धर्म

“आनन्द मधुर है और दुःख एक स्वप्न… जब हे प्रभु, तेरा गीत मेरे भीतर बहता है।” – स्वामी सत्यानन्द

विश्व विख्यात आध्यात्मिक गुरु, संत, महायोगी, प्रेमावतार परमहंस योगानन्द द्वारा स्थापित सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया में आयोजित दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए स्वामी सत्यानन्द जी ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वो अपने जीवन को आध्यात्मिक रोमांच से भरने की कोशिश करें।

उन्होंने सर्वप्रथम भगवान, गुरु और परमहंस गुरुओं का आह्वान करने के बाद दीक्षांत समारोह में शामिल सभी से कहा कि उनके साथ वे सभी मिलकर प्रार्थना करें – हे प्रिय भगवान, हम एक साथ खड़े हैं, एक स्वर में प्रार्थना करते हैं कि आप हमारे हृदयों को अपने दिव्य प्रेम से एक कर दें, दिव्य शक्ति से भर दें, सदा कृपा बनाए रखें, जब हम जीवन की चुनौतियों का सामना करें, तो हमें नवीन आनन्द से भर दें, सही कर्म की कला सिखाएं, वृद्धावस्था को मात देने और जीवन शक्ति बनाए रखने की दिव्य कला सिखाएं।

स्वामी सत्यानन्द ने सभागार में बैठे सभी श्रद्धालुओं से कहा कि गुरुजी ने कहा था कि उनके जीवन की शांति उन बातों से स्वतंत्र है, जो उनके चारों ओर हो रही है। यही वह तरीका है, जिससे उन्होंने जीवन के रहस्यों को सुलझाया है। स्वामी सत्यानन्द जी ने कहा कि यहां गुरुजी यह अंतर स्पष्ट कर रहे थे कि उनके भीतर क्या चल रहा था और बाहरी संसार में क्या घटित हो रहा था। यही निश्चित रूप से उस आंतरिक स्वतंत्रता का एक सुंदर वर्णन है, जो बाहरी परिस्थितियों से मुक्त है।

स्वामी सत्यानन्द ने कहा कि गुरूजी का हृदय और मन में रहने वाली आंतरिक शांति ईश्वर के साथ स्थिर थी, और वह जीवन की बदलती परिस्थितियों से डगमगाती नहीं थी। हालांकि यह बात सुनने में सरल लगती है, लेकिन वास्तव में बहुत गूढ़ है। क्योंकि हम इंसान हैं, और हमारे चारों ओर विभिन्न परिस्थितियाँ रहती हैं। यदि हमारे आस-पास के लोग संघर्ष में हैं, तो हम रक्षात्मक हो जाते हैं, और शायद क्रोधित भी। हम लगातार बाहरी दुनिया पर प्रतिक्रिया कर रहे हैं, और हमारा चित्त बदलता रहता है — कई बार तो ऐसे भविष्य की घटनाओं के बारे में भी जो अभी घटी नहीं हैं।

उन्होंने कहा कि हमारी प्राचीन राजयोग की विद्या कहती है कि अपनी आंतरिक शांति के अनुभव को परिभाषित करने के लिए, बाहरी बदलती परिस्थितियों पर निर्भर मत रहो। इसलिए हमें अपने भीतर आत्मा में छिपे हुए गुप्त आनंद को खोजने की आवश्यकता है, और फिर स्वयं को उस स्रोत से जुड़ने का अभ्यास करना चाहिए। इस मार्गदर्शन को अपनाकर हम एक अधिक ऊर्जावान और संतोषजनक जीवन जी सकते हैं। हमारा जीवन शांत भी हो सकता है और सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक रूप से रोमांचक भी।

स्वामी सत्यानन्द ने कहा कि गुरुजी हमेशा कहा करते थे कि “मैं जहाँ भी रहूं, ईश्वर का आनंद हमेशा मेरे साथ रहता है।” उन्होंने बताया कि गुरूजी ने यह बातें 1940 में कही थी, जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था, समुद्री युद्ध अपने चरम पर थे और लोग वैश्विक युद्ध के प्रभाव को महसूस कर रहे थे। यहां तक कि यह भी आशंका थी कि गुरूजी को एनसिनिटास में स्थित उनका प्रमुख मंदिर खोना पड़ सकता है। इन सब के बीच गुरूजी ने यह कहा — चाहे मैं कहीं भी रहूं, ईश्वर का आनंद हमेशा मेरे साथ है।

स्वामी सत्यानन्द जी ने कहा कि यहां मुख्य बात यह है कि हमें आज की इन सभी बाहरी चुनौतियों का सामना करते हुए भी ईश्वर के आनंद को अपनी प्रमुख आंतरिक अनुभूति के रूप में संजोए रखना और प्रकट करना आना चाहिए। स्वामी सत्यानंद जी की श्री दया माता से बातचीत, 9/11 की घटना के कुछ ही दिनों बाद हुई।

उन्होंने स्वामीजीसे कहा “मैं उन दिवंगत आत्माओं (लगभग 3000) और उनके परिवारों के लिए प्रार्थना कर रही हूँ। जब मैं प्रार्थना करती हूँ, तो यह केवल कुछ मिनटों की बात नहीं होती — मैं घंटों तक प्रार्थना में लीन रहती हूँ।” फिर उन्होंने कहा “यह मत सोचो कि क्योंकि हम आश्रम में रहते हैं, इसलिए हमें कठिनाइयों से मुक्ति मिल जाएगी। हमारा आश्रम भी इस दुनिया का हिस्सा है। हमें भी अपने हिस्से की कठिनाइयों का सामना करना होगा और हमें सहना भी पड़ेगा।”

उन्होंने कहा कि कोई भी कठिनाइयों से नहीं बचा है। माता-पिता के रूप में हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों को कष्ट न हों — और हमारे माता-पिता ने भी यही हमारे लिए चाहा था। लेकिन यह धरती कभी भी किसी को 100% सहज जीवन नहीं देती। यह हमारे जीवन अनुबंध (soul contract) में ही नहीं है। भले ही हम कितने ही चतुर क्यों न हों — हमें फिर भी बड़ी चुनौतियों का सामना करना ही पड़ेगा। तो फिर हमें किस प्रकार की भावना या दृष्टिकोण (attitude) रखनी चाहिए?

