अपनी बात

“ये जो भीड़ देख रहे हैं न साहेब, ये भीड़ किसी की नहीं होती” इसे जितना जल्द हो सकें समझ लें, आपके लिए ठीक रहेगा

“ये जो भीड़ देख रहे हैं न साहेब, ये भीड़ किसी की नहीं होती”, ये सारे नेता जो आज जीवित है या कल जीवित नहीं रहेंगे या आनेवाले भविष्य में नेता बनेंगे, उन सब को उपर्युक्त बातें गांठ बांध कर रख लेना चाहिए। कभी मंडल आयोग को लागू करने का दंभ भरनेवाले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह को भी यही घमंड था कि वे जिनके लिए मंडल आयोग लागू किये हैं, वे उनका भविष्य में अवश्य साथ देंगे, याद करेंगे, आदर करेंगे, पर हुआ क्या?

वी पी सिंह कब दुनिया छोड़ दिये, किसी को पता ही नहीं लगा और न आज कोई उनका जन्मदिन या पुण्यतिथि मनाता है, मैं तो सोशल साइट पर सालों ढूंढता हूं कि कभी कोई नेता वी पी सिंह को उनके जन्मदिन या मरण दिन पर याद करें, पर कोई याद नहीं करता, याद तो लालू यादव और नीतीश कुमार भी नहीं करते, जिन्होंने मंडल आयोग का समर्थन कर खुब मलाइयां चाभी। आखिर क्यों भाई? कभी इस पर चिन्तन-मनन किया है, अगर नहीं किया हैं तो अब भी कर लो, क्योंकि जिस चीज के लिए तुम मर रहे हो या किसी को गाली दे रहे हो, क्या वो व्यक्ति या वो भीड़ कालांतराल में तुमको याद भी रखेगा, या वी पी सिंह की तरह तुम्हें भी, मतलब समझे कि फिर से समझाना पड़ेगा…

वर्तमान में देखा जा रहा है कि पिछले कुछ दिनों से झारखण्ड के मुख्यमंत्री आवास पर खुब मेला लग रहा है, लोग ढोल-ताशे लेकर जा रहे हैं, बाजा बज रहा है, नारेबाजी हो रही है, मिठाइयां बांटी जा रही है, जो जिस जाति या समुदाय का पत्रकार हैं, वो उसी भाषा में बात करते हुए मुख्यमंत्री की आरती गा रहा है, उनकी तुलना महेन्द्र सिंह धौनी से कर रहा हैं, कह रहा हैं, भाजपा-आजसू समाप्त हो गई, पर उसको भी नहीं पता कि अभी साल 2022 चल रहा हैं और केन्द्र में शत प्रतिशत बिना मिलावट वाला नेता शासन संभाले हुए हैं, उसके पास हर मर्ज की दवा और इलाज, वो भी गारंटी के साथ है। लेकिन चूंकि जय-जयकार करनी है, तो पत्रकारिता जाये भाड़ में, हम तो आरती उतारेंगे ही, तो उतारो आरती किसने रोका है?

एक पत्रकार मुझे रांची में मिला, वर्तमान में कट्टर भाजपा विरोधी, पूर्व में भाजपा समर्थक था, जब उसे भाजपा से आनन्द की गठरी प्राप्त होती थी। उसने कहा कि ऑपरेशन लोटस की धज्जियां उड़ा दी, भइया हेमन्त ने। हमने पूछा कैसे? और ये ऑपरेशन लोटस क्या होता है? उसने कहा, क्यों आपने देखा नहीं कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में क्या हुआ? हमने पूछा क्या हुआ, उसने कहा कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में कांग्रेस गठबंधन की सरकार थी, ऑपरेशन लोटस चलाकर भाजपा ने वहां अपना शासन स्थापित कर लिया।

हमने कहा कि पहले तुम हो क्या राजनीतिक संवाददाता हो या राजनीतिक संपादक, और अगर जब तुम्हें राजनीति की एबीसीडी भी नहीं आती तो तुम मेरे सामने बकर-बकर क्या कर रहा हैं? तुम्हें ऑपरेशन लोटस पता है और तुम्हें ऑपरेशन पंजा नहीं मालूम कि कैसे कांग्रेस ने एक बड़ी पार्टी जो कर्नाटक में शासन में आ रही थी, उसे रोकने के लिए ऐसी पार्टियों से हाथ मिला लिया, जिसके खिलाफ वो खुद चुनाव लड़ रही थी।

क्या तुम्हें नहीं मालूम कि महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना मिलकर चुनाव लड़े थे, वहां की जनता ने दोनों को साथ-साथ मिलकर शासन करने का जनादेश दिया था, वहां काग्रेस ने क्या किया? भाजपा-शिवसेना में दरार डालकर शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बना ली, यानी तुम गुंडागर्दी करो तो ठीक और कोई तुम्हें उसी भाषा में जवाब दें, तो गलत, कमाल है। मतलब समझिये, कैसे-कैसे पत्रकार है, रांची में? ऐसे तो ऐसे पत्रकार भरे पड़े हैं, इसलिए इसमें रांची को क्या दोष देना?

