रांची के योगदा सत्संग आश्रम में पांच दिवसीय साधना संगम संपन्न, स्वामी चैतन्यानन्द गिरि ने कहा श्रद्धा के बिना कोई भी व्यक्ति ईश्वर या मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता
रांची के योगदा सत्संग आश्रम में आयोजित पांच दिवसीय साधना संगम के समापन समारोह को संबोधित करते हुए स्वामी चैतन्यानन्द गिरि ने कहा कि श्रद्धा हमारे शरीर के अंदर रहनेवाली विजातीय तत्वों को बाहर निकालने में मदद करती है। श्रद्धा जब गहरी होती है तो यह महान संतों/गुरुओं के साथ रहने का अवसर प्रदान करती है। श्रद्धा के बिना न तो कोई प्राकृतिक गुणों को अपना सकता है और न ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यहां तक की श्रद्धा के बिना ईश्वर को भी प्राप्त नहीं कर सकता।
स्वामी चैतन्यानन्द गिरि ने कहा कि यह श्रद्धा का ही प्रभाव था कि भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के यहाँ बने राजकीय भोज को ठुकरा देते हैं, जबकि विदुर के यहां बने रुखे-सूखे भोजन को बड़े ही प्रेमपूर्वक ग्रहण करते हैं। यह दृष्टांत बताता है कि ईश्वर को श्रद्धा से प्राप्त कोई वस्तु या एक भक्त के हृदय में उनके प्रति पनपनेवाली श्रद्धा का उनके लिए क्या मोल होता है?
उन्होंने इसी प्रकार से श्रद्धा को लेकर महावतार बाबा से जुड़ी एक कहानी बताई। उन्होंने कहा कि एक बार महावतार बाबा अपने शिष्यों के साथ हिमालय के किसी कोने में बैठे थे। तभी वहां एक व्यक्ति आया और कहा कि मैं जानता हूं कि आप महावतार बाबाजी है। मैं पिछले कई दिनों से आपको ढूंढता रहा हूं। आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार करें। अगर आप मुझे अपना शिष्य नहीं स्वीकार करेंगे, तो इसी गहरी खाई में कूदकर अपना प्राण त्याग दूंगा। फिर क्या था? महावतार बाबाजी ने उससे कहा कि तो फिर देर किस बात की। कूद जाओ और उस व्यक्ति ने बिना देर किये, घाटी में छलांग लगा दी।
उस व्यक्ति के ऐसा करने पर महावतार बाबाजी ने अपने शिष्यों को उसके शव को ढूंढकर लाने को आदेश दिया। जल्द ही, उक्त व्यक्ति का शव महावतार बाबाजी के पास था। महावतार बाबाजी ने उस व्यक्ति पर कृपा की और वह तत्काल जी उठा। महावतार बाबाजी ने उस व्यक्ति से कहा कि अब मृत्यु भी तुम्हें नहीं छू सकती। अब तुम हमारे शिष्यों की टोली में शामिल होने का सामर्थ्य रखते हो। फिर महावतार बाबाजी ने उक्त शिष्य को अपनाने के बाद जल्द ही अपने अन्य शिष्यों को आदेश दिया कि अब डेरा डंडा उठाओ।
स्वामी चैतन्यानन्द गिरि ने कहा कि उक्त व्यक्ति की महावतार बाबाजी के प्रति अगाध श्रद्धा ने महावतार बाबाजी को उसे शिष्य के रूप में अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ा। उस पर कृपा लूटानी पड़ी। श्रद्धा में इतनी ताकत होती है। श्रद्धा कृपा लेकर आती है। जब कभी जीवन में समस्याएं आती हैं तो यही कृपा हमें बेहतर स्थिति में लाने में मुख्य भूमिका निभाती है।
