जानिये मेरे अभिन्न मित्र रहे अरुण श्रीवास्तव को, जिनकी आज चौथी पुण्यतिथि हैं
अरुण श्रीवास्तव जिनकी आज चौथीं पुण्यतिथि हैं। मैं अपनी ओर से हृदय से उन्हें नमन करता हूं। उनके समर्पण व सेवा भाव को नमन करता हूं। ऐसा व्यक्ति हमने अपने जीवन में नहीं देखा, जो अपने से ज्यादा दूसरों की सेवा में रुचि रखता हो। वे जब तक जीवित रहे, ‘स्व’ से ज्यादा ‘पर’ पर ध्यान दिया। जब मैं अरुण श्रीवास्तव के जीवन पर नजर डालता हूं, तो मुझे किसी के कहे ये शब्द स्वतः होठों पर आ जाते हैं।
वे शब्द हैं – ‘महत्वपूर्ण यह नहीं कि कौन कितने दिन जीया, महत्वपूर्ण यह है कि वो जितने दिन जीया, कैसे जीया?’ दुनिया में कई लोग जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपने कार्यों व चरित्र से एक रेखा खींच जाते हैं। वो रेखाएं वर्तमान में जी रहे लोगों को संदेश देती हैं कि तुम्हें कैसे जीना हैं?
शायद इन्हीं बातों को लेकर हरिवंश राय बच्चन ने अपनी ‘पथ की पहचान’ नामक कविता में लिखा –
‘अनगिनत राही गये,
उस राह से उनको पता क्या
पर गये कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी
ये निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती हैं
खोल इसका अर्थ पंथी
पंथ का अनुमान कर ले
पूर्व चलने के बटोही
बाट की पहचान कर ले …..’
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो जीवन भर आपके साथ रहते हैं, पर आपके जीवन पर छाप नहीं छोड़ पाते। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कुछ ही पल में आपके जीवन पर ऐसा छाप छोड़ जाते हैं कि आप उन्हें उनके मृत्युपर्यंन्त ही नहीं, बल्कि उनके नहीं रहने के बाद भी उन्हें भूल नहीं पाते। अरुण श्रीवास्तव कुछ ऐसे ही थे।
उनके द्वारा कहे गये शब्द आज भी मेरी कानों में गूंजते हैं – ‘मिश्रा जी, मैं अपने लिए नहीं जीता और न कारोबार करता हूं, मेरे साथ 70 परिवार जुड़े हैं, उनके भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी हमारी ही हैं।’ जबकि सच्चाई यह भी है कि जिनके लिए ये ऐसा सोचते थे, उन लोगों में बहुत कम ही लोग थे, जो उनके प्रति भी यहीं सोच रखा करते थे। ज्यादातर तो उन्हें भी मौका मिलने पर धोखा देने से नहीं चूंके। ऐसे लोगों की एक लंबी सूची हैं। जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं।
हमें अच्छी तरह याद हैं कि कोरोना का समय था। कई संस्थानों में छंटनी बड़े पैमाने पर जारी थी। कई संस्थानों में काम कर रहे हमारे मित्रों की नौकरियां चली गई थी, तो कई के वेतन कम कर दिये गये थे। ये मेरे मित्र उस वक्त किस दर्द से गुजर रहे थे। उनके दर्द को हमसे बेहतर कौन समझ सकता है? लेकिन उसी समय में अपने मार्क एड में काम कर रहे मजदूरों को अरुण श्रीवास्तव ने विशेष ध्यान रखा।
उन्हें समय पर पूरा वेतन का भुगतान ही नहीं किया, बल्कि हर छोटी-बड़ी समस्याओं में उनके बीच मौजूद रहे, उनका हौसला बढ़ाया। किसी की छंटनी नहीं की। इन्हीं सभी कारणों से मेरे लिए अरुण श्रीवास्तव आज भी मरे नहीं, बल्कि जीवित है। कहा भी गया है – कः जीवति? उत्तर है- कीर्तियस्य सः जीवति। अरुण श्रीवास्तव जैसे लोग आज भी जीवित हैं, अपने कीर्तियों के रूप में। हमें इस बात की खुशी भी है कि अरुण श्रीवास्तव मेरे मित्र थे और उन्होंने जीवन पर्यन्त मित्रधर्म को निभाया।