धर्म

गीता जयन्ती की पूर्व संध्या पर विशेषः गीता एक रहस्यमय ग्रंथ व संपूर्ण वेदों का सार, इसे जानने के लिए परमहंस योगानन्द कृत ‘ईश्वर-अर्जुन संवाद’ पढ़ें

गीता जयंती उत्सव सभी सनातन धर्मावलंबियों द्वारा मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी तिथि को मनाया जाता है। इसे मोक्षदा एकादशी भी कहते हैं। यह वही तिथि है, जिस दिन भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान में विषाद ग्रस्त अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। सनातनी इस दिन तरह-तरह के आयोजन करते हैं, जिनका उद्देश्य गीता के गूढ़ ज्ञान को सर्वजन हिताय, सरलता और सफलता पूर्वक आम लोगों तक पहुंचाना होता है।  

गीता के जन्म से लेकर अभी तक की सहस्राब्दियों के दौरान साधु संतों ने अपने देश व काल अनुसार इसकी न जाने कितनी व्याख्याएं की हैं, और टीकाएं लिखी हैं। इन्हीं में से एक है परमहंस योगानन्द कृत ईश्वर-अर्जुन संवाद (‘गॉड टॉक्स विद अर्जुन’ का हिन्दी अनुवाद)। आत्मा और परमात्मा के बीच अविनाशी संवाद की यह अनोखी व्याख्या विज्ञान सम्मत सोच वाले पाठक को हतप्रभ कर देती है। इसे पढ़ने के बाद संसार में पढ़ाए जाने वाले सभी पाठ्यक्रम फ़ीके लगने लगते हैं। मतलब अगर इसमें दिए ज्ञान का आंशिक अभ्यास भी किया जाए तो जीवन को समग्रता से समझने और जीने के लिए काफ़ी है।  

योगानंदजी कृत “ईश्वर-अर्जुन संवाद:  श्रीमद्भगवद्गीता” को योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया की सहोदर संस्था  सेल्फ़–रियलाईज़ेशन  फ़ेलोशिप ने पहली बार अँग्रेजी में 1995 में प्रकाशित किया और कुछ ही वर्षों में इसे विश्व की बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक कृतियों में से एक माना जाने लगा।  

इस टीका में योगानंदजी ने गीता के मर्म की न केवल भौतिक शरीर बल्कि मन और आत्मा के  स्तर पर भी व्याख्या की है। उन्होंने मनोविज्ञान, भाषा विज्ञान, गूढ़-शरीर विज्ञान, ब्रह्मांड विज्ञान, आध्यात्मिक शिक्षा और योग सिद्धांतों का आश्चर्यजनक रूप से वर्णन किया है, जो इसे एक उत्कृष्ट आध्यात्मिक, दार्शनिक और साहित्यिक कृति बनाते हैं। जीवन व मानव अस्तित्व का कोई भी ऐसा महत्पूर्ण पक्ष नहीं है जिसे यह पुस्तक स्पर्श नहीं करती। यह एक ऐसी पुस्तक है जिसे व्यक्ति जीवन-भर अध्ययन कर सकता है और इसे प्रेम कर सकता है ।

अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ़ वैदिक स्टडीज़  के  निदेशक डॉ वाम देव शास्त्री (डॉ. डेविड फ्रॉले ) के अनुसार “योगानंद एक सर्वोच्च कोटि के ऋषि और एक आध्यात्मिक वैज्ञानिक हैं, वे आने वाली विश्व सभ्यता के लिए योग के अवतार प्रतीत होते हैं। नि:संदेह उनके इस कार्य का प्रभाव युगों तक  बना रहेगा।”  संत गीता की महिमा बताते हुए इसे एक रहस्यमय ग्रंथ और संपूर्ण वेदों का सार कहते हैं। इसे एकाग्रचित्त हो श्रद्धा-भक्ति पूर्वक नियमित पढ़ने और अभ्यास करने से नित नए-नए भाव मन में उठते रहते हैं जो नित नवीन होते हैं। योगानंदजी की टीका संतों की इस बात की  पुष्टि करती है। क्योंकि इसे पढ़ने और अभ्यास करने से ज्ञान और आनन्द की परतें सच में खुलने लगतीं हैं।  

परमहंस योगानंद ने 1917 में भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (yssofindia.org) की स्थापना की थी। वह 1920 में बोस्टन में आयोजित ‘धार्मिक उदारतावादियों के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ में भारत का प्रतिनिधित्व करने अमेरिका गए। जहां धर्म विज्ञान पर उनका व्याख्यान सुनकर लोगों ने उन्हें भारत नहीं लौटने दिया। वहां भी उन्होंने क्रिया-योग विज्ञान को विश्व भर में फैलाने के लिए ‘सेल्फ़-रियलाईज़ेशन फ़ेलोशिप’ संस्था की स्थापना की, और पश्चिम में योग के जनक के नाम से प्रसिद्ध हुए। आज भी उनकी दोनों संस्थाएँ क्रिया-योग विज्ञान और उनकी शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार में लगी हुई हैं। अधिक जानकारी के लिये: www.yssofindia.org से सम्पर्क करें। इस आलेख की लेखिका अलकेश त्यागी है।