अपनी बात

सिस्टम पर अंगुलियां उठानेवालों, तुम्हारी आत्मा को क्या हो गया, तुम्हारी आत्मा की मौत क्यों हो गई?

पूरा देश कोरोना से पीड़ित है। रोज कहीं न कहीं से मौत की खबर आ रही हैं। कहीं-कहीं तो एक ही परिवार से कई सदस्य खत्म होते जा रहे हैं, पर इस भयंकर त्रासदी में भी कुछ ऐसे लोग हैं, ऐसे अखबार है, जो इस आपदा में भी अवसर ढूंढ ही लेते हैं, कमाने का जरिया निकाल ही लेते हैं। ये वे लोग हैं, जो प्रतिदिन सरकार और सिस्टम पर अंगुलियां उठाते हैं, लेकिन अपना दीदा नहीं देखते।

जरा देखिये, रांची से प्रकाशित होनेवाली दैनिक भास्कर व इंदौर से निकलनेवाले इसके संस्करण में किस प्रकार कोरोना के कारण हो रही मौत के ताडंव पर कैसे जश्न मनाने की तरकीब ढूंढ निकाली है। इस विज्ञापन को जरा गौर से देखिये, क्या लिखता है…

“इस कठिन वक्त में हम आपके साथ हैं, दैनिक भास्कर में शोक संदेश व श्रद्धांजलि अब घर बैठे एक क्लिक या कॉल पर बुक करें, विजिट भास्करएड डॉट कॉम, कॉल 9772019222” यह विज्ञापन इंदौर संस्करण में निकला है, जिसमें 4000 रुपये से लेकर 95000 रुपये तक का खर्च बैठ रहा है, ऑनलाइन एड बुकिंग करने पर दस प्रतिशत की छूट भी दी जा रही है। ऐसा ही कुछ दूसरे ढंग से विज्ञापन रांची संस्करण में भी दैनिक भास्कर वालों ने छापा है, जिसकी पूरे समाज में तीखी प्रतिक्रिया हुई है।

बुद्धिजीवियों का कहना है कि यह विज्ञापन बताता है कि समाज का कितना पतन हुआ है और अखबारों में काम करनेवालों की सोच किस स्तर तक पहुंच चुकी है। बुद्धिजीवी कहते है कि एक ओर कोरोना से लोग त्रस्त हैं, लोग मौत को गले लगा रहे हैं, परिवार का परिवार समाप्त होता जा रहा है और इन अखबारवालों को इन पर दया नहीं आ रही, बल्कि इसमें भी गिद्धों की तरह अपनी आमदनी कैसे बढ़े, इस सोच पर काम कर रहे हैं, जिसमें ये व्यापारियों की तरह छूट भी दे रखी है।

सोशल साइट पर तो दैनिक भास्कर के इस विज्ञापन की जमकर भर्त्सना हो रही है, पर दैनिक भास्कर के लोगों को लगता है कि इसका कोई असर नहीं हो रहा। जब विद्रोही24 ने इस संबंध में दैनिक भास्कर के ही एक बड़े अधिकारी से बात की, तो उनका कहना था कि ये सब से दैनिक भास्कर को कोई फर्क नहीं होता, जबकि बुद्धिजीवियों का कहना है कि फर्क तो उसको पड़ता है, जिसकी आत्मा होती है, जिसने अपनी आत्मा ही मार दी, उसे क्या फर्क पड़ेगा। दुनिया का कौन अखबार है, कि इस कोरोना काल में मरनेवाले लोगों के प्रति सहानुभूति न रखकर, उनके परिवारों के प्रति सहानुभूति न रखकर, जाते-जाते उनके पॉकेट से पैसे निकालने की सोच रखें।