अपनी बात

दीपावली का दिन, छोटे से घर में पसरे अंधेरे के बावजूद अपने खुशियों का संसार तैयार करते बच्चे

ईश्वरीय कृपा कहे या ईश्वरीय कोप। मैं नहीं जानता। दीपावली के दिन मैं उस जगह था, जहां मुझे नहीं रहना चाहिए। फिर भी। ईश्वरीय कृपा या ईश्वरीय कोप इनसे आज तक कोई बचा है? उत्तर होगा – नहीं। तो फिर मैं कैसे बच सकता हूं? अब बात उन बच्चों की जो दीपावली के दिन, अपने छोटे से घर में पसरे अंधेरे के बावजूद अपने खुशियों का संसार तैयार कर रहे थे।

जहां मैं दीपावली के दिन मौजूद था। उसके ठीक सामने दो छोटे से कमरे जो सीमेंटेड चादर से ढके हैं, एक छोटा सा घर हैं। जहां रात तो रात, दिन में भी अंधेरा पसरा रहता हैं। उस घर में तीन छोटे-छोटे बच्चे रहते हैं। तीनों बच्चे काफी होनहार, संवेदनशील और मेहनती। दीपावली के दिन, जब दोपहर का भोजन करने के बाद, मैं बालकनी में टहलने के लिए निकला, तो अचानक मेरी नजर इन बच्चों पर पड़ी।

देखा, तीनों बच्चे अपने खुशियों का संसार तैयार करने में लगे थे। पता नहीं कहां से धूल से सनी काफी पुराने घरौंदे को ये ठीक करने में लगे थे। रंगीन कागजों को बड़े ही सलीके से ये बच्चे काट रहे थे और उसे घर में ही बनाये गये आटे के गोंद से उसे चिपका रहे थे। एक-एक रंगीन कागज जिस ओर भी घरौंदे में साटते, तो एकटक उसे निहारते कि कही गलत तो नहीं सट गया और जब उनकी कारीगरी सही दिखती तो स्वयं के उपर गर्व करने से फूले नहीं समाते, साथ ही अपनी कलाकारी पर खुब दिल खोलकर हंसते।

बच्चे घरौंदे बनाने में लगे थे। लेकिन इस बात से बेपरवाह की कोई उनकी कारीगरी को देख रहा है। मैं उनके द्वारा बनाई जा रही इस कारीगरी को अपने मोबाइल में कैद करना चाह रहा था। लेकिन जहां बच्चे ये काम कर रहे थे। वहां इतनी रोशनी भी नहीं थी कि हमारा मोबाइल उन बच्चों के इस कारीगरी को कैद कर पाता। काफी कोशिश करने के बावजूद हम वो फोटो नहीं ले सकें। जिसका हमें मलाल रहा।

लेकिन बच्चे उस अंधेरे में भी अपने घरौंदे को बेहतर बनाने में कामयाब रहे। जब घरौंदा सजकर तैयार हो गया। तो वे देखते ही देखते उछल पड़े। जैसे कि उन्हें अपने सपनों का संसार मिल गया हो। घरौंदा बन कर तैयार था। लेकिन उन घरौंदों में रखने के लिए खिलौने नहीं थे। पता चला कि उनके माता-पिता काफी स्वाभिमानी है और बच्चों में भी स्वाभिमान के पुट भर रखे हैं। इसलिए खिलौने नहीं रहने के बावजूद वे कम खुश नहीं थे।

रात हुई। इन बच्चों ने अपने अंधेरे घर को कुछ दीयों से जगमग करने की कोशिश की और फिर अचानक अपने घर के अंदर जाकर किवाड़ बंद किये और सोने चले गये। उस वक्त यही कोई शाम के सात बज रहे थे। लेकिन इसके ठीक उलट इसी घर के आस-पास कई घर ऐसे थे। जिसे लोगों ने बड़ी ही शान से इलेक्ट्रानिक बल्बों से सजा रखा था। कई घरों में डिजिटल लाइट लगे थे और फिर इन्हॆं घरों में रहनेवाले लोगों ने अपने घरों तथा दूसरों के घरों के सामने इतने तेज धमाकों के पटाखे छोड़ने शुरु किये कि देर रात तक हम सो नहीं पाये।

मन किया कि बोले, भाई रात के दस कब के बज चुके हैं। 12 बजने को आये। प्लीज अब धमाका बंद करो। लेकिन आप किसे समझायेंगे। दीवाली है। अब तो आप किसी को समझायेंगे तो आपको सनातन विरोधी समझेंगे। इसलिए हम चुप लगा गये और प्रभु से गुहार लगाई कि इन महान आत्माओं को शांत करें। पर ये महान आत्मा कहां शांत होनेवाले थे। दूसरे दिन भी इनका करिश्मा इसी तरह जारी रहा। जबकि दूसरे दिन दीवाली नहीं थी।

इधर इन छोटे-छोटे बच्चों के पिता से अचानक हमारी दीवाली के दूसरे दिन सुबह में भेंट हुई। पता चला कि उसके पिता बहुत ही आध्यात्मिक है। मैंने उनसे बातचीत में कहा कि कल बड़ी ही जल्दी उनके घर के बच्चे सो गये। दीपावली नहीं मनाई। पटाखे नहीं छोड़े। उनका कहना था कि क्या पटाखा छोड़ेंगे। इतनी महंगाई है कि पटाखे कहां से लायेंगे। फिर भी बच्चे हैं, थोड़ा बहुत दूसरे को देखकर पटाखे की जिद तो करते ही हैं। लेकिन जब उन्हें समझा-बुझा देता हूं तो वे मान लेते हैं।

मतलब एक ही जगह हमने देखा कि कोई पटाखा इतना छोड़ रहा है कि दूसरे लोग उन पटाखों के धमाकों से दहशत में हैं और उसी जगह पर हमने देखा कि इन बच्चों के पास एक भी पटाखा या फुलझड़ी भी नहीं, जिसे जलाकर वे अपनी खुशियों का इजहार कर सकें। लेकिन इसके बावजूद भी जो घरौंदे बनाकर, उन्होंने अपनी कला का उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया, वो काबिले तारीफ थी। साथ ही उनके लिए सबक भी कि दीपावली पटाखों के बिना, दूसरों को दहशत में लाने के बिना भी मनाई जा सकती है। दीपावली के आनन्द को दूसरे तरीके से भी प्राप्त किया जा सकता है। बशर्तें दीपावली का अर्थ लोग समझ सकें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *