ऐसे होते हैं शिक्षक, ऐसे होते हैं न्यायाधीश और ऐसी होती हैं IAS की पत्नियां, जो दूसरों के…

शनिवार की रात कोई आभास नहीं था। बस मन उचाट था। क्यों, पता नहीं। तब मैंने अपनी प्रकृति के विपरीत लिखा था – ‘जी में है पतवार अब लहरों में डाल दूँ।’ लेकिन शायद उसके पीछे एक खबर थी जो मुझ तक पहुंची नहीं थी। आज पहुंची – मेरे अभिन्न मित्र श्री रंजन खान की पत्नी पुष्पा उस रात चिरंतन लहरों में चली गईं। मैं महसूस कर रहा हूँ, जीवन-वृक्ष के वे पत्ते जो कभी हरे थे, जिनसे मेरी पुरानी पहचान थी, एक एक कर पीले हो रहे हैं, हल्की सी हवा में अचानक साथ छोड़ जा रहे हैं।

पुष्पा से तैंतीस चौंतीस साल पुराने परिचय की हर बात एक फिल्म की तरह याद आ रही है।
रंजन तब जमशेदपुर के शास्त्री कॉलेज में लेक्चरर था। एक दिन बहुत क्षुब्ध था। उसने मुझे अपने पिता का पत्र दिखाया। संक्षिप्त पत्र में बस इतना लिखा था कि फलां तारीख को तुम्हारी शादी है। छुट्टी लेकर आ जाओ। रंजन ने मुझसे कहा कि पापा भी अजीब आदमी हैं। न कोई डिटेल, न फोटो, न ये लिखे हैं कि किसकी लड़की है क्या करती है? कुछ नहीं बस शादी करने आ जाओ। क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। खैर, जब मैं शादी के पहले रंजन के पिताजी, श्री अभिमन्यु खान (तब शिक्षक नेतरहाट स्कूल) से मिला तो मैंने पूछा, – चाचा, आपने यूँ अचानक बिना कुछ बताए शादी कैसे तय कर दी? लड़की कौन है….’

उन्होंने मेरा सवाल रोकते हुए कहा, – अरे गुंजन, ये भी एक अनोखा किस्सा है। हुआ यूँ कि कई साल पहले मैं स्कूल के काम से पटना गया था। रिक्शे से सचिवालय जा रहा था। रस्ते में बारिश हो रही थी। बेली रोड पर देखा एक भले-मानुस बारिश में भीगते पैदल जा रहे थे। सो, मैंने रिक्शा रोक कर उन्हें लिफ्ट दे दी। कोई ख़ास बात चीत नहीं हुई। वे भी धन्यवाद देकर सचिवालय में उतर कर चले गए और मैं भी अपने रस्ते। भूल भी गया। कई साल बीत गए।
फिर एक दिन मैं सहरसा कचहरी में अपनी भतीजी को गोद लेने की कानूनी प्रक्रिया कर रहा था।

मैं और मेरे भाई, उस लड़की के पिता जब मुंसिफ के पास पहुंचे तो पता चला कि गोद लेने वाले और देने वाले दोनों पक्षों की माताओं का भी आना जरुरी है। अब तो मुश्किल हो गई। दोनों गाँव में थीं। आना संभव नहीं था और अगली सुबह मुझे वापस नेतरहाट लौटना था। यानी गोद लेने का काम नहीं हो सकेगा। मुंसिफ साहब हम लोगों को वकील और पेशकार से बात करते सुन रहे थे। हम निराश होकर लौटने को थे, तभी मुंसिफ साहब ने बुला कर कहा आप दोनों अपने भाई हैं और भले आदमी है। चलिए मैं आप की पत्नियों को हाजिर मान कर गोद की प्रक्रिया पूरी कर देता हूँ। इस तरह हमारी बड़ी समस्या उन्होंने हल कर दी। हम उन्हें धन्यवाद देकर चले गए। फिर इस बात को भी वर्षों बीत गए। बच्चे बड़े हो गए।

फिर एक दिन एक मजिस्ट्रेट साहब तुम्हारे इस दोस्त के लिए अपनी बेटी की शादी प्रस्ताव लेकर आये। बातों में पता चला वे सहरसा में भी पोस्टेड रहे थे। फिर दोनों को याद आया कि ये तो वही मजिस्ट्रेट साहब हैं, जिन्होंने बेबी को गोद लेने की प्रक्रिया आउट ऑफ़ वे जाकर पूरी करा दी थी। और तब उन्होंने ऐसा क्यों किया था ये भेद भी खुला। उन्होंने बताया कि जब उन्होंने सहरसा में अपने चैम्बर में मुझे देखा, तो उन्हें याद आया कि ये तो वही आदमी है, जिसने मुझे पटना में बारिश में रिक्शे पर लिफ्ट दी थी।

और मजिस्ट्रेट साहब को लगा कि ये एक भला आदमी है, जिसने बिना वजह बारिश में मेरी मदद की थी।  इसलिए उन्होंने बिना कानूनी प्रक्रिया के पचड़े के गोद की औपचारिकता पूरी करा दी। इस बात के याद आते ही मुझे लगा कि नियति ने तीन बार बिना वजह नही मिलाया है और जब बाप इतने छोटे से एहसान को भी नहीं भूलने वाला इंसान है तो बेटी भी संस्कारी होगी। बस मैंने कह दिया कि अब न टीपन देखना है और न फोटो। रंजन की शादी आपकी बेटी से ही होगी। अब बोलो कि मैं रंजन को क्या डिटेल चिट्ठी में लिखता? शादी तो होनी ही थी।

