अपनी बात

दैनिक भास्कर में वो माद्दा नहीं, जो किसी सत्ता के कोपभाजन को झेल सके, मुकाबला कर सके, ऐसे भी पावर प्लांट, खनन, टेक्सटाइल और शेल कंपनी पर छापा पड़ी है न कि अखबार पर

भारत सरकार के आयकर विभाग ने इस बार दैनिक भास्कर के मालिक का टेटूआ कसकर पकड़ा है। आयकर विभाग द्वारा टेटूआ पकड़ लिये जाने से दैनिक भास्कर अखबार के मालिक बिलबिलाने लगे हैं। ऐसा बिलबिलाने लगे हैं कि वे रोना-धोना शुरु कर दिये है। आज का दैनिक भास्कर उसी बात का पक्का सबूत है। आज का प्रकाशित दैनिक भास्कर बता रहा है कि दैनिक भास्कर को कितनी पीड़ा हुई हैं।

उसके मालिक की इस पीड़ा से वे पत्रकार अति प्रसन्न दिख रहे हैं, जो किसी न किसी कारण से इस अखबार में काम कर शोषित होते रहे और अंत में उन्हें बेदर्दी से निकाल दिया गया। जिन्हें मजीठिया तक नहीं दिया गया और जिन्होंने मजीठिया की लड़ाई लड़ी, अपना हक मांगा, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

पर उस वक्त भी इस अखबार में काम करनेवाले दो रोटी के लिए सम्मान तक को गिरवी तक रख देनेवाले पत्रकारों ने उनकी मदद नहीं की, बल्कि अखबार के प्रति ही भक्ति दिखाते रहे, जैसा कि आज भी दिखा रहे हैं। हालांकि दैनिक भास्कर की सारी पोल-पट्टी खोलकर सोशल साइट ने रख दी है। वरिष्ठ पत्रकार अनिल विभाकर अपने मित्र वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेन्द्र नाथ को फेसबुक पर लिखते हैं…

ज्ञानेन्द्र जी, किसी अखबार के कार्यालय पर छापेमारी का मैं सख्त विरोधी हूं। ऐसी कार्रवाई घोर आपत्तिजनक है मगर यह छापा अखबार के दफ्तर नहीं बल्कि इसके मालिक के अन्य व्यापारिक संस्थानों पर पड़ा है। जैसे पावर प्लांट, खनन, टेक्सटाइल और शेल कंपनी आदि। इस अखबार की ‘क्रांति और निष्पक्षता’ मैं रायपुर में देख चुका हूं। ठीक मतदान के दिन इसने पहले पेज पर आठ कालम का बैनर छापा था – विधान सभा चुनाव में हार रही है भाजपा। मतदान के दिन ऐसी खबर या विज्ञापन छापना पत्रकारिता के नैतिक मानदंड के विरुद्ध है।

ज्ञानेन्द्र नाथ द्वारा अनिल विभाकर को जवाब। अनिलजी , मीडिया संस्थानों का सच , हमसे – आपसे बेहतर कौन जानता है। पत्रकारों की हत्या पर भी ख़ामोश रहने वाले पत्रकार अगर संघर्ष की बात करें तो वह “हास्यास्पद” से ज्यादा कुछ नहीं। कौन सा पत्रकार या मीडिया संस्थान किस खम्भे के सहारे खड़ा है, ये बात हम सब जानते हैं।

सुबह से लेकर शाम तक राजनेताओं और अधिकारियों से “अतिरिक्त सुविधा” की मांग करने वाले , लोगों की पैरवी कर मोटी रक़म इकट्ठा करने वाले लोग पत्रकारिता पर कलंक हैं, ऐसे लोग, लोगों को भड़का सकते हैं, संघर्ष नहीं चाहिए। आजकल हो रहे “आंदोलनों” का सच किसी से छिपा नहीं। कहां से उन्हें “ऊर्जा और पैसा” मिल रहा है ये बात किसी से छिपी नहीं है।

