हम दरअसल प्रकाश और प्रेम ही हैं, स्थूल काय शरीर नहीं, यही समझने की जरुरत – ब्रह्मचारी सच्चिदानन्द

रांची के योगदा सत्संग मठ स्थित ध्यान केन्द्र में साप्ताहिक सत्संग को संबोधित करते हुए योगदा सत्संग से जुड़े ब्रह्मचारी सच्चिदानन्द ने कहा कि ईश्वर प्रेम, प्रकाश व आनन्द का प्रतिरुप हैं, इस मृत्युलोक में सिर्फ हमें लीलाएं करनी हैं, और अन्त में ईश्वर के दिव्य प्रकाश में ही हमें समायोजित हो जाना है. इससे ज्यादा जानने की आवश्यकता नहीं, जो दिव्य पुरुष हैं, वे इसे जानते हैं और उसी प्रकार अपने जीवन को प्रभु के रास्ते में समर्पित कर, अपने जीवन को उत्सर्ग कर देते हैं।

ब्रह्मचारी सच्चिदानन्द ने इन बातों को कई प्रमाणों से प्रमाणित किया, तथा योगी कथामृत पुस्तक में छपी परमहंस योगानन्द की कथाओं को सत्संग में उद्धृत करते हुए लोगों से उस दिव्य प्रकाश की ओर जाने के लिए ज्यादा समय देने को कहा। उन्होंने बार-बार कहा कि मृत्यु लोक सिर्फ लीला का स्थान हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि ईश्वर शाश्वत है और सच्चिदानन्द है।

उन्होंने कहा कि जब परमहंस योगानन्द जी बचपन में बीमार पड़े तो उनकी माताजी ने परमहंस योगानन्द जी को लाहिड़ी महाशय के चित्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करने को कहा और फिर उसका क्या परिणाम आया, लगता है कि ये बताने की जरुरत नहीं, क्योंकि जिन्होंने योगी कथामृत पढ़ी हैं, उन्हे पता है। उन्होंने कहा कि जब परमहंस योगानन्द अपने गुरु युक्तेश्वर गिरि के यहां पहली बार पहुंचे और युक्तेश्वर गिरि ने जब उन्हें फिर क्रिया योग में दीक्षित किया, तब उन्होंने स्वयं महसूस किया कि करोड़ों सूर्य का प्रकाश उनके मन-मस्तिष्क में छा गया, और फिर उन्होंने महसूस किया कि इन्हीं दिव्य प्रकाशों में स्वयं को समर्पित कर देना है।

ब्रह्मचारी सच्चिदानन्द ने कहा कि ये तभी संभव है, जब हम अपने श्वासों व चंचल मन को शांत कर लें, क्योंकि यही हमें तरंगित कर विभिन्न वस्तुओं को हमारे मन में प्रकट कर देते हैं। उन्होंने एक बहुत सुंदर एक रोचक कहानी सुनाई। उन्होंने कहा कि एक बार एक संत गया के किसी रेस्ट हाउस में रुके। तब जिस कमरे में वे ठहरे थे, तब वहां एक नीला प्रकाश प्रकट हुआ, जो धीरे-धीरे पूरे कमरे को अपने  कैद में ले रहा था, तभी उस नीले प्रकाश में एक दिव्य पुरुष प्रकट हुए। उक्त संत ने पूछा कि वो कौन है – बुद्ध है या शिव। पता नहीं चल पाया। जब 12 वर्षों के अंतराल के बाद, दक्षिणेश्वर स्थित योगदा सत्संग मठ में वहीं संत पहुंचे, तो उन्हें वही योगी कथामृत मिली, योगी कथामृत में एक फोटो को देख, वे आश्चर्य में पड़ गये, दरअसल वो चित्र महावतार बाबा जी का था, मतलब महावतार बाबा जी ही उन्हें गेस्ट हाउस में मिले थे। मतलब प्रकाश की महत्ता क्या हैं, इसे समझने की जरुरत है।

उन्होंने कहा कि पतंजलि बताते है कि रोग विक्षेप के कारण होता है और विक्षेप के निराकरण का एक तरीका है – ध्यान। ईश्वर का नाम ओम् हैं और उसी ओम् पर ध्यान लगाते हुए, उस दिव्य प्रकाश की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। उन्होंने युक्तेश्वर गिरि की तुलना ज्ञान, लाहिड़ी महाशय की तुलना आनन्द और महावतार बाबा की तुलना प्रेम से की। उन्होंने सभी से कहा कि हम दरअसल प्रकाश और प्रेम ही हैं, स्थूल काय शरीर नहीं, यह समझने की जरुरत है।

उन्होंने कहा कि इस वाक्य को हमेशा पकड़कर रखना है, जब हम ध्यान करेंगे, धार्मिकता को अपनायेंगे, संतों के साथ समय बितायेंगे, उदात्त चरित्र अपनायेंगे, तो निश्चय ही दिव्य प्रकाश से भर जायेंगे। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि जब शरीर त्यागने की बारी आये तो उस वक्त भी ध्यान में अपने चित्त को लगाये, अपने चित्त को प्रेम व प्रकाश से भरें, देखेंगे कि आपका अंत उस दिव्य प्रकाश में आपको विलीन कर देगा, ठीक उसी प्रकार जैसे महात्मा गांधी की जब हत्या कर दी गई, तो ऐसी अवस्था में जब व्यक्ति का चित्त घबराहट से भर जाता हैं, महात्मा गांधी के मुख पर कोई घबराहट या विस्मय का भाव नहीं था, बल्कि ऐसी अवस्था में भी वे शांतचित्त थे, उनके मुख से राम ही निकला, जो शायद ही किसी के मुख से निकलता है।