अपराध

बकोरिया कांड में शामिल लोगों को सलाखों के पीछे पहुंचाने में CBI को ज्यादा दिमाग लगाना नहीं पड़ेगा

चूंकि झारखण्ड उच्च न्यायालय ने बकोरिया कांड की सीबीआई जांच के आदेश दे दिये हैं, तो हमें नहीं लगता कि सीबीआई को इस जांच रिपोर्ट को झारखण्ड उच्च न्यायालय को सौंपने में ज्यादा समय लगेगा, क्योंकि मामला पूर्णतः आइने की तरह साफ हैं और इसके लिए बधाई देनी होगी, राज्य के उन पुलिस पदाधिकारियों को, जिन्होंने तरह-तरह के प्रलोभन मिलने एवं नाना प्रकार के दबावों के बावजूद अपनी नैतिकता को बचाये रखा, नहीं तो ये बकोरिया कांड भी अन्य कांडों की तरह सरकार और उनके अनैतिक पुलिस पदाधिकारियों के कुकर्मों के आगे दम तोड़ देता।

पर अब यकीन मानिये, कि इसका रिजल्ट सुखद आयेगा, क्योंकि इस कांड पर झारखण्ड उच्च न्यायालय ने अपनी नजर गड़ा दी है, इसलिए अब राज्य की जनता विश्वास कर सकती है कि जल्द ही उसे बकोरिया कांड में न्याय देखने को मिलेगा और जो षडयंत्रकारी हैं, जिन्होंने कानून के साथ खिलवाड़ किया हैं, जिन्होंने नाबालिगों को अपनी गोली का शिकार बनाया है, वे जल्द ही सलाखों के पीछे होंगे।

दरअसल 22 अक्टूबर 2018 को राज्य सरकार और उनके बड़े-बड़े मठाधीशों को,  जिनका दावा था कि वे कोर्ट तक को मैनेज कर लेंगे, उन्हें विश्वास ही नहीं था कि झारखण्ड हाई कोर्ट द्वारा इस प्रकार का फैसला आयेगा और राज्य की सीआइडी कटघरे में होगी तथा पूरे पुलिस सिस्टम पर इस प्रकार का दाग लगेगा, पर दाग तो लगा है, आश्चर्य तो तब और हुआ, जब बात उठी कि झारखण्ड उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय जायेगी, पर इसे राज्य सरकार की सद्बुद्धि कहिये कि उसने अपने इस फैसले से स्वयं को अलग कर लिया।

ज्ञातव्य है कि झारखण्ड पुलिस द्वारा शो किया गया था कि पलामू के सतबरवा थाना के बकोरिया गांव के पास आठ जून 2015 को पुलिस की नक्सलियों के साथ मुठभेड़ हुई, जिसमें 12 लोग मारे गये, नौ जून को इस मामले में कांड संख्या 349/2015 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई, पूर्व में तो इस मामले की जांच सामान्य ढंग से चल रही थी, बाद में इस मामले की जांच राज्य सरकार ने सीआइडी को सौंप दिया।

बकोरिया कांड मामले में झारखण्ड हाई कोर्ट के जस्टिस रंगन मुखोपाध्याय ने तो अपने फैसले में साफ कह दिया कि राज्य पुलिस और सीआइडी जैसी जांच एजेंसियों से लोगों का विश्वास खत्म हो रहा है, ऐसे में उस विश्वास को कायम करने, उसे वापस स्थापित करने के लिए इसकी स्वतंत्र जांच जरुरी है। जस्टिस रंगन मुखोपाध्याय ने तो साफ कहा कि पलामू सदर थाना के तत्कालीन प्रभारी हरीश पाठक के बयानों से जांच पर गंभीर सवाल उठ खड़े होते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस पर से जनता का विश्वास खत्म हो गया है।