शादी हो गई। उसके कुछ ही दिनों बाद रंजन आईएएस हो गए। मैंने रिजल्ट सुबह अखबार में देखा। खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसी दोपहर मेरी खुशी कई गुना हो गई जब रंजन सबसे पहले मुझसे मिलने नेतरहाट से रांची आज अखबार के दफ्तर पहुंचा। हम गले मिले।
सभी दोस्त गर्व से भर गए थे। खुश पुष्पा भी हुईं लेकिन एक आईएएस की पत्नी होने का जरा सा भी घमंड उन्हें कभी नहीं हुआ। जब भी मिलीं इतनी स्वाभाविक और खुश मिजाज लेकिन अपने सिद्धांतों की पक्की। मुझे कभी कभी उत्सुकता होती थी कि ये कैसे पति पत्नी हैं? कभी एक दूसरे की शिकायत क्यों नहीं करते? लेकिन सवाल ही नही उठता था।

दोनों के बीच गजब की आपसी समझदारी, अनौपचारिक अपनापन, और परस्पर सम्मान। मुझे कभी-कभी अटपटा लगता है, जब पति-पत्नी एक दूसरे के नाम में जी लगा कर बात करते हैं। वैसे तो मेरा पिता हम सभी से जीवन भर ‘आप’ कह कर ही बात करते थे, लेकिन मैं उनसे ये सीख नहीं सका। लेकिन लगता है मेरे पिता और रंजन दम्पति से मुझे सीखना चाहिए था – पत्नी बच्चों को ससम्मान संबोधित करना।

खैर, अपने परिवार और बच्चों की देखभाल के अलावा पुष्पा जी का जो सबसे जरूरी काम था उसके जिक्र के बिना उनके बारे में बात अधूरी रह जाएगी। ये था स्पैस्टिक बच्चों से उनका लगाव। वे उनके एक दैनिक स्कूल में वर्षों से काम करती आ रही थीं।
पिछली बार उनसे मिला था, तो वे स्कूल से तुरंत लौटी ही थीं। थकी-मांदी। उनके सुंदर चेहरे पर थकान दिख रही थी। और तुरन्त लग गईं, मेरे लिए घर में खुद की बनाई मिठाई नाश्ता लगाने में।

खाने के बाद अपनी जूठी थाली टेबुल से उठा कर बेसिन में तो मैं भी रखता रहा हूँ, लेकिन मेघालय सरकार के चीफ सेक्रेटरी के घर नहीं, पुष्पा जी के घर में, मैंने एक चीज सीखी। जूठी थाली मांजने के लिए दाई तो है, लेकिन अगर उसे पानी से उसे खंगाल कर मांजने को रखा जाए तो दाई के प्रति एक सम्मान होगा और उसे सुविधा भी होगी।
रंजन को कुछ वर्ष पहले हुए हार्ट अटैक और अब उसके रिटायर होने के बाद मैंने पुष्पा जी से कहा था,– अब आप स्कूल की नौकरी छोड़ क्यों नहीं देतीं? कितनी दिक्कत है ग्रेटर नॉएडा से स्कूल आने जाने में। और रंजन को भी तो देखना है। तो उन्होंने गंभीरता से कहा था,

– गुंजन जी, ये नौकरी थोड़े ही ना है। ये जो स्पैस्टिक बच्चे हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं देता। वे इतने भोले और टैलेंटेड हैं कि आपको यकीन नहीं होगा। उनको मुझसे और मुझे उनसे इतना लगाव है कि हम दोनों एक दूसरे के बिना रह ही नहीं सकते। मैं एक दिन न जाऊं तो मुझे खोजते हैं। और मुझे भी खाली खाली लगता है। रंजनजी को थोड़ी दिक्कत तो होती है लेकिन वे अपने आप को देख सकते हैं। उन बच्चों को तो कई बार उनके माँ बाप भी ठीक से नहीं देखते।’

जहाँ बड़े अफसरों की बीवियां फैशन, शौपिंग, गॉशिप में जीवन जाया कर लेती हैं, पुष्पा जी एक ऐसे वर्ग की सेवा में जीवन भर बिना किसी दिखावे के लगी रही थीं जिनकी बातें करनेवाला, जिनकी बातें सुनने वाला कोई नहीं है. वे न अपनी बात कह सकते हैं, न अपने लिए कोई संगठन बना सकते हैं, न आवाज उठा सकते हैं। दलितों, पिछड़ों, अगड़ों, शारीरिक अक्षम लोगों, सफ़ेद कालर कर्मियों, नक्सलियों – सभी के अपने संगठन हैं, लेकिन मानसिक रूप से अक्षम, मंदबुद्धि, स्पैस्टिक लोगों के कोई संगठन नहीं, उनके कोई मानवाधिकार नहीं, अगर पुष्पा जी जैसे लोग न हों तो स्वार्थियों की चिल्ल-पों में उन बच्चों का सीमित अपाहिज अस्तित्व कहाँ ?

मैं पुष्पा जी के इन बच्चों से कभी मिला नहीं। शायद वे बच्चे न पूछ पायें, न समझ पायें कि उनकी वह निःस्वार्थ शिक्षिका अब कभी नहीं आएगी। वे बोल नहीं पायेंगे शायद, लेकिन उनकी निरीह खाली आँखें पुष्पा जी को खोजेंगी। शायद रंजन अपने आप को धीरे धीरे संभाल लेंगे, लेकिन वे बच्चे?

(वरिष्ठ पत्रकार श्री गुंजन सिन्हा के फेसबुक वॉल से साभार)