एके राय या महेन्द्र सिंह जैसे नेता ही देश-राज्य को एक नई दिशा दे सकते हैं, पर हम एके राय या महेन्द्र सिंह बनेंगे नहीं

एके राय या महेन्द्र सिंह जैसे नेता ही देश-राज्य को एक नई दिशा दे सकते हैं, पर हम एके राय या महेन्द्र सिंह बनेंगे नहीं। झारखण्ड में आदर्श राजनीतिज्ञों की जब भी बात आयेगी, तो एके राय और महेन्द्र सिंह सर्वदा शिखर पर होंगे, वह भी बिना किसी लाग-लपेट के। जीवन में जितनी सादगी व देश तथा समाज के प्रति निष्ठा मैंने इनमें देखी, वो किसी में नहीं।

पत्रकारीय कार्य के दौरान हमने झारखण्ड को एक लंबा समय दिया है। जिसमें हमने इन दोनों राजनीतिज्ञों को निकट से देखा, उनके जीवन को देखा, उनके आदर्शों को देखा तो हमें लगा कि इनके आजू-बाजू कोई नेता या कोई पत्रकार भी नहीं फटक सकता, इनके आदर्शों पर चलना तो बहुत बड़ी बात है।

जब महेन्द्र सिंह की हत्या हुई और उनके अंतिम संस्कार में लाखों लोग जुटे तो उस वक्त मैंने झारखण्ड के एक बहुत बड़े पत्रकार (प्रधान संपादक) को उनके ही अखबार में महेन्द्र सिंह के बारे में एक आर्टिकल लिखा हुआ पाया, जिसे मैंने आज भी संजोकर रखा है। जब एके राय दुनिया में नहीं रहे, तो उस वक्त भी मैंने कई लोगों के उनके प्रति उत्पन्न भाव को देख आश्चर्य से भर उठा था।

आश्चर्य इसलिए हुआ या हो जाता हूं कि जब कोई लिखता है या अपने उद्गार प्रकट करता है कि एके राय व महेन्द्र सिंह जैसे नेता ही देश-राज्य को एक नई दिशा दे सकते हैं, तो भाई वह खुद भी एके राय या महेन्द्र सिंह क्यों नहीं बन जाता, उसे ऐसा बनने में या उनके जैसा करने में दिक्कत कहां से आ जाती है और जब दिक्कतें आ ही जाती हैं तो इन जैसे राजनीतिज्ञों के लिए ऐसे लोग मगरमच्छ के आंसू क्यों बहाते हैं?

1974 के छात्र आंदोलन या जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े बहुत लोग ऐसे हैं जिनमें कई नेता हो गये तो कई पत्रकार। किसी ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से प्रभावित होकर, अपने जातिरुपी टाइटिल को छुपा लिया पर अंदर से रहे वे वहीं, जो वे जिस जाति से आते थे। कुछ ऐसे भी लोग थे, जो उस वक्त भी जाति रुपी टाइटल नहीं छुपाई थी और न आज वे छुपाने को तैयार हैं। ऐसे लोग आज भी जातिवाद की राजनीति से ही स्वयं और अपने परिवार को अनुप्राणित कर रहे हैं, जिससे बिहार का कितना विकास हुआ, सभी के सामने हैं।

बिहार में तो एक लालू और दुसरा नीतीश ही हुए, जिन्होंने पूरे पन्द्रह-पन्द्रह साल लगभग बिहार में एक छत्र शासन किया, स्वयं को पिछड़ा कहलवाया, पर वे बिहार को पूरे देश में शीर्ष क्या, अंतिम दस में भी नहीं ला सकें, पर बोली देखियेगा या इनके चाहनेवालों जिन्होंने इनकी आरती उतारकर अपना पद-प्रतिष्ठा बढ़ा लिया, उनके मुख से इनके लिए शहद ही टपकती है, भाई पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करनी हैं तो शहद तो टपकाना ही होगा, और जब शहद टपकायेंगे तो एके राय या महेन्द्र सिंह क्या खाक बनेंगे।

ऐसे में आपके जाति के लोग जो विभिन्न अखबारों-चैनलों में जमे हैं, वे तो आपके स्तुति गायेंगे ही, आपके उज्जवल पक्ष को लेकर जय-जयकार करेंगे ही, पर वह भी कब तक, जब तक आप पद पर हैं, लेकिन दुनिया में ऐसा कोई नहीं हुआ जो हमेशा जीवित रहा और मरा तो पद को लेकर गया, आप भी जायेंगे, पर उस वक्त आपके साथ कौन होंगे? वही होंगे जो आज जाति के नाम पर आपकी  जय-जयकार कर रहे हैं, सच पूछिये तो जिसने ईमानदारी से अपने जीवन को जिया हैं, उसकी अदालत में आप हमेशा दोषी ही ठहराये जायेंगे। अंत में आप जैसे लोगों के लिए ही फिल्म “यादगार” के एक गीत का अंतरा यहां प्रस्तुत है…

दो किस्म के नेता होते हैं, एक देता है, एक पाता है,

एक देश को लूट के खाता है, एक देश पे जान गवांता है,

एक जिंदा रहकर मरता है, एक मरकर जीवन पाता है,

एक मरा तो नामोनिशां ही नहीं, एक यादगार बन जाता है,

भगवान करे, मेरे देश के सब नेता ही बन जाये ऐसे,

थोड़े से लाल बहादुर हो, थोड़े से हो नेहरु जैसे,

राम न करे, मेरे देश को, कोई भी ऐसा नेता मिले,

जो आप भी डूबे, देश भी डूबे, जनता को भी ले डूबे,

वोट लिया और खिसक गया, जब कुर्सी से चिपक गया,

तो फिर उसके बाद… एकतारा बोले, तून तून तून तून…

पर आप तो वोट लेते ही नहीं, आप तो निर्विरोध चुन लिये जाते हैं, इसलिए आप स्वयं को इन सबसे अलग मान सकते हैं, क्योंकि आपकी आरती तो आजकल वे लोग भी उतार रहे हैं, जो किशोर हैं, निराले हैं, अलबेले हैं, मस्त हैं, क्या कहने हैं इनके, बधाई ही बधाई हैं। जब तक बिहार में भगवान नीतीश हैं, तब तक आपके तो दोनों हाथों में मनेर के शुद्ध घी के लड्डू हैं।