ज्ञातव्य है कि तत्कालीन एडीजीपी एम वी राव ने एक जनवरी 2018 को पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि राज्य के पुलिस महानिदेशक इस कांड की धीमी जांच के लिए दबाव डाल रहे हैं, इसके तुरन्त बाद ही एमवी राव का तबादला राज्य सरकार ने पुलिस महानिदेशक डी के पांडेय के कहने पर दिल्ली कर दिया। इसके अलावा एडीजी रेजी डुंगडुंग, डीआइजी हेमन्त टोप्पो, आइजी सुमन गुप्ता सहित आठ अधिकारियों का भी स्थानान्तरण कर दिया।

आश्चर्य इस बात की है कि जिस पलामू के सतबरवा थाने के बकोरिया गांव में मुठभेड़ बताया जा रहा था, वहां के थाना प्रभारी को मालूम ही नहीं था कि उसके इलाके में मुठभेड़ हुआ है। दरअसल सर्वप्रथम इसकी सूचना राज्य के पुलिस महानिदेशक ने पलामू के डीआइजी हेमन्त टोप्पो को फोन पर दी, कि उनके इलाके में मुठभेड़ हुआ है, जिस पर हेमन्त टोप्पो ने कहा कि उन्हें इस घटना की जानकारी नहीं। जब हेमन्त टोप्पो ने पलामू के एसपी कन्हैया मयूर पटेल व लातेहार के एसपी अजय लिंडा से इस संबंध में सवाल पूछा, तब इन दोनो का कहना था कि उन्हें भी इस बात की जानकारी नहीं कि उनके इलाके में ऐसी कोई घटना घटी है।

यानी इतनी बड़ी घटना घट गई, वह भी पलामू के सतबरवा के बकोरिया में और वहां के पलामू एसपी, लातेहार एसपी, पलामू के डीआइडी और सतबरवा के थाना प्रभारी को इसकी बात की जानकारी ही नहीं, और लगता है कि यहीं घटना बताने के लिए काफी था कि ये नक्सली पुलिस मुठभेड़ नहीं थी, बल्कि यह अपराधिक घटना थी, जिसे नक्सली-पुलिस मुठभेड़ दिखाकर, जनता को बरगलाया गया, जिस घटना में निर्दोषों की संख्या अधिक थी, जिसमें पांच नाबालिग थे।

कमाल है कि पलामू के एसपी ने तत्कालीन पलामू सदर थाना प्रभारी हरीश पाठक को इसके घटना का वादी बनने को कहा, जब हरीश पाठक ने वादी बनने से इनकार किया तब सतबरवा के तत्कालीन थाना प्रभारी मो. रुस्तम को जबरन वादी बना दिया गया, यानी एक घटना जो उस इलाके में घटी ही नहीं, उसे स्थापित करने के लिए राज्य की पुलिस ने यही से षडयंत्र करना शुरु किया और जिसने इस षडयंत्र में शामिल होने से इनकार किया, उस पर सुनियोजित साजिश के तहत निलंबन एवं स्थानान्तरण का तलवार लटकाना शुरु कर दिया गया।

सर्वाधिक शर्मनाक भूमिका राज्य के सीआइडी ने निभाई। शपथ पत्र में कई महत्वपूर्ण तथ्य छिपाये गये। मृतकों में पांच नाबालिग हैं, ये भी छुपाया गया। मृतकों के उम्र तक उसने छुपाये, शपथ पत्र में सिर्फ एक के नक्सली होने का उल्लेख किया, पर बाकियों के बारे में उसने जानकारी ही नहीं दी।

आश्चर्य यह भी है कि पलामू सदर थाना प्रभारी हरीश पाठक के बयान पर ही सीआइडी ने सवाल खड़े कर दिये, सीआइडी का कहना था कि चूंकि घटना बकोरिया में घटी, इस कारण इस घटना से हरीश पाठक का कोई लेना-देना नहीं, जबकि उस घटना के बाद जिस प्रकार से हरीश पाठक ने अपनी भूमिका निभाई, उसे नजरंदाज करने की हिमाकत कोई कर ही नहीं सकता था, यानी सीआइडी ने इस मामले को रफा-दफा करने में, खूब भूमिका निभाई। एक बार तो ऐसा लगा कि सीआइडी अपने इस कार्य में सफल हो जायेगी, पर लगता है कि बकोरिया कांड में मारे गये लोगों की आत्मा इन षड्यंत्रकारियों को छोडने नहीं जा रही।

