अपनी बात

अखबारानन्द बने रांची की पूजा समितियों के लोग, एक अखबार से पीतल के कुछ टुकड़े लेकर लगे प्रफुल्लित होने, सोशल साइट पर लगे चेपने और स्वयं को कृतार्थ घोषित करने में भी नहीं की परहेज

जिस शहर में पूजा व धर्म के नाम पर करोड़ों रुपये फूंकने का दौड़ चल रहा होता हो। जहां पूजा को भी इवेन्टस बना दिया गया हो। करोड़ों रुपये फूंकने के लिए विशेष पंडाल बनाये जाते हो। कलात्मक प्रतिमाएं बनाई जाती हो। जहां पूजा बाह्याडंबर का शिकार हो। जहां आस्था से खिलवाड़ करने में पूजा समितियां-अखबार के कारोबार में शामिल लोगों से हाथ मिलाने में शर्म तक महसूस नहीं करते हो और उनके हाथों से कुछ रुपये के पीतल पर अंकित कुछ शब्द को लेकर पागलों की तरह हरकतें करने लगते हो।

तो वहां अखबार व अन्य मीडिया के लोग विभिन्न प्रकार के संस्थानों जैसे – प्रतिमा इंटरप्राइजेज, सेंटर फोर साइट, सीताराम सुजुकी, साईनाथ यूनिवर्सिटी, आजमानी इंफ्रास्ट्रक्चर एंड प्रोजेक्ट प्राइवेट लिमिटेड, वेद टेक्सटाइल्स, बैंक ऑफ इंडिया, केनरा बैंक, पंजाब नेशनल बैंक जैसे संस्थानों से जमकर अपने लिए आर्थिक व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त कर लेते हो, स्वयं को आर्थिक रूप से मजबूत बना लेते हो, तो गलत क्या है?

वो कहावत है न – जहां लालची लोग होते हैं, वहां ठग कभी भूखों नहीं मरता। ठीक उसी प्रकार जहां पूजा के नाम पर, अखबारों से ये बेमतलब की चीजों को लेकर उछलनेवालों का जहां समूह होता हैं, वहां न तो माता की पूजा होती है, न वहा अध्यात्म होता है, वहां शुद्ध रुप से आर्थिक व्यवसाय होता हैं, उस आर्थिक व्यवसाय में सभी अपने-अपने ढंग से अपने धर्म व संस्कृति का उपहास उड़ाते हुए अट्टहास कर अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करते हैं और उस प्रदर्शन का यहीं अखबार वाले अपनी लाइफ सिटी पृष्ठों पर उसका प्रदर्शन भी करते हैं।

जिस प्रदर्शन को भी ये मूर्खों का समूह आनन्द का प्रमाण पत्र मानकर स्वयं को परमानन्द में डूबा महसूस करता है। जबकि इन्हें पता भी नहीं कि परमानन्द, सच्चिदानन्द, ब्रह्मानन्द क्या होता हैं और इन तीनों के आनन्द को कैसे समझा जा सकता है? उसका मूल कारण है कि इन्हें तो यह भी नहीं पता कि आनन्द कितने प्रकार का होता है? इनको परमानन्द, सच्चिदानन्द व ब्रह्मानन्द से क्या मतलब, इन्हें तो अखबारानन्द में ही सारी दुनिया दिखाई पड़ जाती है और ये स्वयं को कृतार्थ महसूस कर लेते हैं। शायद इन्हीं विकृतियों के कारण आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मूर्ति पूजा का विरोध किया था।

सच्चाई यही है कि जो आप चाहते है। मां वहीं देती हैं। भगवती वहीं देती हैं। आप ने मांगा अखबारानन्द, मां ने आपको अखबारानन्द दे दिया। आपने आध्यात्मिक चेतना की सर्वोच्च ऊंचाई तो मांगी नहीं थी और न ही उनसे वार्षिकी आशीर्वाद मांगा था, तो मां आपको देंगी कैसे? हमें तो आश्चर्य होता हैं कि जिस राज्य में अरबों रुपये केवल दुर्गा पूजा में वो भी पूजा के नाम पर फूंक दिये जाते हो। वहां इतनी गरीबी कैसे और क्यों हैं?

दरअसल यह गरीबी इसलिए है कि यहां पूजा के नाम पर, आस्था के नाम पर, धर्म के नाम पर सभी अखबारानन्द चाहते हैं। नहीं तो, सच में अगर यहां पूजा हो जाये और लोग धर्म के मूलस्वरूप को जानकर भगवती की केवल आराधना करें, तो निश्चय ही यह राज्य व देश समृद्धि को प्राप्त होगा। मैं तो प्रतिदिन दुर्गासप्तशती पढ़ता हूं और हमें जितनी शांति व आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है, वो भी विपरीत परिस्थितियों में, नाना प्रकार के झंझावातों के बीच, उतना किसी को प्राप्त नहीं होती होगी।

नहीं तो दुर्गा पूजा समितियां आकर हमसे शास्त्रार्थ करें और बतायें कि उनकी पूजा से रांची शहर या राज्य तो दूर, उन्हीं की समितियों के लोग या उनके परिवार के लोग वर्ष भर में कितनी प्रगति की है? कम से कम उसकी वार्षिक रिपोर्ट ही अपने पंडालों में लिख दें। ये लिखेंगे कैसे? मैं ताल ठोककर कहता हूं कि इन सभी पर मां की कृपा नहीं होती। मां की कृपा उस पर कभी हो ही नहीं सकती, जो अखबार के आनन्द को प्राप्त करने के लिए दिमाग लगाता हो। उस मंच पर जाता हो या उस कार्यक्रम में शामिल होता हो या अखबार द्वारा जजमेंट करने के लिए जज बनकर निकलता हो, जहां वो दुर्गा पूजा प्रतियोगिता होती है या जो अखबार इस प्रकार की हरकतें करता हो। ऐसे लोगों पर मां भगवती की कृपा हो ही नहीं सकती।

हमें याद है रांची के अपर बाजार में कुछ दिन पहले एक आध्यात्मिक कार्यक्रम आयोजित हुआ था। उस आध्यात्मिक कार्यक्रम में भारतीय वन सेवा से जुड़े मुख्य वन संरक्षक सिद्धार्थ त्रिपाठी ने बड़ी ही सुंदर बात कही थी कि दरअसल हमें अपने जड़ से काटने का जो प्रयास किया गया और जो हम अपने जड़ से कटते चले गये। उसका ही दुष्परिणाम है कि हम संकट में हैं। यह कितना दुर्भाग्य है कि हमने खुद अपने अनुष्ठानों को इवेन्ट बनाकर रख दिया। पूजा के नाम पर पंडालों में कम्पीटिशन करा रहे हैं। ये सब ठीक नहीं। इन सभी से बचें, तभी हमारा कल्याण होगा।

One thought on “अखबारानन्द बने रांची की पूजा समितियों के लोग, एक अखबार से पीतल के कुछ टुकड़े लेकर लगे प्रफुल्लित होने, सोशल साइट पर लगे चेपने और स्वयं को कृतार्थ घोषित करने में भी नहीं की परहेज

  • उपेन्द्र कुमार

    शहर के बड़े पंडालों के चाक्य चिक्य में फंसकर अब यह बीमारी ग्रामीण क्षेत्र के पूजा पंडालों में भी दृश्यमान हो रहा जो पूजा उपासना के अध्यात्मिक स्वरूप के विपरीत है। पूजा समिति अपने पूजन पद्धति में योग्य आचार्य से सलाह लें ताकि दिखावा से बचा जाए और पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति का अंधानुकरण न हो।

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