पहले नेताओं को छपास की बीमारी थी, अब सामाजिक सरोकार के नाम पर प्रधान संपादकों को यह बीमारी लग गई, मजे लीजिये ये अखबार नहीं आंदोलन का नया चेहरा है
अभी हाल ही में यानी 14 अगस्त को प्रभात खबर ने अपना 41 वां वर्ष पूरा कर लिया। जिस दिन इस अखबार ने 41 वर्ष पूरे किये। प्रभात खबर के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी ने अपने अखबार के प्रथम पृष्ठ पर ‘सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता का सफर’ नाम से अपना मंतव्य छापा। कुल मिलाकर इस मंतव्य में प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी ने प्रभात खबर की जमकर प्रशंसा की।
प्रशंसा उन लोगों ने भी की, जो प्रभात खबर में रहकर दोयम दर्जें की तरह पूरा समय काटा और जिस दिन प्रभात खबर 41 वां वर्ष मनाया। उस दिन प्रभात खबर की जमकर भूरि-भूरि प्रशंसा भी की, जैसे लगता हो कि अगर वो प्रभात खबर में नहीं होता, तो उसका जीवन धन्य ही नहीं होता। अब आप करियेगा क्या, दुनिया में नाना प्रकार के मनुष्य हैं, कौन कब गिरगिट की तरह रंग बदलता है? आप इसे कैसे समझेंगे या जानेंगे। इसके लिए कोई यंत्र अब तक थोड़े ही बाजार में आया है।
अब जरा आज का प्रभात खबर उठाइये और उसमें सामाजिक सरोकार खोजिये और उसमें सामाजिक सरोकार मिल जाये, तो हमें जरुर बताइये। आज इस अखबार ने महाराष्ट्र के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन जो एनडीए द्वारा उपराष्ट्रपति के उम्मीदवार बनाये गये हैं। उनसे संबंधित खबरें छापी है। हेडिंग दी है – झारखण्ड में गर्वनर रह चुके सीपी होंगे उपराष्ट्रपति उम्मीदवार।
कुछ ऐसा ही मिलता जुलता हेडिंग झारखण्ड के अन्य प्रमुख अखबारों जैसे हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर ने भी दी है। साथ ही छोटे व सामान्य अखबार, जो रांची से प्रकाशित होते हैं। ये खबरें उन्होंने भी दी है। लेकिन किसी अखबार ने इस समाचार के साथ ऐसी फोटो नहीं दी हैं, जो प्रभात खबर ने दी है। प्रभात खबर ने फाइल फोटो निकाला है और जिस फोटो में सीपी राधाकृष्णन, प्रभात खबर के प्रधान संपादक, कार्यकारी निदेशक व वाइस प्रेसिडेंट के साथ प्रभात खबर के किसी कार्यक्रम में शामिल हुए हैं। उसे प्रमुखता से लगा दिया है।
जबकि अन्य अखबारों में किसी ने सिर्फ सीपी राधाकृष्णन का तो किसी ने पीएम नरेन्द्र मोदी के साथ उनकी फोटों को प्रमुखता से दिया है। लेकिन किसी ने उन फोटो को अपने यहां स्थान नहीं दिया। जिसमें सीपी राधाकृष्णन उनके अखबार या उनके अखबार के लोगों के साथ खड़े हैं। अब सवाल उठता है कि क्या प्रभात खबर जिसने इस प्रकार की फोटो लगाई। क्या वो फोटो सामाजिक सरोकार को प्रदर्शित करता है?