सूत्र बताते है कि अगर वैज्ञानिक साक्ष्यों का अवलोकन करें तो इस कांड में शामिल षड्यंत्रकारियों का अब बचना नामुमकिन है, अब उन्हें जेल जाने से कोई रोक नहीं सकता। इस फर्जी मुठभेड़ की घटना में झूठे साक्ष्य और लोक न्याय के खिलाफ अपने कर्तव्यों का निर्वहण न कर तत्कालीन पुलिस उपाधीक्षक एवं पुलिस अधीक्षक पलामू ने पर्यवेक्षण टिप्पणी निर्गत कर भादवि के प्रावधानों के तहत संज्ञेय अपराध किया है, जबकि इस मामले में सीआइडी ने रही-सही कसर निकाल दी है, जिसने न्यायालय में अंतिम प्रतिवेदन देकर यह बता दिया कि उनका अनुसंधान सही है।

ऐसे तो सीआइडी के अंतिम प्रतिवेदन में कई छेद है, जिसका जवाब सीआइडी के पास भी नहीं है, और न इसका जवाब उन वरीय पुलिस अधिकारियों के पास है, जो इस कांड में शामिल षडयंत्रकारियों को बचाने में उसी दिन से लगे हैं, जिस दिन इस कांड को अंजाम दिया गया। फिर भी इस कांड के कई वैज्ञानिक साक्ष्य खुलकर बता रहे है कि बकोरिया कांड में कैसे यहां की पुलिस ने निर्दोषों को अपना निशाना बनाया।

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 1 – पलामू पुलिस ने स्कार्पियो के चालक का शव अगली सीट से बरामद किया, सीट पर बिछे तौलिये में खून लगा हुआ मिला। उसके पैंट में मिले डाइविंग लाइसेंस के आधार पर उसकी पहचान एजाज अहमद के रुप में स्थापित हो गई, विधि विज्ञान प्रयोगशाला ने इस तौलिया की जांच कर, अपनी रिपोर्ट में मृत चालक एजाज अहमद का रक्त श्रेणी AB बताया, क्योंकि यह उसके डाइविंग लाइसेंस पर लिखा हुआ था, किन्तु विधि विज्ञान प्रयोगशाला ने रक्तश्रेणी का आर एच फैक्टर नहीं बताया, क्योंकि यह बात ड्राइविंग लाइसेंस पर मिटा हुआ था।

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 2 – विधि विज्ञान प्रयोगशाला ने डीएनए जांच कराये बिना यह कैसे निर्धारित कर दिया कि तौलिया में लगा खून मृतक एजाज अहमद का ही था। सूत्र बताते है कि पुलिस के बड़े आलाधिकारी के निर्देश पर सतबरवा ओपी के सहायक अवर निरीक्षक एवं चौकीदार ने मिलकर पोस्टमार्टम हाउस में टाटा 407 पर लादकर लाये गये शवों के एंटीबॉडीज को इस तौलिया में लगाया था।

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 3 – पलामू पुलिस की थ्योरी के अनुसार, जब नक्सलियों के पास से बरामद सभी आठों हथियार कारगर थे एवं उसके बैरल से बारुद की गंध आ रही थी, तो इन हथियारों को जांच के लिए विधि विज्ञान प्रयोगशाला में बैलेस्टिक एक्सपर्ट के पास भेजने के पहले सार्जेन्ट मेजर ने इन हथियारों से फायरिंग कर बैरल एवं चेम्बर में गैस फॉलिंग का अवशेष क्यों तैयार किया?

