धर्म

जब कोई इच्छा में अवरोध उत्पन्न होता है तभी क्रोध का जन्म होता है, जब ये आये तो आप गुरुजी की बताई प्रविधियों पर ध्यान दें: स्वामी आदित्यानन्द

रांची स्थित योगदा सत्संग आश्रम में योगदा भक्तों के बीच रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए स्वामी आदित्यानन्द ने कहा कि कोई इच्छा जो पूर्ण नहीं होती है या कोई इच्छा में जब अवरोध उत्पन्न होता है, तभी क्रोध का जन्म होता है। इस क्रोध के जन्म लेने के बाद भले ही उसके भाव अलग-अलग हो, जैसे – किसी में उतावलापन, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, असंतोष, नाराजगी या विवाद आदि उत्पन्न हो।

लेकिन इसका प्रभाव व्यापक होता है, यह क्रोध व्यक्ति के विवेक को भ्रम से ढक देता है। उन्होंने इस दौरान राजा परीक्षित और एक ऋषि से जुड़ी कथा का एक बड़ा ही सुंदर दृष्टांत दिया, कि कैसे एक ऋषि पुत्र ने राजा परीक्षित के एक गलत कार्य से उत्पन्न क्रोध के कारण राजा परीक्षित को एक सर्प के डंसने से एक सप्ताह के अंदर मृत्यु हो जाने का शाप दे डाला था।

स्वामी आदित्यानन्द ने कहा कि यह क्रोध है, जो हमारे अंदर रहनेवाली उचित व्यवहार को अस्पष्ट कर देती है। क्रोध का हमारे मन-मस्तिष्क पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। यह हमारे शरीर को भी प्रभावित करता है। शरीर को प्रभावित करने के दौरान हमारे शरीर में यह टॉक्सिक को इस प्रकार भर देता है कि पूरा शरीर ही विषैला हो जाता है। यह पाचन तंत्र तक को प्रभावित करता है। इसलिए प्रत्येक को क्रोध से बचना चाहिए, क्योंकि हमारा सच्चा स्वरूप नित्य नवीन आनन्द है, जो प्रभु का ही एक रूप है। हम प्रभु के ही एक अंश है और उसी में हमें विलीन भी हो जाना है।

उन्होंने कहा कि जब हम अपने शरीर को प्रभु के प्रकाश से भर देते हैं तो उसके बाद हमारे शरीर के अंदर कभी भी नकारात्मक शक्तियां अपना स्थान नहीं बना पाती। उन्होंने कहा कि एक बार परमहंस योगानन्द जी को हिमालय जाने की इच्छा हुई। वे अपने गुरु युक्तेश्वर गिरि की इच्छा के विरुद्ध हिमालय को प्रस्थान किये। जब वे लौटे और अपने गुरु युक्तेश्वर गिरि के पास पहुंचे तो उन्हें लगा कि गुरु जी उन्हें डाटेंगे, क्रोध करेंगे। उस दौरान उनके गुरु ने परमहंस योगानन्द जी को रसोई में चलने को कहा। जिस पर परमहंस योगानन्दजी ने युक्तेश्वर गिरि जी से पूछा कि उन्हें उन पर क्रोध नहीं आ रहा। युक्तेश्वर गिरि ने कहा कि क्रोध केवल इच्छा के अवरोध के कारण उत्पन्न होता है।

स्वामी आदित्यानन्द ने कहा कि युक्तेश्वर गिरि जी जैसे लोग शत प्रतिशत उस अवस्था को प्राप्त कर चुके थे, जहां नित्य नवीन आनन्द को छोड़, नकारात्मक शक्तियों का उनके जीवन में कोई स्थान ही नहीं था। उन्होंने योगदा भक्तों को कहा कि जब भी आपको क्रोध आये तो आप गुरुजी की बताई प्रविधियों पर ध्यान दें। उन प्रविधियों को करना शुरु करें। सीधे ध्यान करना शुरु करें या गुरु जी की बताई मार्गों पर ध्यान दें, आप पायेंगे कि आप ने जल्द ही क्रोध पर विजय पा लिया।

उन्होंने यह भी कहा कि गुरुजी द्वारा बताई गई प्रविधियों को जब भी प्रयोग में लाएं तो पहले जिन प्रविधियों को आपने प्रयोग में लाया हैं। उसके अनुभवों में डूबने की कोशिश करें और उसका आनन्द लें। तब जाकर दूसरे प्रविधियों में स्वयं को लगाने की कोशिश करें। अचानक एक प्रविधि से दूसरे प्रविधि में जाना ठीक नहीं। हमेशा याद रखें कि कभी भी इन्द्रियों को प्रभावित करनेवाली चीजों पर ध्यान न दें।

उन्होंने कहा कि हमेशा जब भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति की बात हो तो उन भौतिक वस्तुओं में जो आपके लिए सर्वाधिक जरुरी चीजें हैं। सिर्फ उसे ही प्राप्त करने की कोशिश करें। हर भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में समय खपाना आपके लिए सही नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा कि जीवन में चैलेंज का होना भी जरुरी है। अगर जीवन में चैलेंज आये तो उन चैलेंज को स्वीकार करिये। उसका सामना करिये। इस चैलेंज के लिए ईश्वर को भी धन्यवाद दीजिये।

उन्होंने कहा कि हमेशा उन लोगों के सम्पर्क में रहने की कोशिश करिये, जिन्हें क्रोध नहीं आता या जिन्होंने क्रोध पर विजय प्राप्त कर लिया है। ईश्वर या आपके गुरु आपको हरदम सहयोग करने के लिए तैयार बैठे हैं। डर किस बात का? हमेशा स्वयं के द्वारा सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करें और इस सर्वश्रेष्ठ कार्य को ईश्वर को समर्पित करें। आनन्द का स्रोत दुनिया या भौतिक वस्तुओं में नहीं, बल्कि नित्य नवीन आनन्द को प्राप्त करने में हैं।

उन्होंने कहा कि जब क्रोध आये तो सर्वप्रथम मन को शांत करें। शांत मन ही उत्तम निर्णयों का जनक हैं। जब भी कोई निर्णय लें तो क्रोध या ईर्ष्या या नकारात्मक भाव में मन में लाकर न लें। क्रोध आये तो पहले आप स्वीकार करें कि आप क्रोध में हैं। इस क्रोध को स्वीकार करना भी इतना आसान नहीं। क्रोध जब आप पर हावी होने लगे और आप जब उसे स्वीकार करने लगते हैं तो आप आधी लड़ाई स्वयं ही जीत लेते हैं। ऐसी अवस्था में आपको कुछ भी नहीं करना है और न कोई निर्णय लेना है, क्योंकि ऐसी अवस्था में जो भी निर्णय लेंगे, उसका प्रतिफल हमेशा संशय को जन्म देगा।

उन्होंने इसी पर धर्मराज युद्धिष्ठर की एक कहानी सुनाई कि कैसे उन्होंने क्रोध पर विजय पाने के लिए और उस क्रोध से किसी अन्य पर भी किसी प्रकार का दुष्प्रभाव नहीं हो, अपना पूरा मुंह ढंक लिया था। उन्होंने कहा कि क्रोध आये तो दस से पन्द्रह तक की गिनती शुरु करें या गुरुजी की कोई प्रविधि अपनाएं और उन प्रविधियों में डूबने की कोशिश करें या अपने आपको वहां समायोजित करें जहां सकारात्मक ऊर्जा का वास हो। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोग तो क्रोध आने पर उत्पन्न भावनाओं के वेग का भी स्वहित में सही इस्तेमाल कर लेते हैं। इसका भी ध्यान रखें।

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