अपनी बात

पहले पूजा हेतु चंदा, फिर पूजा पंडाल समितियों को सम्मानित करने हेतु चंदा, वाह रे चंदा का धंधा

विद्रोही24 ने कल मंगलवार को एक आर्टिकल लिखी थी। हेडिंग था – “अखबारानन्द बने रांची की पूजा समितियों के लोग, एक अखबार से पीतल के कुछ टुकड़े लेकर लगे प्रफुल्लित होने, सोशल साइट पर लगे चेपने और स्वयं को कृतार्थ घोषित करने में भी नहीं की परहेज,” जिस पर विभिन्न सोसल साइटों के माध्यम से हम तक कई प्रतिक्रियाएं आई। इन प्रतिक्रियाओं को आप तक हमे पहुंचाना धर्म बनता है। इसलिए हमने इसे प्रमुखता से आप तक पहुंचाया है। आप भी चिन्तन करिये, क्योंकि अपने राज्य, देश व समाज को बचाने की जिम्मेदारी का ठेका जिन्होंने संभाल रखने का दावा किया है या कर रहे हैं, क्या वे सही हैं या अखबारानन्द बनने की कोशिश कर रहे हैं?

युवा समाजसेवी दीपेश निराला कहते हैं कि रांची के एक वरिष्ठ पत्रकार का न्यूज आया है। न्यूज पढ़ने लायक है और समझने लायक है। सबसे ज्यादा उम्दा है। इस न्यूज में प्रस्तुत तस्वीरें, जिसको एक बार जरूर देखना चाहिए। पूजा के नाम पर पंडालों में कंपटीशन, पहले पूजा हेतु चंदा, फिर पूजा पंडाल समितियों को सम्मानित करने हेतु चंदा। वाह रे चंदा का धंधा। लोगों को क्या नैतिक शिक्षा मिल रही है परिवार से, अब आप समझ सकते हैं।

दीपेश के कथनानुसार अब उपभोगवाद और पैसावाद हर जगह हावी है। जिसने मानववाद को खत्म कर दिया है। हर जगह रुपया-पैसा ही प्रधान होता जा रहा है, रिश्ते-नाते और ईमानदारी तथा विश्वास गौण होता जा रहा है, वाकई में कलयुग आ गया है। दान, चंदा और सहयोग का व्यापार जोरों पर है। आज पूजा को इंवेट बना दिया गया है। पहले एक समिति बनाइये, कुछ लोगों की सदस्यता शुल्क और कंट्रीब्यूशन लीजिए, फिर एक जगह ज्यादातर सरकारी/सार्वजनिक जगह का चयन कर लीजिये भूमिपूजन के लिए, फिर शहर के लोगों को सदस्यता के नाम पर शुल्क लेकर जोड़िए और एक पूजा स्थापित कीजिये या मंदिर बनाइये।

फिर जहां पर यह कार्यक्रम हो रहा है, वहां पर झूलेवाला को बुलाइये। लाखों रुपये उससे ले लीजिये। कैटरिंगवालों को बुलाइये, उनका फूड स्टॉल लगाने के लिए उनको जगह देने का बात करिये और लाखों रुपये उनसे ले लीजिये, जबकि जमीन आपकी निजी नहीं हैं। रेट लिस्ट जारी कर दीजिये, तोरण द्वार, फ्लेक्स, बैनर प्रचार लगाने का और लकी ड्रा लॉटरी कूपन जारी कर दीजिये, सदस्यों को दस हजार और पांच हजार वैल्यू का कूपन थमा दीजिये ताकि पैसा आपके पास आ जाये।

अब एक दुकानदार को ऑर्डर, पट्टा-दुपट्टा का, शहर का प्रभावशाली लोगों को बुलाइये, उनको दुपट्टा पहनाइये और फोटो खिंचाइये। बस अब तैयार हो गया इवेंट का मंच। जनता और व्यापारी बैठे ही है इनको दान, चंदा और सहयोग देने के लिए, इससे बढ़िया इवेंट और व्यापार क्या होगा? एक सप्ताह का खानपान, मौज-मस्ती, अब तो डांडिया और गरबा भी है। एक सप्ताह फोटो खींचवाते रहिए और छपवाते रहिए।