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 4 – विधि विज्ञान प्रयोगशाला ने भी सभी हथियार से फायरिंग एवं कारगर होने का जांच प्रतिवेदन दिया। सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि बिना वोल्ट वाले 30.06 राइफल के फायरिंग पिन को कारगर बताया। विधि विज्ञान प्रयोगशाला के रिपोर्ट के अनुसार हाथ के धोवन में अज्ञात 19 वर्ष, 28 वर्ष एवं 25 वर्ष वाले तीन नक्सलियों द्वारा बाये हाथ से हथियार चलाये जाने की पुष्टि हुई है। ऐसे में पलामू पुलिस एवं सीआइडी आज तक यह प्रमाणित नहीं कर सकी कि वे कौन तीन नक्सली थे, जो लेफ्ट हैंडेड थे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि तथाकथित मुठभेड़ के समय पुलिस पर जानलेवा हमला करने के लिए बाकी पांच हथियार कौन चला रहा था?

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 5 – पोस्टमार्टम करनेवाले चिकित्सक दल ने भी गलत करने में कोई कोताही नहीं बरती, दस से बाहर वर्ष के उम्रवाले बच्चों को 19 वर्ष एवं उससे उपर घोषित कर दिया।

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 6 – पलामू पुलिस ने एक दूसरे नक्सली का शव राइफल के साथ स्कार्पियो के बीचवाली सीट पर से बरामद किया, किन्तु बीच वाले सीट पर बिछे तौलिया या स्कार्पियो के फर्श पर पुलिस को एक बूंद भी खून नहीं मिला।

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 7 – विधि विज्ञान प्रयोगशाला एवं सीआइडी टीम ने जब्त स्कार्पियो की जांच करने पर पाया कि स्कार्पियो के दोनो साइज का तीन-तीन, अगला एवं पिछला सभी आठों शीशा पुरी तरह से झड़ा हुआ है, जबकि पलामू पुलिस को घटनास्थल के जमीन पर शीशा का टुकड़ा नहीं मिला। स्कार्पियों के दर्जन से भी ज्यादा ऐसे फोटो उपलब्ध है, जिसमें स्कार्पियो के दोनो साइड के शीशे सही सलामत है, एवं अगला तथा पिछला शीशा में छेद है। स्कार्पियो का सभी शीशा तोड़ने के पीछे पुलिस की मंशा साफ दीख जाती है।

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 8 – जांच टीम को स्कार्पियो के भीतर एवं बाहर कही पर एक भी बूंद खून नहीं मिला है और न ही एक भी पिलेट। इसके विपरीत पलामू पुलिस ने तो स्कार्पियो के भीतर दो-दो तथाकथित नक्सलियों का शव बरामद किया है। किसी भी मृतक के सिर पर आगे या पीछे गोली नहीं लगी है, लेकिन स्कार्पियो के सीट हेड में गोलियों के कई छेद है। स्कार्पियो में ड्राइवर साइड के गेट में अंदर से बाहर की ओर इवर्टड गोली के निशान है, क्या डाइवर गाड़ी और बंदूक दोनो चला रहा था? स्कार्पियो में इस तरह के बनावटी अन्य निशान का सीआइडी के पास कोई जवाब ही नहीं।

वैज्ञानिक साक्ष्य नं. 9 – इतनी बड़ी घटना में जब्त किये गये मात्र दो मोबाइल का आइएमइआइ नंबर भी जानबूझकर पन्द्रह-सोलह अंकों से कम लिखा गया। मोबाइल का सिम कार्ड छिपा लिया गया, इसका हैश भैल्यू या कोड डालकर आइएमइआइ नहीं निकाला गया, क्योंकि सीडीआर निकालने पर पलामू के फर्जी मुठभेड़ का कच्चा चिट्ठा खुल जाता। ऐसे ही कई वैज्ञानिक साक्ष्य हैं, जो बताने के लिए काफी है कि बकोरिया कांड में राज्य पुलिस एवं सीआइडी की भूमिका संदेहास्पद रही है।