जो व्यक्ति जीवन के अंतकाल में ईश्वर को स्मरण करते हुए देह त्यागता है, वो उनके ही स्वरूप को प्राप्त होता हैः स्वामी प्रज्ञानन्द
रांची स्थित योगदा सत्संग आश्रम के श्रवणालय में आयोजित रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए स्वामी प्रज्ञानन्द ने योगदा भक्तों के बीच में श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय पर विशेष रूप से प्रकाश डालते हुए ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म से संबंधित विषयों पर अर्जुन द्वारा भगवान कृष्ण से पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों की विस्तृत चर्चा की, जिससे योगदा भक्त स्वयं को श्रीमद्भगवद्गीता के इस आठवें अध्याय में भगवान कृष्ण द्वारा बताये गये उत्तरों से लाभान्वित किया।
स्वामी प्रज्ञानन्द ने श्रीमद्भगवद्गीता को उद्धृत करते हुए कहा कि अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा था कि प्रभु आप बताएं कि ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या है? अधिदैव किसको कहा जाता है? अधियज्ञ कौन है? यह इस शरीर में कैसे है? तथा आप पुरुषों द्वारा अंत समय में किस प्रकार जानने में आते हैं?
स्वामी प्रज्ञानन्द जी ने गीता में छुपे हुए इन प्रश्नों के उत्तर को बड़े ही सारगर्भित ढंग से योगदा भक्तों के बीच रखा और इन सारे प्रश्नों के उत्तर परमहंस योगानन्द जी द्वारा बताये गये दृष्टांतों के साथ योगदा भक्तों के बीच में सरल भाषा में रख दी। उन्होंने कहा कि जिसे ब्रह्म कहा गया है, दरअसल वो परम अक्षर ॐ ही ब्रह्म है। अर्थात् वो सत्+चित्त्+आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्द है। वो सभी प्राणियों में व्याप्त और अविनाशी तत्व है, जिससे सभी की उत्पत्ति सुनिश्चित है।
उन्होंने कहा कि भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि जो जीवात्मा है, वो ही अध्यात्म है और भूतों के भाव को उत्पन्न करनेवाला जो त्याग है, उसका नाम कर्म है। उन्होंने गीता के श्लोकों को उद्धृत करते हुए कहा कि उत्पति और विनाश धर्मवाले सारे पदार्थ अधिभूत और जिसे शास्त्रों में प्रजापति, ब्रह्मा, सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ आदि नामों से पुकारा गया है, वो हिरण्मयपुरुष ही अधिदैव है और जिसे अधियज्ञ कहा गया है, वो मैं ही हूं।
स्वामी प्रज्ञानन्द ने कहा कि जो व्यक्ति जीवन के अंतकाल में ईश्वर को स्मरण करते हुए देह त्यागता है, भगवान कृष्ण कहते हैं कि वो उनके ही स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है, पर ये इतना आसान भी नहीं हैं कि कोई व्यक्ति देह त्याग के समय मेरे स्वरूप को याद करते हुए मेरा नाम ले ही लें। उन्होंने कहा कि कोई अच्छा है या बुरा, इसके लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं, उसके लिए वो खुद जिम्मेवार है। क्योंकि कर्म हमारे जीवन को हमेशा प्रभावित करता है, चाहे हम जितना भी जन्म क्यों न लें।
निस्वार्थ भाव से ईश्वर को समर्पित किया गया कर्म ही ईश्वर को सदैव प्रिय है। ठीक उसी प्रकार जब हम कोई किसी यज्ञ में कोई किसी देवता के लिए आहुति देते हैं तो उस समय जो मंत्र प्रयोग करते हैं। उस मंत्र में भी यही निहित होता है कि ये जो आहुति हम दे रहे हैं, वो सिर्फ और सिर्फ आपके लिए हैं, न कि मेरे लिए। जैसे ओम् इन्द्राय स्वाहा, इदं इन्द्राय नमम्।
स्वामी प्रज्ञानन्द ने कहा कि कर्म का अर्थ है आत्मा के स्वरूप को जानते हुए सांसारिक इच्छाओं से खुद को मुक्त कर देना। जो भी व्यक्ति प्रयाण काल के समय ओम् शब्द का जप करता है, ईश्वर का स्मरण करता है, वो जीवन और मृत्यु के चक्र से सदा के लिए मुक्त होकर मोक्ष को पा जाता है।
स्वामी प्रज्ञानन्द ये भी कहा कि ईश्वर सर्वज्ञ, सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म, सभी के आधार और अचिन्त्य दिव्य स्वरूपवाले है, वे सूर्य से भी अधिक तेजस्वी तथा अंधकार से परे हैं, जो भी व्यक्ति मृत्यु के समय योगाभ्यास द्वारा प्राप्त स्थिर मन से अपने प्राणों को कूटस्थ पर एकाग्रकरके भक्तिपूर्वक भगवान का स्मरण करता है, वह अवश्य ही भगवान को प्राप्त करता है। जो भी व्यक्ति ओम् अक्षर का जप करते हुए शरीर से प्रस्थान करेगा, वो मोक्ष को प्राप्त करेगा। भगवान कृष्ण के शब्दों में जब वो हमारे शरण में आयेगा तो उसे पुनर्जन्म लेना नहीं पड़ेगा, वो परम सिद्धि को प्राप्त कर लेगा।