अपनी बात

अरे बाबू, नोटबंदी हो या नसबंदी भुगतना तो हमें ही हैं…

याद करिये बहुत पहले इंदिरा गांधी के शासनकाल मे नसबंदी चला था। जिस पर कई फिल्में भी बनी और उस पर बने गाने भी काफी लोकप्रिय हुए थे, नसबंदी का प्रभाव उस वक्त लोकसभा के चुनाव पर भी पड़ा था, इंदिरा जी की सत्ता चली गई थी। नसबंदी और नोटबंदी में कोई ज्यादा का अंतर नहीं, नसबंदी से जनसंख्या प्रभावित होती है तो नोटबंदी से अर्थव्यवस्था। नसबंदी ने उस वक्त इंदिरा की वो किरकिरी थी कि पूछिये मत, पर जनसंख्या विस्फोट के लिहाज से इस कार्यक्रम को कई लोगों ने प्रशंसा भी की थी, ठीक उसी प्रकार नोटबंदी को लेकर कई लोग सरकार के इस फैसले के साथ है तो कई विरोध में भी।

चूंकि आज नोटबंदी का पहला सालगिरह है तो देख रहा हूं कि रांची से प्रकाशित कई अखबार इस पर आज एक तरह से विशेषांक ही निकाल दिये है, जिसमें भाजपा नेताओं, उनके प्रवक्ताओं तथा अर्थशास्त्रियों के कई आलेख पढ़ने को मिले। कोई नोटबंदी की जय-जयकार कर रहा हैं तो कोई उसकी श्राद्ध कर रहा है, पर मेरे मन में कुछ सवाल उठ रहे हैं, जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है।

पहला सवाल नोटबंदी का असर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के परिवार पर भी पड़ा था, तभी तो उनकी मां को भी अपने पुराने नोट बदलवाने के लिए बैंक के चक्कर लगाने पड़े। स्वयं राहुल गांधी को भी अपने नोट बदलवाने के लिए बैंक की लाइन में लगने की जरुरत पड़ गई, हालांकि ये दोनों मामले विशुद्ध रुप से राजनीतिक है, क्योंकि दोनों के लिए लाइन लगने की कोई जरुरत ही नहीं, क्योंकि दोनों वीवीआइपी है, इनके लिए तो बैंक ही उनके पास दौड़ लगा देती, क्योंकि हमारे देश की व्यवस्था कैसी है? वह किसी से छुपी है क्या?

क्या भाजपा के प्रवक्ता और पूर्व गृह सचिव जे बी तुबिद बता सकते है कि नोटबंदी के दौरान जब झारखण्ड की जनता बैंकों का चक्कर लगा रही थी, तब वे किस बैंक में अपने नोटों को बदलवाने के लिए लाइन में लगे थे, या उनके परिवार के सदस्य किस बैंक में लाइन लगे थे? या झारखण्ड के भाजपा के नेता ही बताएं कि जब प्रधानमंत्री की मां अपने नोटों को बदलवाने के लिए उस दौरान बैंकों में लाइन में लग रही थी, तब झारखण्ड के मुख्यमंत्री का परिवार का सदस्य किस बैंक में लाइन लगा था, या यहां पर जो भारतीय प्रशासनिक सेवा या भारतीय पुलिस सेवा में कार्यरत कौन ऐसा अधिकारी या उसके परिवार का सदस्य था, जो बैंकों में नोट बदलने के लिए लाइन में लगा था?  क्या इनके पास पांच सौ या एक हजार के नोट नहीं थे। सारे के सारे पांच सौ और एक हजार के नोटों की गड्डियां केवल आम जनता के पास थी क्या?

आखिर इन महानुभावों ने अपने घर में छुपे पांच सौ और एक हजार के नोटों के बंडलों को बदलवाने के लिए किसका सहारा लिया? कम से कम आज एक साल के अवसर पर ईमानदारी से बताने की कोशिश तो करें, अरे ये बताएंगे कैसे?  इनके पास चरित्र या जमीर होगा तब न। इन्होंने तो अपने यहां कार्यरत सैकड़ों कर्मचारियों और पोछा लगानेवालों को ये जिम्मा सौपा और यहीं बैंकों में जा-जाकर भीड़ बढ़ाते रहे और ये नेता व अधिकारी इन लोगों को कोई दिक्कत न हो, इसके लिए नोट बदलने की तिथियों को बढ़ाते रहे, और इनके चक्कर में तबाह होती रही आम जनता।

हमें तो नहीं लगता कि नोटबंदी से किसी व्यापारी या नेता या अधिकारी को कोई दिक्कत हुई होगी, दिक्कत तो खेतों में काम करनेवाले किसानों-मजदूरों, खोमचा ढोनेवालों, निजी कंपनियों में काम करनेवाले दिहाड़ी मजदूरों, आउटसोर्सिंग के तहत काम करनेवाले सरकारी प्रतिष्ठानों में काम करनेवाले मजदूरों तथा असंख्य उन भारतीय नारियों को जो आनेवाले संकटों से खुद को बचाने के लिए अपना पेट काटकर पाई-पाई पैसे जमा कर रखे थे, को हुआ। आज बताओ कि किस अखबार व चैनल में इन लोगों की बाते हो रही है, सारे के सारे अखबार दो गुटों में बंट गये है, एक – मोदी के पक्ष में तो दूसरा मोदी के विरोध में, यानी हर प्रकार से, हर तरफ से मोदी-मोदी, मोदी-मोदी, हर-हर मोदी, घर-घऱ मोदी और जनता कहती – बोदी-बोदी।

हमने देखा कि इस दौरान एक सामान्य घर की बेटी की शादी और उसके सपने मिट्टी में मिल गये और नेता (चाहे वह किसी भी पार्टी का हो) व आईएएस-आईपीएस के घरों में इसका कोई प्रभाव नहीं था। खुलकर जो होना था हुए, पर मर गये, गांव के विमला-कमला के सपने। यहीं नहीं घर में किसी का मां-बाप मरा, उसके लिए लकड़ी जुटाने में लोग तबाह हो गये, पर किसी आइएएएस-आइपीएस और नेता के घर में उसके परिवार के सदस्यों के मरने पर कोई कोहराम नहीं मचा। ऐसे में इस नोटबंदी से आम जनता को क्या मतलब?

ऐसे भी जनता का मतलब क्या होता है – व्यापारी, नेता, अधिकारी, या वे लोग जो रोजमर्रा की जिंदगी जीने के लिए नाना प्रकार के कष्ट उठाकर, इनकी सेवा में लगे होते है, जो आम जनता का नहीं, वो मेरा कैसे हो सकता है?  मनाओं नोटबंदी की सफलता का सालगिरह या मनाओं नोटबंदी की विफलता के विरोध का सालगिरह, हमें तो लगता है कि तुम सब एक हो, बस चेहरे बार-बार बदलते हो, कभी नोटबंदी के नाम पर आम जनता की छाती में भाला चुभोते हो तो कभी दूसरे कारणों को लेकर आ धमकते हो, और अखबारों व चैनलों के संपादकों व मालिकों, तुम्हारा क्या है?  तुम्हे तो दोनों हाथों में लड्डू है, सरकार किसी की आये, तुम्हारे थाली में तुम्हारे हिस्से का विज्ञापन जरुर ही मिल जायेगा, क्यूं बात में दम हैं या नहीं।