अक्कू श्रीवास्तव – अखबारों की लड़ाई में बहुत सारे मुहावरे जुड़ जाएंगे और ज्यादातर अखबार सुविधाजनक लड़ाई में विश्वास रखते हैं। याद रखना होगा कि हम लोगों के कैरियर की शुरुआत में हुई लड़ाई में, जो ना आगे कभी होगी न दिखेगी, के समर्थन में कोई भी नहीं आया था। अक्कू श्रीवास्तव को ज्ञानेन्द्र नाथ का जवाब – मीडियाकर्मियों और हितों के लिए जिस ईमानदारी और सच्चाई से हमलोगों ने संघर्ष किया है वह आज के लोगों को काल्पनिक लगेगी।

लेकिन उसका एक एक प्रमाण और दस्तावेज़ आज भी मेरे पास मौजूद है। कड़वा और नंगा सच ये है कि राजनेताओं और अधिकारियों से नियमित उपकृत होने वाले पत्रकार और मीडियाकर्मी कभी भी पत्रकारिता की गरिमा और पत्रकारों के सम्मान की रक्षा नहीं कर सकते, रही प्रबंधन की बात तो उसके सत्य से हम सभी बखूबी वाकिफ़ है।

झारखण्ड के वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सहाय ने भी इस मुद्दे पर अपना मुंह खोला है, उन्होने कहा है कि दैनिक भास्कर में वो माद्दा नहीं, जो किसी सत्ता के कोपभाजन को झेल सके, मुकाबला कर सके, रामनाथ गोयनका-सीताराम मारु सरीखे विरले ही प्रबंधन होते हैं, जो पत्रकारिता के तेवर-जज्बात को सम्मान करते थे/हैं। रघुवर राज में उक्त अखबार कैसे एक घुड़की में रेंगने लगा था, यह झारखंड के सुधि पाठक जानते हैं। विज्ञापन पाने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे भास्कर अपनाती रही है, यह किस्सा किसी से छुपा नहीं हैं।

ये तो रही पत्रकारों की बात, खुद दैनिक भास्कर को आयकर विभाग के छापे वाले मुद्दे पर देश के सम्मानित अखबारों/चैनलों का साथ नहीं मिला। ज्यादातर बड़े भारतीय अखबारों ने समाचार छाप कर इतिश्री कर ली है, किसी ने दैनिक भास्कर के पक्ष में आकर ये नहीं लिखा कि केन्द्र सरकार ने ऐसा करके गलत किया है। जो भी लिखा है, तो वो विदेशी अखबारों ने जो दैनिक भास्कर के कट्ट्रर समर्थक और भारत विरोधी पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं।

अंदर के अखबारों में केवल कांग्रेस पार्टी के नेताओं के उनके समर्थन में बयान है, बाकी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियों के नेता भी इनके पक्ष में बयान देने से अपने को अलग रखा है। कई सामाजिक संगठनों ने तो दैनिक भास्कर के चरित्र तक पर अंगूली उठा दी हैं, इसी से पता लग जाता है कि दैनिक भास्कर की इज्जत आम आदमी या सामाजिक संगठनों के बीच में क्या है?

हालांकि दैनिक भास्कर ने अपने आज के समाचार में लिखा है कि प्रमोटर्स ने कहा, भास्कर की पत्रकारिता का सिद्धांत है – सबसे पहले पाठक, हम सच्चाई की राह पर यू ही चलते रहेंगे, जबकि सच्चाई है कि ये अखबार पाठको के बीच में भी विभेद करता/कराता है, पाठकों में एक पाठक को नीचा दिखाते हुए दूसरे वर्ग को कहता है कि आपकी चलेगी मर्जी, एक तो विज्ञापन ही इसने निकाला था – “अब घर में आपकी बीवी की नहीं, आपकी चलेगी मर्जी।”

इसकी इस विज्ञापन से ही आप समझ लीजिये कि दैनिक भास्कर क्या है? हालांकि मैंने कल भी दैनिक भास्कर पर प्रमाण के साथ लिखा था कि यह कैसे कोरोना में मृतकों के परिवारों से भी शोक सूचना निकालने के नाम पर दस प्रतिशत छूट की घोषणा करते हुए आपदा में भी अवसर ढूंढ निकाले थे। इसलिए दैनिक भास्कर की ये हालत हो गई, लोग अभी भी भारत सरकार के पक्ष में मजबूती से खड़े हैं, लेकिन भास्कर के पक्ष में फिलहाल कोई नहीं दिख रहा।