हालांकि सच्चाई यह है कि हमारे देश में जितनी भी पार्टियां हैं, उसमें पाये जानेवाले दो टांगों वाले विधायक व सांसद ज्यादातर बिकाउ होते हैं, अपनी बोलियां खुद लगाते हैं, संसद व विधानसभा में प्रश्नों के लिए भी खुद की बोलियां लगाते हैं, राज्यसभा के चुनाव में अगर मौका मिल गया तो वे अपना वोट भी बेचते हैं, सरकार बचाने का मौका मिला तो अपने वोटों का सौदा भी करते हैं, और खुद को महान भी घोषित करते हैं, और इसके लिए प्रमाण के लिए कोई किताब ढूंढने की जरुरत नहीं, जहां हाथ डालियेगा प्रमाण मिल जायेगा। सबसे सुंदर उसका प्रमाण है –  अपना झारखण्ड।

अब आगे चलते हैं। राज्य में राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने बहुत बड़े-बड़े काम कर लिये हैं। पर ये काम कब शुरु हुए हैं? 25 अगस्त 2022 से, जब राज्य के प्रमुख अखबारों व चैनलों व पोर्टलों में ये खबर आई कि राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन की विधायिकी खतरे में हैं, हालांकि आज भी मैं दावे से कह सकता हूं कि न तो राजभवन के किसी अधिकारी ने और न ही चुनाव आयोग के किसी अधिकारी ने इस संबंध में कोई जानकारी दी है, सभी अपने-अपने ढंग से यानी सोर्स के हवाले से कह रहे हैं।

इन्हीं सोर्सों ने राज्य के मुख्यमंत्री की नींद उड़ा दी। इसी नींद में मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन कभी विधायकों को लतरातू डैम तो कभी रायपुर की सैर करा रहे हैं, कभी जनता की मांगों को पूरा कर रहे हैं तो कभी 1932 और आरक्षण थमा दे रहे हैं, जो उनके हाथों में है ही नहीं। ऐसे में इस प्रकार के प्रलोभनों से जनता को अपने आवास पर बुला लेना, उनसे माला पहन लेना और अपनी पीठ थपथपवा लेना क्या बताता है?

राज्य के कई प्रमुख आदिवासी नेता जैसे मधु कोड़ा, सालखन मूर्मु, सामान्य वर्ग के नेता जैसे पूर्णिमा सिंह, पीएन सिंह, सरयू राय, निशिकांत दूबे आदि प्रमाण के साथ कह रहे हैं कि 1932 का खतियान कभी राज्य में लागू हो ही नहीं सकता, ये जैसे ही न्यायालय में जायेगा, पूर्व की तरह रद्द हो जायेगा, नौवी अनुसूची में भी ये डाला नहीं जा सकता, क्योंकि इसमें भी कई कानूनी पेंच हैं, ऐसे में जनता को अंधेरे में रखना क्या ठीक है? क्योंकि जो जनता आज आपको हीरो मान रही हैं, आपके अंदर छूपे इस राजनीतिक षडयंत्र को जान लेगी तो वहीं हाल होगा, जो कभी वी पी सिंह का हुआ था।

वे कब भारत की राजनीति से समाप्त हो गये, उन्हें भी पता नहीं चला, उनकी मृत्यु भी इस प्रकार हुई कि उनके मृत्यु में भी गिने-चुने लोग ही शामिल थे, जबकि वे भारत के प्रधानमंत्री तक रह चुके थे, पिछड़ों के मसीहा तक कहे जाते थे, पटना की मंडल रैली के तो वे महानायक थे, पर आज उनको कोई याद नहीं करता, मतलब एक बार फिर कहुंगा कि ये भीड़ किसी की नहीं होती, क्योंकि ये भीड़ हैं… और अंत में ये गीत उन सारे राजनीतिबाजों के लिए जो जनता को मूर्ख समझते हैं…

दो किस्म के नेता होते हैं

इक देता है, इक पाता है

इक देश को लूट के खाता है

इक देश पे जान गंवाता है

इक जिंदा रहकर मरता है

इक मरकर जीवन पाता है

इक मरा तो नामोनिशां ही नहीं, एक यादगार बन जाता है…