करोड़ों के भवन में रहकर RPC के अधिकारियों ने पत्रकारों के माथे लगाया कलंक, पत्रकारों को भोजन मिले, इसके लिए दो संस्थाओं के आगे फैलाई हाथ

व्हाट्सएप के माध्यम से जैसे ही मुझे रांची प्रेस क्लब से संबंधित समाचार की, एक अखबार की कटिंग प्राप्त हुई। मैंने उसे पढ़ना शुरु किया और पढ़ने के बाद जो हमारे मुख से निकला वो बात यह थी – “दो जून की रोटी के लिए भटकते रांची के गरीब पत्रकारों के लिए मिशन ब्लू फाउंडेशन व होटल प्रकाश रेजीडेंसी ने जिस प्रकार रांची प्रेस क्लब में दो टाइम भोजन का प्रबंध किया, अल्लाह ऐसे लोगों पर दौलत बरसाए, ताकि हम गरीब इनके साये में सुकून से जी सकें।”

भाई ऐसी बातें दिल से निकलनी ही चाहिए, क्योंकि आजकल गरीब पत्रकारों पर ध्यान कौन देता हैं, खासकर उन पत्रकारों पर, जिनको भगवान ने दो जून की रोटी भी नसीब नहीं कराई हैं, ये बेचारे बदनसीब पत्रकार तो रोज होनेवाले प्रेस कांफ्रेस और उनमें मिलनेवाले नाश्ते व भोजन से ही तो अपना पेट भरते थे, और जब से कोरोना ने पूरे देश में इंट्री मारी हैं, बेचारे पत्रकारों के मुंह से जैसे निवाला ही छीन गया।

ऐसे में रांची प्रेस क्लब के अधिकारियों के माध्यम से मिशन ब्लू फाउंडेशन और होटल प्रकाश रेजीडेंसी जैसी संस्थाएं आगे बढ़कर पत्रकारों को भोजन कराने के लिए उद्यत हुई, इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती हैं, क्योंकि भूखों को खाना खिलाना सबसे बड़ा फर्ज हैं, और रांची प्रेस क्लब के अधिकारियों ने इनकी सहायता से वो कर दिया, जो आज तक किसी ने नहीं किया। हम तो कहेंगे कि रांची प्रेस क्लब के सारे अधिकारियों व उनके औलादों को भी अल्लाह खुशियों से भर दें, भला दुनिया में इतने अच्छे प्रेस क्लब के अधिकारी कहां मिलेंगे, जो करोड़ों की बिल्डिंग रखकर, भोजन के लिए दूसरे की पॉकेट टटोलते हो।

कमाल की बात हैं, कुछ दिनों की ही तो बात हैं, जैसे ही लॉकडाउन हुआ, रांची प्रेस क्लब के अधिकारियों की टीम बड़े-बड़े अनाज के पैकेट लेकर रांची प्रेस क्लब के मुख्य द्वार पर आ पहुंचे और लोगों को अनाज की बोरियां थमाने लगे, एक अनाज की बोरी थमाने के लिए सात-सात लोग खड़े थे, जैसे लग रहा था कि वो अनाज की बोरी इतनी भारी है कि एक से उठ ही नहीं रही, लेकिन जो अनाज की बोरी लेनेवाली थी, वो अकेली ही थी, यानी उसमें अनाज की बोरी अकेले उठा लेने की कूबत थी।

सवाल उठता है कि कुछ दिन पहले तक रांची प्रेस क्लब दानवीर कर्ण बनी हुई थी, ये क्या हो गया कि अचानक वह मिशन ब्लू फाउंडेशन और होटल प्रकाश रेजीडेंसी के आगे नतमस्तक हो गई और इनके सहयोग से विभिन्न अखबारों में काम करनेवाले कथित गरीब-मजलूम, दाने-दाने को लाचार पत्रकार लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए दो-दो टाइम तैयार हो गई।

सवाल उठता है कि करोड़ों की बिल्डिंग में राज करनेवाले ये रांची प्रेस क्लब के अधिकारियों ने रांची के पत्रकारों को क्या समझ लिया, भाई जानवर और आदमी में एक अंतर हैं, जानवर को जैसे भी भोजन दो, वो स्वीकार कर लेगा, पर आदमी को भोजन सम्मान के साथ चाहिए, इससे अच्छा रहता कि रांची प्रेस क्लब भोजन की व्यवस्था ही नहीं करता, क्योंकि हमें नहीं लगता कि रांची में ऐसे भी पत्रकार हैं, जो अपने लिए अकेले वह भी दो रोटी की व्यवस्था नहीं कर सकते।