धार्मिक आस्था या सुनियोजित फंड रेजिंग इवेंट

आज जो कुछ धार्मिक आस्था और सामूहिक पूजा के नाम पर हो रहा है। वह कई बार श्रद्धा से अधिक एक सुनियोजित फंड रेजिंग इवेंट जैसा लगता है। आस्था का कॉरपोरेटाइजेशन – जहां भक्ति से ज्यादा ब्रांडिग पर जोर है। धार्मिकता की जगह दिखाने की व्यवस्तता है सो अलग। पूजा या पब्लिक शो – दुपट्टा ओढ़ाकर फोटो सेशन – इवेंट हाइलाइट्स। सोशल मीडिया पोस्ट – इन्फ्लुएंसिंग टूल। झूले, स्टाल्स, कूपन, लकी ड्रा – रेवेन्यू मॉडल। हर फ्रेम में चेहरों की भीड़ है। लेकिन शायद आस्था अब बैक ग्राउंड में धकेल दी गई है। अब जरा सोचिये। क्या यही है सार्वजनिक पूजा की आत्मा? क्या धर्म अब आयोजन की स्क्रिप्ट बनकर नहीं रह गया? क्या हमने श्रद्धा को इंवेट मैनेजमेंट बना दिया है?

भक्ति का बाजारीकरण, वो भी धर्म के नाम पर

भक्ति का बाजारीकरण – एक खामोश विडंबना। अब सवाल यहीं है – क्या धर्म को बचाना होगा, वो भी धर्म के नाम पर? आमजन द्वारा दान और चंदा आपको क्यों दिया गया है? दुपट्टा – शील्ड खरीद हेतु, आपके नाश्ता और खाना हेतु, आपके चाय और पानी हेतु, खुद का होर्डिंग प्रचार हेतु या मां के पूजा हेतु? पूजा और आस्था को व्यवसायीकरण मत कीजिये। क्या आपने दान, चंदा और अन्य माध्यमों से प्राप्त आय-व्यय का ऑडिट करवाया है? ऑडिटेड बैलेंस शीट प्रस्तुत कीजिये तब तो मानें, शेष बचा करोड़ों-लाखों रुपये का क्या लेखा जोखा है? यह बचा शेष करोड़ों-लाखों रुपये की राशि क्या बैंक में जमा है या समिति के प्रमुख लोगों के निजी प्रयोग हेतु उनके खुद के पास रखी हुई है?

जब आपको सरकारी/सार्वजनिक जमीन मिल रहा है, झूला वाले से लाखों, कैटरिंगवाले से लाखों, तोरण द्वार, फ्लेक्स, बैनर, होर्डिंग और बैनर से लाखों चंदा और चढ़ावा का लाखों-करोड़ों, लक्की ड्रा, कूपन और लॉटरी से लाखों-करोड़ों, अब गरबा-डांडिया से भी, जब हर चीज से लाखों-करोड़ों की कमाई हो रही है, तो पब्लिक को इसका हिसाब जानने का भी हक है।

जब आयोजन सार्वजनिक है तो जवाबदेही भी सार्वजनिक होनी चाहिए। क्या जनता को इस पूरे फंड का पारदर्शी हिसाब नहीं मिलनी चाहिए? क्या सार्वजनिक आयोजन में आय-व्यय की रिपोर्ट पब्लिक डोमेन में नहीं आनी चाहिए? अब पूजा के नाम पर हो रही कमाई, अब किसी भी ट्रस्ट या समिति के लिए अघोषित उद्योग तो नहीं बन गई है? सार्वजनिक भूमि, सार्वजनिक भागीदारी, सार्वजनिक चंदा तो फिर हिसाब भी सार्वजनिक क्यों नहीं? आस्था के नाम पर चल रही इस व्यवस्था को अब पारदर्शिता की जरुरत है, चुप्पी की नहीं।

अब इसी चीज को आप अपने शहर के धार्मिक संस्थाओं से जोड़कर देखिये। एक पूरा व्यापार और उद्योग चल रहा है। इसमें लगे लोग क्या अपना दुकान में दुकानदारी कर रहे हैं? क्या अपने परिवार को पूरा समय दे पा रहे हैं? परिवार और दुकान का समय इन धार्मिक संस्था में क्यों दे पा रहे हैं? सोचिए?

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