स्वामी सत्यानन्द जी ने एक उद्धरण देते हुए कहा – “जब आप रास्ते पर धूल से मिलते है, तो आप भाग्य से मिलते है, जब आप उससे बचने की कोशिश करते है।” हमने कितनी बार सोचा कि हम किसी समस्या से बच निकले — और फिर उसमें ही फँस गए? उन्होंने कहा कि हमारे अध्यक्ष, स्वामी चिदानंद जी, एक ऐसे ही वीरतापूर्ण आत्मा हैं। वे हर प्रतिकूलता में एक अवसर खोजते हैं। वे अक्सर सोचते हैं: “कैसे हम इन कठिन परिस्थितियों को गुरुजी के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग में ला सकते हैं?” यह आत्मा से उत्पन्न होने वाली वीरता है।

उनके भीतर वह साहस है जो कहता है — “हम कर सकते हैं,” चाहे उस क्षण उन्हें यह पता न हो कि कैसे। और इसका एक ही उपाय है: इसका अभ्यास करना और स्वयं को सिद्ध करना कि यह एक दैवीय नियम है — और यह सच में काम करता है। उन्होंने कहा कि जब भी आपके हृदय में आनन्द का एक छोटा सा बुलबुला उठे — जान लीजिए कि वह गुरुजी की वाणी है, उनका संदेश है। हमें आनन्द पर अधिकार नहीं है, हम केवल उसे थाम सकते हैं।

जब भी एक छोटा-सा आनन्द का बुलबुला उठे — उसे थाम लीजिए, ध्यान द्वारा, कार्य में भी, उसे विस्तारित कीजिए — हर समय। यह हमारा लक्ष्य है — लेकिन अक्सर यह बहुत दूर प्रतीत होता है, क्योंकि यह संसार इतना प्रभावशाली लगता है। पर यदि हम जानें और विश्वास करें कि ईश्वर का आनन्द उससे कहीं अधिक शक्तिशाली है — तो जब हम उसे थामना शुरू करते हैं, तब आशा की एक नई किरण प्रकट होती है।

उन्होंने कहा कि ध्यान में और कर्म में — आनन्द को चुनिए। हमारे मन में हमेशा अनेक प्राथमिकताएँ होती हैं — परन्तु “आनन्द को चुनना” — यह सबसे महत्वपूर्ण है। जब आप आनन्द को चुनते है, तो आपकी समझ गहरी होती है, आपकी अंतर्ज्ञान शक्ति विकसित होती है, आप अधिक करुणामय बनते हैं, आप स्वयं को भी और जगत को भी आशा देने लगते हैं — न कि दुख। आप बेहतर सेवा तभी कर सकते हैं जब आपके भीतर आनन्द जगा हो। प्रतीक्षा कीजिए — उस पवित्र प्रेरणादायक क्षण की — जब आप आनन्द को चुनें, उसे थामें, और फिर उस पर एकाग्र हों। आप देखेंगे कि यह कार्य करता है। वह छोटा सा आनन्द, जिसे आप अन्यथा खो सकते थे — वास्तविक और स्थायी अनुभव बन जाता है।

उन्होंने कहा कि ईश्वर का यह सच्चा आनन्द हमें आता-जाता प्रतीत होता है — पर वास्तव में ऐसा नहीं है। आनन्द सदा वहीं होता है — आने-जाने वाला हमारा ध्यान होता है। इसलिए, अपने चेतन मन को प्रशिक्षित करना आवश्यक है, कि वह ईश्वर के आनन्द को पकड़ सके और थाम सके।

उन्होंने कहा कि आंतरिक जागरूकता निरंतर रहनी चाहिए। यह बिल्कुल कम्पास की सुई के समान है — आप किसी भी दिशा में मुड़ें, पर वह कभी उत्तर दिशा (North) से भटकती नहीं। गुरुजी हमें इसी के लिए तैयार कर रहे हैं। वे कहते हैं: “भ्रम के बादल केवल ध्यान भटकाने वाले हैं — उन्हें इससे अधिक महत्व न दो।” यही एकमात्र उपाय है जिससे हम सिद्ध कर सकते हैं कि ईश्वर का आनन्द विपत्ति के सामने भी जीवित रह सकता है — और उसमें वृद्धि भी कर सकता है।

उन्होंने कहा कि ईश्वर के आनन्द को स्वीकार कीजिए — उसके लिए वैज्ञानिक ध्यान द्वारा अपनी ग्रहणशीलता को बढ़ाइए। भीतर आने वाली प्रेरणा को पकड़िए — चाहे वह कितनी भी सूक्ष्म क्यों न हो — फिर धैर्यपूर्वक स्वयं को प्रशिक्षित कीजिए कि उसे कैसे हृदय में थामें और विस्तार दें। धीरे-धीरे ईश्वर का आनन्द संसार के स्वप्न-नाट्य से अधिक शक्तिशाली हो जाएगा —और फिर आप अनुभव करेंगे: “आनन्द मधुर है और दुःख एक स्वप्न… जब हे प्रभु, तेरा गीत मेरे भीतर बहता है।”

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