दूसरी घटना, प्रभात खबर ने फ्रंट पेज पर ही आठ कॉलम में ‘छत्तीसगढ़ में ननों की गिरफ्तारी के विरोध में निकला मौन जुलूस’ नामक खबर छापी है। यानी जो खबर हिन्दुस्तान, दैनिक भास्कर व दैनिक जागरण ने अंदर की पृष्ठों में सामान्य ढंग से एक-दो कॉलमों में देकर इतिश्री कर ली। इस अखबार ने इस खबर को आठ कॉलम में वो भी फ्रंट पेज पर छापकर क्या करने और समाज में किस प्रकार से विषवमन करने का काम किया है, वो कोई भी समझ सकता है।
अब सवाल उठता है कि जिस अखबार में इस प्रकार की सोच वाले लोगों का पदार्पण हो गया हो। जो अपने ही अखबार में सुप्रसिद्ध साहित्यकार यशपाल की कहानी ‘अखबार में नाम’ का एक प्रमुख पात्र गुरदास बनने की सोच रखता हो, क्या उसके मुख से सामाजिक सरोकार की बात निकले। शोभा देता है।
क्या अपने ही अखबार में अपना और अपने लोगों को फोटो छापना ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने’ वाली लोकोक्ति को चरितार्थ करना नहीं हैं? क्या संवेदनशील मुद्दों को हवा देना, ऐसी खबरों को फ्रंट पेज पर वो भी आठ कॉलमों में छापना मूर्खता नहीं है और उसके बाद भी कोई यह कहे कि वो सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता करता रहा है, या वहां कभी काम करनेवाले संपादक स्तर का कोई पत्रकार, जो उस अखबार में शोषण का शिकार रहा है, वो यह लिखे कि ‘पत्रकारिता की दुनिया में कई मिथक तोड़े’ तो क्या यह हास्यास्पद नहीं।
रांची में ही रहनेवाले कई बुद्धिजीवी, जिनका कभी प्रभात खबर से ज्यादा जुड़ाव रहा है। वे बताते हैं कि एक समय था कि प्रभात खबर में प्रधान संपादक या वहां काम करनेवाले प्रमुख लोगों का फोटो अखबार में नहीं छपता था। अगर किसी ने छाप दी। तो दूसरे दिन उसकी डांट लगनी तय होती थी। इस प्रकरण पर उस वक्त के प्रभात खबर के प्रधान संपादक जो वर्तमान में राज्यसभा के उप-सभापति हैं, मतलब मैं बात हरिवंश जी की कर रहा हूं। उनके कार्यकाल में कभी भी ऐसा देखने को नहीं मिला।
ऐसा नहीं कि उनके कार्यकाल में इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजित नहीं होते थे। उनके समय में भी स्तरीय कार्यक्रम होते थे। लेकिन उनके ही अखबार में उनकी फोटो छपे। वे इसके सख्त खिलाफ थे। लेकिन आज उसी अखबार में क्या हो रहा है? सामाजिक सरोकार की आड़ में ये अपना सरोकार बनाने और दिखाने में सभी लग गये हैं। चाहे प्रभात खबर के प्रधान संपादक हो या वहां कार्य करनेवाले बड़े अधिकारियों का समूह।
अब सवाल उठता है कि जो नई पीढ़ी इस पत्रकारिता के दोहरे चरित्र को अखबारों में चरितार्थ होते देख रही हैं। जो पीढ़ी यह भी देख रही है कि कैसे, ऐसे लोग राष्ट्रपति के ‘एट होम’ कार्यक्रम तक में शामिल हो जाते हैं। वो इस प्रकार के दोहरे चरित्र से क्या सीखेंगी? वहीं न, जो ये सीखा रहे हैं, तो ऐसे में सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकार का तो बंटाधार होना तय ही है। मतलब हाथी के खाने के दांत अलग और दिखाने के अलग। सामाजिक सरोकार का नाम रटते रहो और अपना सरोकार कैसे मजबूत हो? कैसे आनेवाले समय में पत्रकारिता का दोहन कर, आनेवाले समय में अपनी स्थिति मजबूत हो, इसका प्रबंध करो, क्योंकि जाना तो अंत में राज्यसभा में ही हैं न।
ठीक उसी प्रकार जैसे भारत की सभी पवित्र नदियां सागर में जाकर विलीन हो जाती है, उसी प्रकार सामाजिक सरोकार का ढोल पीटकर ज्यादातर पत्रकार राज्यसभा रूपी महासागर में जाकर खुद को विलीन कर लेते हैं या इसका स्वप्न देखते हैं, प्राप्त हो गया तो ठीक हैं, नहीं तो राजनीतिक पकड़ तो जब तक जीवन रहेगी, वो सुरक्षित रहेगी ही। कमाल है, पहले नेताओं को छपास की बीमारी थी, अब सामाजिक सरोकार के नाम पर प्रधान संपादकों को यह बीमारी लग गई, मजे लीजिये ये ‘अखबार नहीं आंदोलन’ का नया चेहरा है।