अपनी बात

आज हमारे परम मित्र अरुण श्रीवास्तव जी का जन्मदिन है, जिन्हें मैं कभी नहीं भूला सकता

आज हमारे परम मित्र अरुण श्रीवास्तव जी का जन्मदिन है। अरुण श्रीवास्तव जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन उसके बावजूद उनके परिवारवालों और उनके चाहनेवालों ने उनका जन्मदिन उनके ही प्रतिष्ठान में बड़े ही धूम-धाम से मनाया। जब स्व. अरुण श्रीवास्तव जी का जन्मदिन मनाया जा रहा था। तो उस वक्त मैं भी वहां मौजूद था। सौभाग्य कहिये या दुर्भाग्य जब तक वो जीवित थे, कभी भी उनके जन्मदिन पर हमें रहने का मौका नहीं मिला।

लेकिन आज जब वे दिवंगत हो चुके हैं, तो मैं उनके जन्मदिन समारोह में मौजूद था। कहा भी जाता है – कः जीवति? अर्थात् कौन जीवित है? उत्तर हैं – कीर्तियस्य सः जीवति अर्थात् जिसकी कीर्ति हैं वो जीवित है। मैंने तो बहुत लोगों को देखा हैं कि कहने को तो वे जीवित हैं। लेकिन उनका जीवित रहना या न रहना दोनों बराबर होता है। अरुण श्रीवास्तव ऐसा करके ही गये हैं कि उन्हें कोई भूला नहीं सकता। मैं तो जब तक जीवित रहूंगा, उन्हें भूला नहीं सकता।

क्योंकि उनका मेरे उपर बहुत बड़ा उपकार है। मैं ईश्वर की नजरों और उस दिवंगत आत्मा की नजरों में कृतघ्न की उपाधि से विभूषित होना नहीं चाहता। जब भी मैं अरुण श्रीवास्तव जी के प्रतिष्ठान में जाता हूं। हमें अनुभूति होती हैं कि अरुण श्रीवास्तव वहां मौजूद हैं। ऐसे भी उनके लिए कही भी रहना या अपने चाहनेवालों के बीच में उपस्थिति दर्ज करवा देना क्या मुश्किल हैं? लेकिन इसकी अनुभूति सभी को नहीं होती और न हो सकती है। इसकी अनुभूति उसी को होगी, जिसे अरुण जी चाहेंगे।

अरुण श्रीवास्तव जी के सपनों को फिलहाल उनकी पत्नी नमिता श्रीवास्तव जी तथा उनके छोटे भाई आनन्द श्रीवास्तव आगे बढ़ा रहे हैं। जब भी इनलोगों को देखता हूं तो आनन्द से मैं स्वयं भर जाता हूं। क्योंकि जो आनन्द हमें अरुण श्रीवास्तव जी से उनके जीवित रहते मिला और अब दिवंगत होने के बावजूद भी हमें प्राप्त हो रहा हैं। उससे कम स्नेह ये लोग हमसे नहीं करते। मुझे गर्व होता है कि मेरे मित्र अरुण श्रीवास्तव रहे हैं।

अरुण श्रीवास्तव को कभी भी अपने लिये जीते मैंने नहीं देखा। हमेशा वे उनके लिए जीने की कोशिश करते, जिनके लिए शायद ही कोई जीता हो। कोरोना काल में जब देश के बड़े-बड़े उद्योगपति अपने यहां छंटनी कर रहे थे। उस वक्त मैंने देखा कि अरुण श्रीवास्तव अपने यहां काम करनेवालों का विशेष ध्यान रख रहे थे। किसी को भी अपने प्रतिष्ठान से जाने नहीं दिया। सभी को सम्मान के साथ रखा। वे तो ऐसे व्यक्ति थे कि उनके यहां जो काम नहीं भी करता। उसके लिए भी उनके घर का दरवाजा हमेशा खुला रहता।

सभी को आनन्द देना, खुशियां देना, कुछ करने के लिए हमेशा तत्पर रहना उनकी आदतों में शुमार था। ऐसे तो हमारे जीवन में कई मित्र आये। लेकिन अरुण श्रीवास्तव जैसा कोई हमें कोई नहीं मिला और न मिल सकता है। क्योंकि अरुण श्रीवास्तव जैसे लोग विरले मिलते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है – महत्वपूर्ण यह नहीं कि कौन कितने दिन जीया? महत्वपूर्ण यह है कि वो जितने दिन जीया, कैसे जीया? अरुण श्रीवास्तव जी हम आपको हृदय से श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं।

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