मैं तो यह भी कहुंगा कि दुनिया की कोई भी संस्थान या व्यक्ति अपने सम्मान के साथ समझौता तो नहीं ही कर सकता। क्या आनेवाले समय में ऐसी हरकत करनेवाले ये रांची प्रेस क्लब के अधिकारी या जो इस प्रकार से उपलब्ध भोजन को ग्रहण कर रहे हैं, आनेवाले समय में ये इन दोनों संस्थानों के पीढ़ियों के आगे खड़े होने की ताकत रखते हैं। उनके लोग तो कहेंगे, ताल ठोककर कहेंगे कि “अरे तू क्या बात करेगा, मेरे पूर्वज तुमलोगों को विपत्तियों के समय कई बार मदद कर चुके हैं, खाना खिला चुके हैं।” उस वक्त इनकी क्या स्थिति होगी?

सवाल तो रांची से प्रकाशित अखबारों/चैनलों/पोर्टलों के मालिकों से भी हैं कि क्या वे अपने यहां काम करनेवाले रिपोर्टरों/कैमरामैनों को ऐसे हालात में दो जून की रोटी भी प्रबंध नहीं कर सकते और अगर नहीं कर सकते तो भाई लानत हैं, ऐसे लोगों पर भी, जो संकट के समय अपनों के काम नहीं आ सके।

मैं तो कहूंगा, ऐ कल तक दानवीर कर्ण बने हुए लोगों, जो आप कल तक मास्क, दवाएं और भोजन दुसरों को उपलब्ध करा रहे थे, आज अपने लिए जरुरत पड़ी तो दूसरों के आगे हाथ क्यों फैलाया? और जब आपकी स्थिति ऐसी नहीं थी, तो ये झूठी शान दिखाने की क्या जरुरत थी? क्यों रांची प्रेस क्लब पर कलंक लगा रहे हो? क्यों आनेवाली पीढ़ियों को दूसरों के सामने कलंकित कर रहे हो, क्यों नहीं आप खुद ऐसे बन जाते हो कि लोग आपको सम्मान देने के लायक समझे, आपकी जो आदत हैं, हमेशा मुफ्त की तोड़नी की, उस पर विराम आप कब लगायेंगे।

कोरोना ने आपकी रही-सही इज्जत उतार ली हैं, आप लाख फोटो खिचाइये कि आपने लोगों को मास्क, दवाएं और भोजन उपलब्ध कराई, पर अखबार की एक कटिंग ने आपकी सब इज्जत उतार ली है। लोग समझ गये हैं कि आप क्या हो, आपकी इज्जत दो कौड़ी की नहीं। लोग समझ गये कि आप पहले भी जो सेवा की नौटंकी किये हो, उसमें भी किसी न किसी का हाथ हैं।

एक पत्रकार ने तो हमसे कहा कि उसने अपनी ओर से भोजन की व्यवस्था करने को कहा था, पर आपने उसकी बात ठुकरा दी और दूसरों के आगे हाथ फैला दिया। इसका कौन भरोसा दिलायेगा कि कालांतराल में जिसने आपको अभी भोजन कराया, वो आनेवाले समय में आपसे फायदा नहीं लेगा और आप उसे फायदा नहीं देंगे।

अरे फिल्म “शान” का गाना देखिये, जिसके बोल है – “सर किसी के सामने झूक जाये, मेरा ये मुझे मंजूर नहीं, आ पड़े वक्त तो मोहताज सही पर मैं मजबूर नहीं, जान पे खेल जाउं, मैं वो जिगर रखता हं, नाम अब्दूल हैं मेरा क्या?” मतलब अगर स्वाभिमान ही नहीं रहा तो फिर जीने का क्या मतलब, प्रेस क्लब का क्या मतलब?

आपलोग तो वरिष्ठ पत्रकार हैं, सुप्रसिद्ध साहित्यकार मैथिली शरण गुप्त की रचना तो पढ़े ही होंगे, जिसमें वे कहते हैं – “निज गौरव का नित ज्ञान रहे, हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे, सब जाय अभी पर मान रहे, मरणोत्तर गुंजित गान रहे।” यहां तो जीवित ही मान समाप्त हो रहा हैं, क्या कहें? पता नहीं रांची प्रेस क्लब के अधिकारी इस लगे कलंक को कब और कैसे धोयेंगे?