उन्होंने कहा कि यही काम हमारे गुरु करते हैं। जब कभी हमारे जीवन में समस्याएं आती हैं। वे उसे दूर करने में लग जाते हैं। सच्चाई तो यह भी है कि जब हम श्रद्धापूर्वक गुरु का अऩुसरण करते हैं। तो हमें ईश्वर के दर्शन तक हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे माता शबरी को हुए। मतंग ऋषि ने तो शबरी से सिर्फ यही कहा था कि उसे ईश्वर के दर्शन होंगे। श्रीराम के दर्शन होंगे। बस शबरी अपने गुरु के इसी वाक्य को ब्रह्मवाक्य मान ली, उक्त ब्रह्मवाक्य को शिरोधार्य कर लिया। परिणाम क्या निकला? शबरी मतंग ऋषि के कथनानुसार श्रीराम की भक्ति में लीन हो गई। वो उनके स्वागत में हर दिन स्वयं को लगा दिया और एक दिन शबरी को श्रीराम मिल ही गये।
उन्होंने कहा कि श्रद्धा के विस्तार के लिए विनम्रता व स्वाध्याय का होना बहुत ही जरुरी है। विनम्रता का मतलब होता है कि गुरु की बातों पर हर हाल में अमल करना, न कि उनमें कमियां ढूंढना। श्रीकृष्ण कहते हैं कि योग द्वारा जो एकाग्र होकर उनका चिन्तन करते या उन पर श्रद्धा रखते हैं, वे उन पर हमेशा कृपा बरसाते हैं।
उन्होंने कहा कि स्वाध्याय एक ऐसी पटरी है, जो हमें जीवन रूपी रेलगाड़ी का सही पथ पर ले चलती और गंतव्य तक पहुंचाती है। इसलिए गुरुजी द्वारा लिखे पाठमालाओं एवं उनके द्वारा लिखित अन्य पुस्तकों व बताये गये मार्गों का हर हाल में पालन करना चाहिए। इससे हमारा मन प्रसन्न होता है और बुराइयों से हमारा ध्यान हटता है।
उन्होंने यह भी कहा कि श्रद्धा के विस्तार के लिए हमें यह ध्यान रखना होगा कि ईश्वर और गुरु हमेशा मेरे साथ हैं। गुरु का स्वभाव मां के समान होता है। जैसे मां हमारी सारी समस्याओं को दूर करने के लिए लगी रहती है। उसी प्रकार हमारे गुरु हमारी सारी समस्याओं को दूर करने के लिए लगे रहते हैं। कुछ तो समस्याएं वे ऐसे हल कर देते हैं, जिसका हमें पता भी नहीं चल पाता।
ठीक उसी प्रकार अर्जुन की कई समस्याओं को अर्जुन के पास आने के पहले ही भगवान श्रीकृष्ण ने हल कर दिया था। जैसे कर्ण के पास एक ऐसा अस्त्र था, जो अचूक था। उस अस्त्र को समाप्त करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने लीला रची। कर्ण ने उस अचूक अस्त्र का इस्तेमाल घटोत्कच पर कर दिया। अब कर्ण के पास ऐसा कोई अस्त्र नहीं था, जिससे अर्जुन के लिए भय था। जब भगवान श्रीकृष्ण आश्वस्त हो गये। तब जाकर अर्जुन को कर्ण के समक्ष प्रस्तुत किया और कर्ण पर अर्जुन को विजय भी दिलाई।
स्वामी चैतन्यानन्द गिरि ने कहा कि श्रद्धा का अगर विस्तार होता है तो श्रद्धा की कमी भी होती है। जब हम इन्द्रिय सुखों पर ज्यादा ध्यान देते हैं, ईश्वर को प्राप्त करने पर जब हमारा ध्यान नहीं रहता, हमारे अंदर विनम्रता का अभाव और स्वाध्याय का घमंड ज्यादा हो जाता है, बुरी संगति व आलस्य का प्रार्दुभाव हो जाता है। तब श्रद्धा की कमी हो जाती है। हमेशा याद रखिये, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो हममें लीन रहते हैं। संपूर्ण कर्मों को हमें अर्पित कर देते हैं। एकाग्र होकर सिर्फ हमारा ध्यान करते हैं। मैं सदैव उसका मार्गदर्शन करता हूं। उस पर कृपा लुटाता हूं।
