटता था, तो जीतते थे, अब तो वोट बंटने का सवाल ही नहीं, ऐसे में पिछड़ों, अल्पसंख्यकों व आदिवासियों का एकतरफा वोट गिरना, भाजपा और उसके गठबंधन के लिए खतरे की घंटी है।

कुछ सीटों पर तो परिणाम पहले से ही क्लियर है, जैसे धनबाद में जहां भाजपा मजबूत हैं, वहीं गिरिडीह, दुमका, जमशेदपुर और राजमहल में झामुमो पहले ही झंडा बुलंद कर चुका है, रांची में सुबोध कांत सहाय तो पलामू में घूरन राम ने अच्छी बढ़त बना ली है। चाईबासा में गीता कोड़ा तो लोहरदगा में सुखदेव भगत और गोड्डा में प्रदीप यादव की बल्ले-बल्ले है।

हजारीबाग में जयन्त सिन्हा के लिए तो कब की खतरे की घंटी बज चुकी है, जबकि कोडरमा में बाबू लाल मरांडी और भाकपा माले के बीच सीधी टक्कर है, यानी अगर यहां से कोई भी जीतेगा तो महागठबंधन के ही काम आयेगा, न कि भाजपा का। चतरा में तो भाजपा कही लड़ाई में नहीं दिख रही, क्योंकि यहां कार्यकर्ताओं और जनता ने भाजपा प्रत्याशी से इतनी दूरी बना ली है, कि इनका जमानत भी बचेगा, ये कह पाना मुश्किल है।

राजनीतिक पंडितों की मानें, तो वे साफ कहते है कि जब भी सत्ता पक्ष के खिलाफ विपक्ष मजबूत हुआ है, तो सत्तापक्ष को हार का सामना करना पड़ा है, वर्तमान में महागठबंधन के लिए जीत का मूल कारण यहीं है, राजनीतिक पंडित साफ कहते है कि पूर्व मे जितने भी विधानसभा के उपचुनाव हुए, उसमें विपक्ष को मिली जीत का मूल कारण भी यहीं था, नहीं तो वोट बंटते और भाजपा गठबंधन जीत का जश्न मनाती।

राजनीतिक पंडित तो साफ कहते है कि जो कुर्मी के नेता सुदेश महतो, खुद को समझते थे, अब वे पूरी तरह से साफ हो चुके है, क्योंकि लगातार सत्ता को सपोर्ट करते रहने तथा आक्रामक राजनीति को पूरी तरह भूला देने तथा हमेशा सत्ता समर्थित राजनीति को प्रश्रय देने से  इनकी रही-सही छवि जनता के बीच धूमिल हो गई, इसलिए गिरिडीह में एक सीट पर लड़ने के बावजूद उनकी सफलता मिलनी संदिग्ध है, और जहां झामुमो को जगरनाथ महतो की जीत तय मानी जा रही है।

राजनीतिक पंडितों का यह भी कहना है कि एनडीए में शुरु हुई जाति की राजनीति ने भी भाजपा का बेड़ा गर्क कर दिया है। यहां भूपेन्द्र यादव, रघुवर दास तथा सौदान सिंह की तिकड़ी ने जितना नुकसान भाजपा का किया, आज तक किसी ने नहीं की, इन्होंने अपनी सुविधा की राजनीति करने के लिए भाजपा को भी दांव पर लगा दिया, ये भी नहीं जानने की कोशिश की कि राज्य की जनता और भाजपा कार्यकर्ता पार्टी से इतने खफा क्यों है?

रही-सही कसर भाजपा के छुटभैये नेताओं ने निकाल दी है, जिनके भय से राज्य की जनता भाजपा से पूरी तरह छिटक गई, अगर यहीं हाल रहा तो विधानसभा में भाजपा डबल डिजिट में दिखेंगी, इसकी भी संभावना कम है। राज्य में बिजली का खस्ताहाल, सरकार द्वारा हाथी उड़ाने की नई परम्परा विकसित करना, पेयजल संकट तथा नदियों व तालाबों को सौंदर्यीकरण के नाम पर पूरी तरह नष्ट कर देने की शुरुआत से भी लोग भाजपा से अलग होते जा रहे हैं।

राज्य में बढ़ता भ्रष्टाचार और कनफूंकवों की मनमानी से जो भी लोकप्रियता भाजपा की जनता के बीच थी, वह पूरी तरह से समाप्त हो गई, ले-देकर नरेन्द्र मोदी को आप आगे रखकर कितनी बार वोट मांगेंगे, सवाल यहीं है, आम जनता तो साफ कहती है कि पाकिस्तान-पाकिस्तान चिल्लाने से क्या होगा? सबसे पहले हमे बिजली, पानी और अच्छी सड़कें तो दो, हमारे बच्चों के स्कूल पर ताले लगवा दिये और शराब की दुकानों को स्कूलों की तरह खोलवा कर पूरे राज्य की जनता को बर्बाद करने का प्रण कर लिया।

ऐसे में लोग भाजपा को वोट क्यों दें, इससे अच्छा रहेगा, कि इस बार महागठबंधन ही सही। कुल मिलाकर देखें, तो स्थिति यह है कि जैसे-जैसे मतदान का समय नजदीक आ रहा, भाजपा का पसीना बहता जा रहा है, और महागठबंधन इधर आश्वस्त है कि जनता उनके साथ अब आ चुकी है, यानी अभी नहीं तो कभी नहीं, “महागठबंधन की बल्ले-बल्ले, भाजपा की नैया खाये हिचकोले।”